वर्तमान की डोर




ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।

बिना परिश्रम ही किए, यदि धन होता प्राप्त,
वैचारिक उद्भ्रांत से, मन हो जाता व्याप्त।

जैसे-जैसे लाभ हो , वैसे बढ़ता लोभ,
जब अतिशय हो लोभ तब, मन में उठता क्षोभ।

भूत और भवितव्य पर, नहीं हमारा जोर,
सुलझाते चलते रहो, वर्तमान की डोर।

रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।

सुख की छाया में सदा, पलता रहता राग,
दुख का कारण बन गया, किंतु राग की आग।

जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।


                                                                         -महेन्द्र वर्मा


13 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बढिया दोहे हैं भैया, आभार

Anupama Tripathi said...

जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।
बहुत सुन्दर दोहे ...!!
आभार .

डॉ. मोनिका शर्मा said...

रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।

सुंदर अर्थपूर्ण दोहे.....

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।

बहुत बढ़िया,उम्दा भावपूर्ण दोहे,महेंद्र जी !!!

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संजय @ मो सम कौन... said...

हमेशा की तरह सरल, सहज शब्दों में जीवन अनुभव का निचोड़।

shakuntala sharma said...

आपके सभी दोहे बहुत सरस सुन्दर एवम समरस हैं
अंतिम दोहे के लिए एक श्लोक है ----
संसार विश व्रिक्छ्स्य द्वे फले अम्रितोपमे ।
काव्याम्रित रसास्वादन सन्गति: सज्जनै:स:।।

Anonymous said...

ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।

दिगम्बर नासवा said...

रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास ..

सभी दोहे प्रभावी ... सुन्दर ... जीवन का सार लिए ... मज़ा आ गया ...

Amrita Tanmay said...

काव्यामृत का पान कराने के लिए हार्दिक आभार..

Ramakant Singh said...

जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।

एक लाख की बात

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

आदरणीय महेंद्र जी, हर दोहा बहुमूल्य रत्न जैसा.

प्रतिभा सक्सेना said...

दोहों की परंपरा में प्राण फूँकते नीति और जीवन- रीति के संदेश -आभार !

राजेश सिंह said...

जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।

सदा रहे यह ध्यान