ढूंढूं कहां, कहां खो जाती मानवता,
अभी यहीं थी बैठी रोती मानवता।
रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।
मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।
-महेन्द्र वर्मा