ढूँढो कोई कहाँ पर रहती मानवता,
मानव से भयभीत सहमती मानवता।
रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी लगती मानवता।
मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध लरजती मानवता।
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ-पूछ कर रही भटकती मानवता।
मेरे दुख को अनदेखा न कर देना
नए वर्ष से अनुनय करती मानवता।
-महेन्द्र वर्मा
नव-वर्ष शुभकर हो !
मानव से भयभीत सहमती मानवता।
रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी लगती मानवता।
मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध लरजती मानवता।
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ-पूछ कर रही भटकती मानवता।
मेरे दुख को अनदेखा न कर देना
नए वर्ष से अनुनय करती मानवता।
-महेन्द्र वर्मा
नव-वर्ष शुभकर हो !