छत्तीसगढ़ी हाना



                             वाचिक परम्पराएं सभी संस्कृतियों का एक महत्वपूर्ण अंग होती हैं। लिखित भाषा का प्रयोग न करने वाले लोक समुदाय में संस्कृति का ढांचा अधिकतर मौखिक परम्परा पर आधारित होता है। कथा, गाथा, गीत, भजन, नाटिका, प्रहसन, मुहावरा, लोकोक्ति, मंत्र आदि रूपों में मौखिक साधनों द्वारा परम्परा का संचार ही वाचिक परम्परा  है। इसमें निहित लोक-संस्कृति समुदाय की अक्षुण्ण धरोहर है। विभिन्न विधाओं में वाचिक परम्परा की यह धरोहर आज लोक साहित्य की संज्ञा प्राप्त कर चुकी है।
                            अन्य संस्कृतियों की भांति ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति के संचार में वाचिक परम्परा ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। पंडवानी, भरथरी, चनैनी, लोरिक-चंदा, देवार गीत, बांस गीत और आल्हा जैसी लोकगाथाएं इतिहास को अपनी विशिष्ट शैली में रूपायित करती हैं। विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले सुआ, करमा, ददरिया, पंथी, सोहर, फाग, बिहाव गीत, गौरा गीत, जसगीत, निर्गुणी भजन आदि लोककाव्य लोक-जीवन के हर्ष-विषाद, आस-विश्वास, आमोद-प्रमोद, रीति-नीति, श्रद्धा-भक्ति, राग-विराग आदि भावों को अत्यंत सहजता से सप्राण करते रहे हैं। इसी प्रकार रहस और नाचा जैसी लोक-नाट्य की विशिष्ट परम्पराएं लोक-संस्कृति की अद्भुत ध्वज-वाहक हैं।
                               छत्तीसगढ़ की वाचिक परम्परा को समृद्ध बनाने में लोकोक्तियों अर्थात हाना का महत्वपूर्ण योगदान है। लोकोक्ति मात्र लोक उक्ति नहीं है बल्कि यह सु-उक्ति अर्थात सूक्ति या सुभाषित भी है। हाना छत्तीसगढ़ के लोक-जीवन का नीति शास्त्र है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता संक्षिप्तता है। कम शब्दों में बहुत गहरी बात कहने की क्षमता हाना में होती है। इनमें गागर में सागर भरा होता है। हाना जनमानस के लिए आलोक स्तंभ हैं जो जीवन-पथ को निरंतर आलोकित करता रहता है।
                               संसार की सभी सभ्यताओं में हाना या लोकोक्तियों का प्रचलन है। लोक-जीवन के अनुभवों के बल पर ही लोकोक्तियां बनती हैं। छत्तीसगढ़ में हजारों हाना प्रचलित हैं। किसी हाना विशेष को कब और किसने गढ़ा होगा, यह जान पाना असंभव है। किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सामान्य जीवनचर्या के किसी प्रसंग या विचार की उपयुक्तता अथवा अनुपयुक्तता को प्रमाणित करने के लिए प्रकृति के किसी अन्य समान गुणधर्म वाले प्रसंग को कम शब्दों में उद्धरित किए जाने से  हाना कहने की परम्परा विकसित हुई होगी। जिसने भी कोई हाना गढ़ा होगा, उसकी लोकनीति की समझ, त्वरित सूझ-बूझ और वाक्चातुर्य पर आश्चर्य होता है। हाना अमिधात्मक न होकर लक्षणात्मक और व्यंजनात्मक होता है। वार्तालाप के समय किसी बात या विचार की स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता अर्थात हां और ना दोनों के लिए हाना प्रयुक्त किया जाता है।

                                 छत्तीसगढ़ी हाना अपने गढ़न के लिए इतिहास, राजनीति, धर्म, नीति, समाज, घर-परिवार, स्वास्थ्य, चिकित्सा, कृषि, व्यापार, लोक-व्यवहार आदि विषयों से मूल तत्व ग्रहण करता है। प्रकृति का व्यवहार, जीव-जंतुओं के क्रियाकलाप, खाद्य पदार्थों के लक्षण, मनुष्य का आचरण, जाति विशेष के कार्य और गुण, पारिवारिक रिश्तों का ताना-बाना, वस्तुओं की विशेषताएं आदि से हाना के कथ्य लिए गए हैं। हाना के गढ़न में छत्तीसगढ़ी के ‘क्लासिकल‘ शब्दों का प्रयोग उसे सरसता प्रदान करता है। शब्दों का ऐसा सुंदर प्रयोग अन्यत्र परिलक्षित नहीं होता। कुछ में शब्दों की सादगी भी है किंतु हाना में व्यक्त भाव उसके अर्थ की व्यापकता को समृद्ध करता है। शब्द, अर्थ और भावों का समुच्चय हाना सूक्तियों का स्वरूप लेकर छत्तीसगढ़ की संस्कृति का भी दिग्दर्शन कराता है।
                                   छत्तीसगढ़ के जन-मानस में ‘अतिथि देवो भव‘  की भावना रची-बसी है। किंतु उदारता और बड़प्पन की असीमता देखिए, अतिथि यदि शत्रु हो तो भी उसका सम्मान करता है और ‘‘बैरी बर ऊंच पीढ़ा‘‘ कहकर गौरवान्वित अनुभव करता है। यही उदारता जब सीमा से अधिक होने लगी तो वह यह कहने से भी नहीं चूकता- ‘‘घर गोसइयां ला पहुना डरवावै‘‘। जब कोई व्यक्ति किसी की वस्तु पर अपना अधिकार पाने की अनधिकृत चेष्टा करता है तब इस हाना का प्रयोग किया जाता है।
                                  यहां के लोग भागयवाद पर नहीं बल्कि कर्मवाद पर विश्वास करते हैं । वे जानते हैं कि उचित कार्य न करने से प्रतिकूल परिणाम प्राप्त होता है किंतु व्यक्ति अपने कार्य में ध्यान न देकर भाग्य को दोष देता है। ऐसी ही परिस्थितियों के लिए कहा जाता है- ‘‘चलनी म दूध दुहै, करम ल दोस दै‘‘।
                                      यह प्रचलित मान्यता है कि गांव के लोग अंधविश्वासी होते हैं। क्या छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही है ? वर्तमान में भले ही कुछ मात्रा में हो, लेकिन इस हाना से ज्ञात होता है कि पहले ऐसा नहीं था-‘‘ जोग मा साख नहीं, आंखी मा भभूत आंजै।‘‘ ढोंग और दिखावे के प्रति कितना सटीक व्यंग्य !
                                   ‘‘पढ़े हे फेर कढ़े नइए‘‘, यह हाना इस तथ्य को संकेतित करता है कि पुस्तकीय ज्ञान की तुलना में जीवनानुभव के पन्ने अधिक महत्व रखते हैं। ऐसी सूझ-बूझ वाले छत्तीसगढ़ के लोग निश्चित रूप से पहले निरे भोले-भाले नहीं रहे होंगे।
                                    मानव-मन की एक दुर्बलता यह है कि वह अपने दुर्गुणों को छिपाता है और दूसरों के दुर्गुणों को बताने में अधिक रुचि लेता है। इस सार्वभौमिक सत्य को सहज शब्दों में किंतु कलात्मक ढंग से एक हाना में इस तरह कहा गया है-‘‘अपन ला तोपै, दूसर के ला उघारै‘‘। अमिधार्थ में हास्य है, लक्षणार्थ में मनोविज्ञान है और व्यंजनार्थ में तीखा व्यंग्य। यथार्थ को यूं कहने का अंदाज़ हाना में ही संभव है। दार्शनिक अंदाज़ का एक हाना यह है-‘‘करनी  दिखै, मरनी के बेर‘‘। जीवन भर मनुष्य अपने गलत कार्यों पर ध्यान नहीं देता किंतु मृत्यु के समय उसे सब याद आ ही जाता है।
                                      ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो परिश्रम से जी चुराते हैं लेकिन कार्य का श्रेय लेने में आगे रहते हैं। इनके लिए जो हाना गढ़ा गया उसमें दौंरी द्वारा फसल मिसाई के प्रसंग से तुलना की गई है। कोई बैल नांगर या गाड़ा में जोते जाने पर रेंगता नहीं है लेकिन दौंरी में जुतने के लिए तत्पर रहता है क्योंकि वहां दाना और पैरा दोनों खाने को मिलेगा, अर्थात, ‘‘काम के न धाम के, दौंरी बर बजरंगा‘‘। बजरंगा शब्द का ध्वन्यात्मक प्रभाव हाना के अर्थ को सुदृढ करता है।
                                     ‘‘कुसियार ह जादा मिठाथे त ओकर जरी ला नई चुहकैं‘‘। ध्यातव्य तथ्य प्राप्त होता है कि  पहले भी छत्तीसगढ़ में पारम्परिक फसलों के साथ-साथ गन्ने की फसल भी ली जाती थी। कुसियार से परिश्रमी व्यक्ति और सीधे-सादे व्यक्ति की तुलना, कार्य कराने से चुहकना की तुलना और स्वास्थ्य से  जरी की तुलना करते हुए हाना कहा गया।
                                     हाना में ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों का भी नाम मिलता है। जैसे-‘‘गोकुल के बिटिया, मथुरा के गाय, करम छांड़े त अंते जाय‘‘। अमिधार्थ स्पष्ट है। व्यंजनार्थ यह है कि सुख-सुविधा संपन्न स्थान पर आश्रित किसी व्यक्ति को वह स्थान छोड़ना पड़े तो यह उसका दुर्भाग्य ही होगा।
                                        कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमें जिस वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक मोह है, उसी के द्वारा हमारा अनर्थ हो, हानि हो, तब अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए उसे इस तरह व्यक्त करें तो कुछ संतुष्टि तो मिलेगी ही-‘‘जरै वो सोन, जेमा कान टुटै‘‘।
                                        ‘‘महतारी के परसे अउ मघा के बरसे‘‘ दोनों तृप्ति    कारक हैं। मां की तुलना मघा नक्षत्र से की गई है जिसमें हुई वर्षा संतान रूपी फसल को संतृप्त करती है। पत्नी के खाना परोसने में भला क्या अंतर है ? इसका उत्तर तो इस हाना में निहित है-‘‘डौकी टमड़ै कन्हिया, महतारी टमड़ै पेट‘‘।
                                          बेटियों को लेकर भी एक मार्मिक हाना है। बेटी के प्रति माता-पिता का असीम स्नेह है। बेटी की असामयिक मृत्यु     हो जाती है। माता-पिता पर दुख का पहाड़ टूट पड़ता है। परिवार के अन्य सदस्य उन्हें सांत्वना देते हुए कहते हैं- ‘‘दई लेगे लेगे, दमाद लेगे लेगे‘‘। बेटी को तो एक दिन इस घर से जाना ही था, अब उसे ईश्वर ले जाए या दामाद, एक ही बात है।
                                          छत्तीसगढ़ की संस्कृति की एक हल्की सी झलक इन उदाहरणों में अभिव्यक्त है, इस लघु आलेख में इतना ही संभव है। समग्र विवरण के लिए एक वृहद्काय ग्रंथ रचने की आवश्यकता होगी। क्योंकि छत्तीसगढ़ में लोकोक्तियों की संख्या अनुमानतः कई हजार है । ऊपर जो गिनती के प्रतिनिधि उदाहरण दिए गए हैं वे मध्य छत्तीसगढ़ में प्रचलित हैं। उत्तरी और दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्रों की बोलियों में प्रचलित लोकोक्तियों को भी सम्मिलित करें तो इनकी संख्या कितनी होगी, अनुमान लगाना कठिन है।
                                           अंत में, छत्तीसगढ़ की पीड़ा के मर्म को अभिव्यक्त करने वाला एक हाना । यह प्रदेश सदैव अन्य अंचलों के लोगों का आश्रयदाता रहा है। उन्हें अतिथि न मानकर परिवार का सदस्य माना गया। उनको भोजन और आवास देने के साथ-साथ यह भी बता दिया गया कि छत्तीसगढ़ की सम्पन्नता कहां छुपी है। कालांतर में छत्तीसगढ़ को लगा कि ऐसा कर उसने उचित नहीं किया। किसी समय बरबस उसके मुंह से जो हाना निकला , वह हमें अभी भी सचेत कर रहा है - ‘‘दू कोतरी दे दै, फेर दाहरा ला झन देखावै‘‘।
                                          हाना छत्तीसगढ़ की वाचिक परम्परा की एक विशिष्ट विधा है। अन्य विधाओं की अपेक्षा हाना में संस्कृति का समग्र और व्यापक उल्लेख मिलता है। यद्यपि इसमें कम शब्दों का प्रयोग होमा है किंतु प्रत्येक हाना छत्तीसगढ़ की संस्कृति के एक विशिष्ट प्रसंग को दृश्यमान बना देता है।

                                                                                                                  महेन्द्र  वर्मा

राजरानी देवी



                      सन् 1905 में एक माँ ने जिस बालक को जन्म दिया, वह हिंदी साहित्याकाश में नक्षत्र बन कर चमका। उस बालक को हिंदी और हिंदी साहित्य का ककहरा उसकी माँ ने ही सिखाया। माँ स्वयं एक भावप्रवण कवयित्री थीं। काव्य-सृजन का मर्म समझने और अपने बालक को कविता का संस्कार देने वाली उस माँ का नाम था- राजरानी देवी।
                      यह माना जाता है कि जिस प्रकार पुरुष कवियों में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कविता का एक नया युग उपस्थित किया था उसी प्रकार राजरानी देवी ने महिला कवियों में एक नए संसार की सृष्टि की थी।
                       राजरानी देवी का जन्म मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के पिपरिया गांव में हुआ था। 12 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह नरसिंहपुर के लक्ष्मीप्रसाद जी से हुआ जो बाद में डिप्टी कलेक्टर हुए। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रामकुमार वर्मा इन्हीं के पुत्र थे।
                       प्रस्तुत है, राजरानी देवी की एक लंबी रचना के अंश जो एक शताब्दी बाद भी समाज के लिए प्रेरणाप्रद है-

नव-हरिद्र-रंजित अंग में, सर्वदा सुख में तुम्ही लवलीन हो,
ग्रंथि-बंधन के अनूप प्रसंग में, दूसरे के ही सदा अधीन हो।
 

बस तुम्हारे हेतु इस संसार में, पथ प्रदर्शक अब न होना चाहिए,
सोच लो संसार के कान्तार में, बद्ध होकर यदि जिए तो क्या जिए।
 

कर्म के स्वच्छन्य सुखमय क्षेत्र में, किंकिणी के साथ भी तलवार हो,
शौर्य हो चंचल तुम्हारे नेत्र में, सरलता का अंग पर मृदु भार हो।
 

सुखद पतिव्रत धर्म-रथ पर तुम चढ़ो, बुद्धि ही चंचल अनूप तरंग हांे,
दिव्य जीवन के समर में तुम लढ़ो, शत्रु के प्रण शीघ्र ही सब भंग हों।
 

हार पहनो तो विजय का हार हो, दुंदुभी यश की दिगंतों में बजे,
हार हो तो बस यही व्यवहार हो, तन चिता पर नाश होने को सजे।
 

मुक्त फणियों के सदृश कच-जाल हों, कामियों को शीघ्र डसने के लिए,
अरुणिमायुत हाथ उनके काल हों, सत्य का अस्तित्व रखने के लिए।

मृत्यु के निकट



आत्म प्रशंसा त्याज्य है, पर निंदा भी व्यर्थ,
दोनों मरण समान हैं, समझें इसका अर्थ।

एक-एक क्षण आयु का, सौ-सौ रत्न समान,
जो खोते हैं व्यर्थ ही, वह मनुष्य नादान।

इच्छा अजर अनंत है, अभिलाषा अति दुष्ट,
जो वीतेच्छा है वही, कहलाता संतुष्ट।

जिन कार्यों को पूर्ण कर, अंतर्मन हो शांत,
वही कर्म स्वीकार्य है, अन्य कर्म दिग्भ्रांत।

दुखी व्यक्तियों को सदा, खोजा करता कष्ट,
है यदि चित्त प्रसन्न तो, पल में कष्ट विनष्ट।

हर क्षण हम सब जा रहे, मृत्यु के निकट और,
इसीलिए सत्कर्म कर, करें सुरक्षित ठौर।

गुणीजनों के पास ही, गुण का होता पोष,
निर्गुण जन के निकट ये, बन जाते हैं दोष।

                                                                                      -महेन्द्र वर्मा