वैदिक गणित और विद्यालयीन पाठ्यक्रम

(मेरे पिछले पोस्ट का दूसरा भाग, पहला भाग यहां देखें)


दिसंबर 2016, संसद का शीतकालीन सत्र । सदन में भारत शासन से पूछे गए दो दो प्रश्न और संबंधित ‘मिनिस्टर’ द्वारा दिए गए उनके उत्तर-
प्र.1.  क्या यह सच है कि वैदिक गणित परंपरागत विधि से अधिक तीव्र गति से गणितीय प्रश्न हल करने में सक्षम है ?
उ. वैदिक गणित में शीघ्र हल करने के लिए कुछ विधियां दी गई हैं, किंतु ये विधियां गणित में सभी जगह लागू नहीं होतीं ।
पं. 2. क्या सरकार वैदिक गणित को विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में लागू करने के संबंध में विचार कर रही है ?
उ. सरकार इस तरह के किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही  है ।
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इस तरह का प्रस्ताव एक न्यास द्वारा शासन के समक्ष प्रस्तुत किया गया था । एन.सी.ई.आर.टी. ने इस पर काम भी शुरू कर दिया था । यह न्यास  सन् 1992 से इस प्रयास में लगा था कि वैदिक गणित देश भर के स्कूलों में पढ़ाया जाए । इसी न्यास के प्रस्ताव पर कुछ राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में वैदिक गणित को सम्मिलित कर लिया गया है ।

उक्त प्रस्ताव को केन्द्र शासन निरस्त नहीं करता यदि देश के जागरूक वैज्ञानिक और गणितज्ञों ने इस की आलोचना नहीं की होती। इन सब का कहना है कि जिसे वैदिक गणित कहा जा रहा है वह गणित नहीं है बल्कि परंपरागत गणित के कुछ प्रारंभिक प्रश्नों के शीघ्र उत्तर बताने की मौखिक विधियां हैं । लेकिन सीखने वाले को यह नहीं बताया जाता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है जबकि गणित सीखने का अर्थ यह होता है कि उत्तर प्राप्त करने की प्रक्रिया में हर क्यों का जवाब भी मालूम हो ।

वैदिक गणित के संबंध में सबसे पहले प्राचीन भारतीय गणित और खगोल विज्ञान पर अनेक पुस्तकों के लेखक डॉ.के.एस.शुक्ल का एक आलोचनात्मक लेख Mathematical Education  पत्रिका के जनवरी 1989 अंक में Vedic Mathematics-The illusive title of Swamijis book शीर्षक से प्रकाशित हुआ । उनके अनुसार ‘वैदिक गणित’ शीर्षक भ्रम उत्पन्न करने वाला है क्योंकि इसकी विषय वस्तु वैदिक नहीं है ।

1993 से 2007 के मध्य टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के डॉ. एस.जी.दानी ने Vedic Mathematics-Myths and Reality सहित कई लेख लिखे ।  एक लेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘वैदिक गणित को पढ़ाए जाने से कहीं ऐसा न हो कि हमारे देश का बौद्धिक और शैक्षिक जीवन विकृत हो जाए, आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा और इतिहास की प्रवृत्ति ही दूषित हो जाए ।

प्रसिद्ध खगोलभौतिक विज्ञानी प्रो. जयंत विष्णु नारलीकर की एक पुस्तक 1993 में प्रकाशित हुई- The Scientific Edge । इस में भारत के पिछले 3000 वर्षों के विज्ञान और गणित के गौरवपूर्ण अतीत का विस्तृत वर्णन किया गया है ।  इस पुस्तक में उन्होंने आजकल प्रचलित वैदिक गणित के संबंध में भी विस्तार से लिखा है । प्रो.. नारलीकर इसे न तो वैदिक मानते हैं और न ही गणित । वे लिखते हैं- ‘‘वास्तविक गणित केवल संख्याओं का परिकलन नहीं है बल्कि तर्क और विचारों का परस्पर ऐसा  संबंध है जो सरल सिद्धांतों से प्रारंभ हो कर एक गहन निष्कर्ष तक पहुंचता है ।’’

यही कारण है कि बोधायन (ई.पू. 8वीं श.) द्वारा बताई गई समकोण त्रिभुज संबंधी विशेषता को ‘गणित’ नहीं माना गया क्योंकि उन्होंने इस की उपपत्ति नहीं दी और पायथेगोरस (ई.पू. 5वीं श.) को इसका श्रेय इसलिए दिया गया क्योंकि उसने उपपत्ति भी लिखी । प्रमेय का अर्थ ही है, ‘जिसे प्रमाणित किया जाए’ ।

बहुत से लोगों ने वैदिक गणित के समर्थन में कई लेख प्रकाशित करवाया है । इस पर प्रो. नारलीकर लिखते हैं-‘‘उन्हें गणित की समझ नहीं है । आगे वे एक महत्वपूर्ण बात लिखते हैं- ‘‘स्कूली पाठ्यक्रम में वैदिक गणित को सम्मिलित करना गणित के उस वास्तविक और सार्थक स्वरूप से ध्यान भटकाना होगा जिसे वास्तव में पढ़ाए जाने की आवश्यकता है ।’’

आई.आई.टी. चेन्नई में गणित की प्रोफेसर डॉ.(सुश्री) वसंत कांतसामी, जिनकी गणित पर 116 शोध-पुस्तकें लिखी हैं, ने वैदिक गणित पर शोध अध्ययन किया है । यह शोध 220 पृष्ठों के एक पुस्तक Vedic Mathematics -‘Vedic’ or‘Mathematics’:A Fuzzy & Neutrosophic Analysis  शीर्षक से 2006 में प्रकाशित हुई है। इन्होंने वैदिक गणित के संबंध में छात्रों, अध्यापकों, पालकों और उच्च शिक्षित व्यक्तियों के विचारों का एक नई गणितीय विधि से विश्लेषण किया है । इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने वैदिक गणित को स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन के लिए लाभदायक नहीं माना है ।

इनके अतिरिक्त और भी कई गणितज्ञों एवं वैज्ञानिकों ने वैदिक गणित को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के प्रयास की आलोचना की है । उनके अनुसार वैदिक गणित 
में केवल ‘शार्टकट्स’ हैं जो प्रारंभिक कक्षाओं के कुछ ही परिकलनों में लागू होते हैं । उच्च गणित में इनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है ।

 इन सब के बावज़ूद यह न्यायालय का प्रकरण बन गया ।

सुप्रीम कोर्ट में स्कूली पाट्यक्रम के संबंध में शासन के विरुद्ध एक अपील दर्ज की गई थी । इस प्रकरण के संदर्भ में कोर्ट द्वारा 12 सितंबर, 2002 को दिए गए निर्णय में यह तथ्य भी है- ‘‘वैदिक गणित को पाठ्यक्रम का भाग नहीं बनाया गया है बल्कि इसे गणना सहायक सामग्री के रूप में उपयोग करने हेतु सुझाव दिया गया है । गणित शिक्षण के दौरान शिक्षक इसका उपयोग करने अथवा न करने के लिए स्वतंत्र है ।’’

इसी संदर्भ में एन.सी.ई.आर.टी. में गणित विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हुकुम सिंह ने दिसंबर, 2016 में यह विचार व्यक्त किया था- ‘‘वैदिक गणित पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होना चाहिए, यह निर्णय प्रसिद्ध गणितज्ञों से प्राप्त सुझावों के आधार पर लिया गया था ।’’

उक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि विद्यालयों में वैदिक गणित नहीं पढ़ाया जाना चाहिए ।  कई राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में यह अभी भी सम्मिलित है, पढ़ाने की अनिवार्यता सहित ।

-महेन्द्र वर्मा







‘वैदिक गणित’ क्या सचमुच वैदिक है






जब मैं ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में कार्यरत था तब सेवारत शिक्षकों और प्रशिक्षु शिक्षकों को वैदिक गणित विषय पर प्रशिक्षण देने का अवसर प्राप्त हुआ था । हमें एक पुस्तक दी गई थी-‘वैदिक गणित’ । पुस्तक के शीर्षक से ऐसा ध्वनित होता है कि इस में जिस गणित का वर्णन है वह वेदों में है । कक्षा में प्रशिक्षण देने के पूर्व मैंने उसका अध्ययन किया । मुझे कुछ संदेह हुआ कि क्या यह सचमुच वैदिक है ?

और फिर मैंने अपने स्तर पर इस संदर्भ में खोजबीन करना आरंभ किया । इस प्रक्रिया में मुझे जो जानकारी मिली वह अप्रत्याशित नहीं थी ।

इस विषय की मूल पुस्तक Vedic Mathematics शीर्षक से 1965 में प्रकाशित हुई जिसके लेखक स्व. स्वामी श्री भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज हैं जिसमें 16 ‘सूत्र’ दिए गए हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन स्वामी जी के स्वर्गारोहण के पश्चात  हुआ था । विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला ‘वैदिक गणित’ इसी पुस्तक पर आधारित है । वर्तमान में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अतिरिक्त कई राज्यों में स्कूली विद्यार्थियों को ‘वैदिक गणित‘ पढ़ाया जा रहा है लेकिन सर्वप्रथम इस विषय का शिक्षण उत्तरप्रदेश के विद्यालयों में सन् 1992 में प्रारंभ हुआ ।

1993 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के गणितज्ञ डॉ. एस.जी.दानी का अंग्रेज़ी में एक लेख फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। अपने विस्तृत लेख में एक स्थान पर वे लिखते हैं - ‘‘स्वामी जी की पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वैदिक गणित कहा जाए । यहां तक कि इस में परवर्ती काल की भारतीय गणितीय सिद्धांतों और प्रक्रियाओं की समृद्ध परंपरा का भी वर्णन नहीं है ।’’ डॉ. दानी की इस टिप्पणी ने मुझे मूल पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित किया ।

मैंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखित  Vedic Mathematics का अध्ययन-मनन प्रारंभ किया । स्वामी जी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं - ‘‘हम यह जान कर आश्चर्यचकित हुए कि अथर्ववेद के परिशिष्ट में उल्लेखित सूत्रों की सहायता से गणित के कठिन प्रश्नों को बहुत आसानी से हल किया जा सकता है ।’’ किंतु इसी पुस्तक में स्वामी जी की एक शिष्या श्रीमती मंजुला त्रिवेदी अपने वक्तव्य में लिखती हैं - ‘‘ये सूत्र अथर्ववेद के किसी परिशिष्ट में नहीं हैं, वास्तव में ये सूत्र अथर्ववेद में  यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री से  स्वामी जी के द्वारा सहजबोध से पुनर्सृजित किए गए हैं ।’’

श्री वी. एस. अग्रवाल, जो इस पुस्तक के संपादक हैं, अपने संपादकीय लेख में इस से भिन्न बात लिखते हैं-‘‘स्वामी जी की यह कृति अपने आप में एक नया परिशिष्ट माने जाने का अधिकार रखती है और इसीलिए आश्चर्य नहीं कि यहां दिए गए सूत्र वेदों के किसी भी ज्ञात परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं होते ।’’
उपर्युक्त तीनों बातों में कोई सामंजस्य नहीं है ।

पुस्तक के संपादक ने अपने संपादकीय में जिन विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त किया है उनमें डॉ. ब्रजमोहन का भी नाम है जो उस समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गणित विभाग के अध्यक्ष थे । डॉ. ब्रजमाहन ने संपादक के आग्रह पर ‘वैदिक गणित’ की पाण्डुलिपि की गणनाओं की सत्यता की जांच की थी । मैंने डॉ. ब्रजमोहन की 1965 में प्रकाशित पुस्तक ‘गणित का इतिहास’ में इस का संदर्भ खोजना शुरू किया ।

अपनी पुस्तक की भूमिका में डॉ. ब्रजमोहन ने स्वामी जी के वैदिक सूत्रों के संबंध में यह लिखा है- ‘‘स्वामी जी ने अपने व्याख्यानों और व्यक्तिगत वार्ता में अनेक गणितीय सूत्रों की चर्चा की थी । स्वामी जी ने इन सूत्रों का यह अभिदेश दिया था : अथर्ववेद, परिशिष्ट 1 । मुझे अथर्ववेद के जितने भी संस्करण काशी के पुस्तकालयों में मिल सके,  मैंने सब छान मारे । मुझे उपरिलिखित सूत्र कहीं नहीं मिले । मैंने  स्वामी जी को इस विषय में तीन पत्र लिखे । मुझे कोई उत्तर नहीं मिला । तत्पश्चात मैं वेदों के उद्भट विद्वानों से मिला जैसे, पं. गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, और पंचगंगा घाट काशी के पं. रामचंद्र भट्ट । उन्होंने बताया कि उपरिलिखित सूत्रों की भाषा ही वैदिक संस्कृत से मेल नहीं खाती अतः ये वैदिक सूत्र नहीं हो सकते ।.....हम उक्त सूत्रों का वास्तविक अभिदेश जानने के लिए उत्सुक हैं । किंतु जब तक यथार्थ अभिदेश न मिल जाए तब तक हम इतनी अप्रमाणित बात अपनी पुस्तक में नहीं दे सकते ।’’

अस्तु, ‘वैदिक गणित’ के संपादक ने डॉ. ब्रजमोहन के उक्त जिज्ञासा का समाधान संपादकीय में यह लिखकर कर दिया था कि ये सूत्र अथर्ववेद के किसी भी परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं हैं ।

‘वैदिक गणित’ के वैदिक न होने के संबंध में सन् 1993 से 2000 तक कई गणितज्ञों और वैज्ञानिकों के लेख अंग्रेज़ी अख़बारों में प्रकाशित हुए । इन के प्रत्युत्तर में सन् 2000 में वार्षिक शोध पत्रिका ‘संबोधि’ में संपादक डॉ. एन.एम.कंसारा ने  Vedic Sources of Vedic Mathematics शीर्षक से 30 पृष्ठों का एक लेख लिखा । किंतु इस लेख में वे ‘वैदिक गणित’ को वैदिक सिद्ध नहीं कर सके और लेख के अंत में उन्होंने निष्कर्ष लिखा कि ये सूत्र वेदों में एक स्थान पर नहीं है बल्कि यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं । श्री कंसारा इस ‘यत्र-तत्र’ का एक भी संदर्भ नहीं दे पाए ।

अब यह निश्चित हो गया कि ‘वैदिक गणित’ के किसी भी अंश का वैदिक साहित्य में कोई संदर्भ नहीं है । अब मैंने ‘यत्र-तत्र’ को ध्यान में रखते हुए पांचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक के मध्यकालीन भारतीय गणितज्ञों के प्राचीन ग्रंथों में इसका संदर्भ खोजना प्रारंभ किया ।

अपने अध्ययन के दौरान मुझे कुछ संदर्भ मिले । ‘वैदिक गणित’ में एक सूत्र है- ‘ऊर्ध्व तिर्यग्भ्याम्’, इस सूत्र का पुस्तक में व्यापक प्रयोग हुआ है । इस सूत्र में जिस एल्गोरिद्म का प्रयोग हुआ है वह महान भारतीय गणितज्ञ महावीराचार्य (9वीं शताब्दी ई).की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गणित सार संग्रह’ (2.31) में है ।
स्वामी जी का एक उपसूत्र ‘यावदूनम्’ का एल्गोरिद्म ब्रह्मगुप्त (7 वीं श,) के ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धांत’ (12.55,64) में तथा भास्कराचार्य द्वितीय की  प्रसिद्ध पुस्तक ‘लीलावती’ (सू. 13.9) में है । बोधायन के शुल्व सूत्र के प्रसिद्ध प्रमेय, जिसे अब पायथोगोरस का प्रमेय कहा जाता है, की जो उपपत्ति ‘वैदिक गणित’ में दी गई है वह वास्तव में भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा दी गई उपपत्ति है ।

इतना अवश्य है कि स्वामी जी ने अपनी पुस्तक में गणितीय नियमों को ‘ट्रिक्स’ और ‘शार्टकट्स’ में परिवर्तित किया है ।
मेरे संदेह का समाधान हो चुका है । आपको भी इस लेख के शीर्षक-प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया होगा ।

-महेन्द्र वर्मा

झूठ का सच



यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति यदा-कदा अनेक कारणों से झूठ बोलता है किंतु जब यह किसी व्यक्ति के लिए आदत या लत बन जाती है तो समाज में वह निंदा का पात्र बन जाता है । कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि कोई उसे झूठ बोलकर धोखा दे । आदतन झूठा वह आदमी होता हे जो पहले भी झूठ बोलता था, अभी भी झूठ बोल रहा है और आगे भी झूठ बोलेगा ।

यदि कोई ऐसी बात कहता है जिसके बारे में बोलने वाले को भी विश्वास नहीं होता कि यह सच है फिर भी इस इरादे से बोलता है कि सुनने वाले उस बात को सच मान लें, झूठ बोलने का यही तात्पर्य है । स्पष्ट है कि झूठ में बेइमानी और धोखा दोनों शामिल हैं ।


चूंकि ‘झूठ बोलना’ मानव व्यवहार से संबंधित है इसलिए मनावैज्ञानिकों ने इस विषय पर भी पर्याप्त अध्ययन किया है । झूठ के संबंध में पहले जो चिंतन था वह नैतिकता और धार्मिकता पर आधारित था और उपदेशपरक था । लेकिन हाल के वर्षों में मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि मनुष्य झूठ बोलता क्यों है और कौन-सी चीज उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करती है।

झूठ बोलने के संबंध में सबसे पहले व्यवस्थित रूप से अध्ययन कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के समाज मनोविज्ञानी बेला डे पाउलो और उसके साथियों ने दो दशक पहले प्रारंभ किया था । पाउलो ने अपनी पुस्तक The Psychology of Lying में झूठ बोलने के कारणों का उल्लेख किया है ।  A  National Geographic  पत्रिका के जून 2017 के अंक में इस विषय पर कवर स्टोरी प्रकाशित की थी । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लोग अलग-अलग कारणों से झूठ बोलते हैं -
 1. अपनी गलती और अपराध को छिपाने के लिए, 2. स्वयं को इच्छित मुकाम में प्रतिष्ठित करने के लिए, 3. दूसरों को भ्रमित कर प्रभावित करने के लिए, 4. व्यक्तिगत लाभ के लिए, 5. सच्चाई को उपेक्षित करने के लिए 6. कुछ लोगों को नुकसान पहुंचाने के लिए, 7. मज़ाक करने के  लिए, 8. अन्य कारणों से ।

American Journal of Forensic Psychiatry  में प्रकाशित एक लेख और टेक्सास यूनीवर्सिटी की मनावैज्ञानिक जैकलीन इवान्स और उनके सहयोगियों के अनुसार झूठ बोलने वालों के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं -
1.उनकी सोच अस्थिर होती है, 2. स्वयं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हैं या छिपाते हैं, 3.‘क्यों’ का उत्तर देने से बचते हैं, 4. उत्तर देने के पूर्व सवाल को दुहराते हैं, 5. बोलते समय ‘पिच’ में असाधारण परिवर्तन होता रहता है,  6.ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे वे बहुत परिश्रम करते हैं, 5. उनके कथन निरर्थक और विरोधाभासी होते हैं, 7. वे चिंतित और तनावग्रस्त रहते हैं, 6. उनमें हीन भावना होती है ।

मनोविज्ञानी शेली टेलर के अनुसार, झूठ बोलने वाले आत्ममुग्ध होते हैं । भाषा पैटर्न पर शोध करने वाले मनोविज्ञानी डायना बेरी के अनुसार झूठ बोलने और लिखने वाले प्रायः अपनी बातों में ‘प्रथम पुरुष’ का प्रयोग करते हैं । डे पाउलो ने अपने शोध में पाया कि ऐसे लोग अक्सर विवादित रहते हैं । हार्वर्ड में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. ग्राम्ज़ो के अनुसार झूठ बोलना मूल रूप से स्वयं को एक लक्ष्य की ओर स्वयं को प्रोजेक्ट करने और अपनी इच्छाओं को पोषित करने की कवायद है ।

Nature Neuroscience  में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि झूठ बोलते समय व्यक्ति के मस्तिष्क का ‘प्रोत्साहन केन्द्र’ सक्रिय हो जाता है । इससे प्रेरित होकर वह अपने व्यवहार में निरंतर झूठ बोलने या धोखा देने का पैटर्न जारी रखता है । टेक्सास विश्वविद्यालय की विभागीय पत्रिका Personality and Social Psychology  की एक रिपोर्ट के अनुसार झूठे लोग जोड़-तोड़ करने वाले और ‘मेकियावेलियन’ होते हैं । मनोविज्ञान में ‘मेकियावेलियन’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जो स्वयं की इच्छा और लक्ष्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ धोखा, छल-कपट और हिंसा तक का व्यवहार करता है ।

चिकित्सा मनोविज्ञान में Pseudologia Fantastica मनुष्य की ऐसी असामान्य मनःस्थिति को कहा जाता है जब व्यक्ति झूठ बोलने का आदी हो या बाध्य हो । इसी तरह की एक और स्थिति को Mitomanía  कहते हैं जिसमें व्यक्ति की अतिशयोक्तिपूर्ण झूठ बोलने की असामान्य प्रवृत्ति होती है । मनोचिकित्सकों के अनुसार ये मानसिक रोग कुण्ठा और हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति को होने की अधिक संभावना होती है। ऐसे लोग स्वयं की झूठी प्रतिष्ठा के लिए चतुराई से इस तरह बार-बार झूठ बोलते हैं कि लोग उसका विश्वास करें ।

लगभग 200 वर्ष पूर्व आयरलैंड के प्रसिद्ध साहित्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने  Essay on the Art of Political Lying   में एक विचित्र बात लिखी है- ‘‘ जिस प्रकार एक बड़ा लेखक अपने पाठकों को नापसंद करता है उसी प्रकार एक बड़ा झूठा अपने ही विश्वासियों को नापसंद करता है ।’’

-महेन्द्र वर्मा