सुख-दुख से परे

एकमात्र सत्य हो
तुम ही

तुम्हारे अतिरिक्त
नहीं है अस्तित्व
किसी और का

सृजन और संहार
तुम्ही से है
फिर भी
कोई जानना नहीं चाहता
तुम्हारे बारे में !

कोई तुम्हें
याद नहीं करता    
आराधना नहीं करता
कोई भी तुम्हारी

कितने उपेक्षित-से
हो गए हो तुम
पहले तो
ऐसा नहीं था !!

भले ही तुम
सुख-दुख से परे हो
किंतु,
मैं तुम्हारा दुख
समझ सकता हूं
ऐ ब्रह्म !!!

 

                                                   -महेन्द्र वर्मा


शब्द रे शब्द, तेरा अर्थ कैसा


‘मेरे कहने का ये आशय नहीं था, आप गलत समझ रहे हैं।‘
यह एक ऐसा वाक्य है जिसका प्रयोग बातचीत के दौरान हर किसी को करने की जरूरत पड़ ही जाती है।
क्यों जरूरी हो जाता है ऐसा कहना ?

उत्तर स्पष्ट है-बोलने वाले ने अपना विचार व्यक्त करने के लिए शब्दों का प्रयोग जिन अर्थों में किया, सुनने वाले ने उन शब्दों को भिन्न अर्थों में सुना और समझा।

किसी शब्द का अर्थ बोलने और सुनने वाले के लिए भिन्न-भिन्न क्यों हो जाता है ?
दरअसल, शब्दों के अर्थ 3 बिंदुओं पर निर्भर होते हैं-
1.    संदर्भ
2.    मनःस्थिति
3.    अर्थबोध क्षमता

बोलने वाला  अपनी बात एक विशिष्ट संदर्भ में कहता है। आवश्यक नहीं कि सुनने वाला ठीक उसी संदर्भ में अर्थ ग्रहण करे। वह एक अलग संदर्भ की रचना कर लेता है।

मनःस्थिति और मनोभाव शब्दों के लिए एक विशिष्ट अर्थ का निर्माण करते हैं। बोलने और सुनने वाले की मनःस्थिति और मनोभावों में अंतर होना स्वाभाविक है।

शब्दों के अर्थबोध की क्षमता अध्ययन, अनुभव और बुद्धि पर निर्भर होती है। जाहिर है, ये तीनों विशेषताएं बोलने और सुनने वाले में अलग-अलग होंगी।

तो, क्या शब्दों के निश्चित अर्थ नहीं होते ?
गणित के प्रतीकों के अर्थ निश्चित होते हैं। ऐसे निश्चित अर्थ भाषाई शब्दों के नहीं हो सकते।

अर्थ परिवर्तन की यह स्थिति केवल वाचिक संवाद में ही नहीं बल्कि लिखित और पठित शब्दों के साथ भी उत्पन्न होती है।

जीवन में सुख और दुख देने वाले अनेक कारणों में से एक ‘शब्द‘ भी है।

शब्दों के इस छली स्वभाव को आपने भी महसूस किया होगा !

                                                                                                                                                    -महेन्द्र वर्मा

नवगीत



शब्दों से बिंधे घाव
उम्र भर छले,
आस-श्वास पीर-धीर
मिल रहे गले।

सुधियों के दर्पण में
अलसाये-से साये,
शुष्क हुए अधरों ने
मूक छंद फिर गाए,

हृद के नेहांचल में
स्वप्न-सा पले।

उज्ज्वल हो प्रात-सा
युग का नव संस्करण,
चिंतन के सागर में
सुलझन का अवतरण,

रावण के संग-संग
कलुष सब जले।

-महेन्द्र वर्मा

क्या हुआ

बाग दरिया झील झरने वादियों का क्या हुआ,
ढूंढते थे सुर वहीं उन माझियों का क्या हुआ।

कह रहे कुछ लोग उनके साथ है कोई नहीं,
हर कदम चलती हुई परछाइयों का क्या हुआ।

जंग जारी है अभी तक न्याय औ अन्याय की,
राजधानी में भटकती रैलियों का क्या हुआ।

मजहबों के नाम पर बस खून की नदियां बहीं,
जो कबीरा ने कही उन साखियों का क्या हुआ।
 

है जुबां पर और  उनके बगल में कुछ और है,
सम्पदा को पूजते सन्यासियों का क्या हुआ।

बेबसी लाचारियों से हारती उम्मीदगी,
दिल जिगर से फूटती चिन्गारियों का क्या हुआ।

लुट रहा यह देश सुबहो-शाम है यह पूछता,
जेल में सुख भोगते आरोपियों का क्या हुआ।

                                                         -महेन्द्र वर्मा

संत किसन दास

राजस्थान के प्रमुख संतों में से एक थे- संत किसन दास। इनका जन्म वि.सं. 1746, माघ शुक्ल 5 को नागौर जनपद के  टांकला नामक स्थान में हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी थे। वि.सं. 1773, वैशाख शुक्ल 11 को इन्होंने संत दरिया साहब से दीक्षा ग्रहण की।
 
संत किसनदास रचित पदों की संख्या लगभग 4000 है जो साखी, चौपाई, कवित्त, चंद्रायण, कुंडलियां,आदि छंदों में लिखी गई हैं। इनके प्रमुख शिष्यों की संख्या 21 थी जिनमें से 11 ने साहित्य रचना भी की।
 
वि.सं. 1835, आषाढ़ शुक्ल 7 को टांकला में इन्होंने देहत्याग किया।
 
प्रस्तुत है, संत किसनदास रचित कुछ साखियां-

बाणी कर कहणी कही, भगति पिछाणी नाहिं,
किसना गुरु बिन ले चला, स्वारथ नरकां माहिं।

किसना जग फूल्यो फिरै, झूठा सुख की आस,
ऐसो जग में जीवणे, पाणी माहिं पतास।

बेग बुढ़ापो आवसी, सुध-बुध जासी छूट,
किसनदास काया नगर, जम लै जासी लूट।

दिवस गमायो भटकता, रात गमायो सोय,
किसनदास इस जीव को, भलो कहां से होय।

कुसंग कदै ना कीजिए, संत कहत है टेर,
जैसे संगत काग की, उड़ती मरी बटेर।

दया धरम संतोस सत, सील सबूरी सार,
किसन दास या दास गति, सहजां मोख दुवार।

उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का अमृत बैण,
किसनदास वै नित मिलौ, रामसनेही सैण।

दुख का हो संहार




उद्यम-साहस-धीरता, बुद्धि-शक्ति-पुरुषार्थ,
ये षट्गुण व्याख्या करें, मानव के निहितार्थ।

जब स्वभाव से भ्रष्ट हो, मनुज करे व्यवहार,
उसे अमंगल ही मिले, जीवन में सौ बार।

जो अपने को मान ले, ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ,
प्रायः कहलाता वही, मूर्खों में भी ज्येष्ठ।

विनम्रता के बीज से, नेहांकुर उत्पन्न,
सद्गुण शाखा फैलती, प्रेम-पुष्प संपन्न।

वाणी पर संयम सही, मन पर हो अधिकार,
जीवन में सुख-शांति हो, दुख का हो संहार।

                                                                            -महेन्द्र वर्मा

ज्ञान हो गया फकीर

नैतिकता कुंद हुई
न्याय हुए भोथरे,
घूम रहे जीवन के
पहिए रामासरे।

भ्रष्टों के हाथों में
राजयोग की लकीर,
बुद्धि भीख माँग रही
ज्ञान हो गया फकीर।

घूम रहे बंदर हैं
हाथ लिए उस्तरे।

धुँधला-सा दिखता है
आशा का नव विहान,
क्षितिज पार तकते हैं
पथराए-से किसान।

सोना उपजाते हैं
लूट रहे दूसरे।
                                                                -महेन्द्र वर्मा

इस वर्ष दो भाद्रपद क्यों ? --- तेरह महीने का वर्ष



                   अभी भादों का महीना चल रहा है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुंवार का महीना नहीं आएगा बल्कि भादों का महीना दुहराया जाएगा। दो भादों होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2069 तेरह महीनों का है। इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।
                   अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। हिन्दू कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।
                     अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है।
                      तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।
                       अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रमास और सौरमास  के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवां भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। यह अंतर 32-33 महीनों में एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस अतिरिक्त तेरहवें चांद्रमास को ही अधिमास के रूप में जोड़कर चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल स्थापित किया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें।
                       अब यह स्पष्ट करना है कि किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए। इसके निर्धारण के लिए प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -
1.    चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2.    सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3.    सभी 12 सौरमासों की अवधि बराबर नहीं होती। सौरमास का अधिकतम कालमान सौर आषाढ़ में 31 दिन, 10 घंटे, 53 मिनट और न्यूनतम मान पौष मास में 29 दिन, 10 घंटे, 40 मिनट का होता है। जबकि चांद्रमास का अधिकतम मान 29 दिन, 19 घंटे, 36 मिनट और न्यूनतम मान 29 दिन, 5 घंटे, 54 मिनट है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क.    जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख.    जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएं घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।
                  इस वर्ष होने वाले दो भादों को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की सिंह संक्रांति 16 अगस्त को और कन्या संक्रांति 16 सितम्बर को(शाम 5:52 बजे से) है। इन तारीखों के मध्य 18 अगस्त से 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।
                    पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि ( 16 अगस्त से 16 सितम्बर, शाम 5:52 बजे तक) के मध्य दो अमावस्याएं, क्रमशः 17 अगस्त और 16 सितम्बर (प्रातः 7:40 बजे) को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम भादों होगा। इनमें से एक को प्रथम भाद्रपद तथा दूसरे को द्वितीय भादपद्र कहा जाएगा।
                     हिन्दू काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन हिन्दू खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है। इस संबंध में प्रसिद्ध गणितज्ञ डाॅ. गोरख प्रसाद ने लिखा है -‘‘ कई बातें, जो अन्य देशों में मनमानी रीति से तय कर ली गई थीं, भारत में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर निर्धारित की गई थीं। पंचांग वैज्ञानिक ढंग से बनता था जिसकी तुलना में यूरोपीय पंचांग भी अशिष्ट जान पड़ता है।‘‘

  • (मेरे एक शोध-पत्र का सारांश)

                                                                                                                                     -महेन्द्र वर्मा