शाश्वत शिल्प

विज्ञान-कला-साहित्य-संस्कृति

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत - परंपरा और प्रयोग


 

शास्त्रीय संगीत कई सदियों से भारत की संस्कृति का हिस्सा रहा है और आज भी है। सामगायन से प्रारंभ हुई यह परंपरा भारत की सांस्कृतिक एकता का सबसे महत्वपूर्ण घटक है । विशेष रूप से हिंदुस्तानी संगीत तो अब दुनिया भर में लोकप्रिय है । इस का श्रेय अतीत और वर्तमान के उन महान शास्त्रीय संगीतज्ञों को है जिन्होंने भारत की हज़ारों वर्षों की संगीत-परंपरा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी लगन और साधना से सुसज्जित कर  देश और दुनिया भर में प्रदर्शित और प्रचारित किया है । अन्य संस्कृतियों की तुलना में हिंदुस्तानी संगीत विभिन्न संदर्भों में विशिष्ट है । हिंदुस्तानी संगीत में विचारशीलता तथा शास्त्रीय तत्वों की नियमबद्धता का अधिक महत्व होता है। शास्त्रीय संगीत की रचनाओं में ऋतु और प्रहर की अनुकूलता तथा मनोभावों की प्रकृति का जो संश्लेषण है वह दुनिया की किसी भी संस्कृति के संगीत में नहीं है । शास्त्रीय संगीत का आकर्षण और आस्वादन भी मर्यादाबद्ध हैं जो अपनी पूर्णता में मानव के सूक्ष्म हृदय को आकर्षित करने की क्षमता रखता है।

 

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की इन्हीं विशिष्टताओं के कारण आज देश में शास्त्रीय संगीत की साधना करने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । महानगरों से लेकर गाँवों तक के युवा और बच्चे शास्त्रीय संगीत की ओर आकर्षित हो रहे हैं, प्रतिष्ठित गुरुओं से सीख रहे हैं और अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं । शास्त्रीय संगीत एक ऐसी कला है जिसमें परंपरा की शुद्धता पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिसे दक्ष गुरु के बिना साधा नहीं जा सकता । दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत के प्राध्यापक डॉ. ओजेश प्रताप सिंह कहते हैं- ‘‘संस्थागत शिक्षण में विद्यार्थियों को संगीत के केवल प्रयोगात्मक, सैद्धांतिक और ऐतिहासिक पक्षों से अवगत कराया जाता है किंतु सिद्ध कलाकार बनने के लिए इन को आत्मसात करने की आवश्यकता होती है जो गुरु के दीर्घकालिक सान्निध्य के बिना संभव नहीं है । इसलिए कलाकार हमेशा गुरु-शिष्य परंपरा में ही उपजते हैं ।" इसी परंपरा-उद्भूत हज़ारों कलाकार आज हिंदुस्तानी संगीत को और अधिक समृद्ध बना रहे हैं ।

 

नई पीढ़ी के इन कलाकारों में अनेक पहले से प्रतिष्ठित उस्तादों और पंडितों के परिवारों से हैं या उनके शिष्य है किंतु बहुत से ऐसे कलाकार भी हैं जो अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध गुरुओं से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी कला-साधना के कारण प्रसिद्ध हो रहे हैं । इन नवोदित प्रतिभाओं में अधिकांश ने शास्त्रीय संगीत की परंपरा और शुद्धता को यथावत रखा है और कुछ ने अपनी व्यक्तिगत कला-प्रतिभा को उभारने के लिए अपने प्रदर्शन में नया प्रयोग भी किया है । इन प्रतिभावान नए कलाकारों के प्रदर्शन में, लय चाहे विलंबित हो द्रुत, बोलों की शुद्धता और स्पष्टता ने शास्त्रीय संगीत को अधिक रंजक और सुबोध बनाया है । कुछ कलाकार आधुनिक दौर के प्रयोगधर्मी फ्यूज़न संगीत में भी रुचि ले रहे हैं ।

 

हिंदुस्तानी संगीत की परंपरागत विरासत को समृद्ध करने हेतु दिग्गज उस्तादों के परिवार की जो प्रतिभाएँ चर्चित हैं उनमें गायन में पं. अजय चक्रवर्ती की पुत्री कौशिकी चक्रवर्ती, पं. भीमसेन जोशी के पुत्र श्रीनिवास जोशी, राजन मिश्र के पुत्रद्वय रितेश-रजनीश मिश्र, पं. वसंतराव देशपांडे के पोते राहुल देशपांडे, सितार वादन में पं. पार्थो चटर्जी के पुत्र पूर्बायन चटर्जी, वायलिन वादन में विदुषी  एन. राजम की पोतियाँ और विदुषी संगीता शंकर की पुत्रियाँ नंदिनी-रागिनी शंकर, तबला वादन में पं. नयन घोष के पुत्र ईशान घोष, संतूर वादन में पं. शिवकुमार शर्मा के पुत्र राहुल शर्मा, सारंगी वादन में पं. रामनारायण के पोते हर्ष नारायण और उस्ताद सुल्तान ख़ान के पुत्र साबिर ख़ान, सरोद वादन में पं. आलोक लाहिड़ी के पुत्र अभिषेक लाहिड़ी और पं.शेखर बोरकर के पुत्र अभिषेक बोरकर, बाँसुरी वादन में पं. वेंकटेश गोडखिंडी के पुत्र प्रवीण गोडखिंडी आदि हैं । जिन पंसिद्ध संगीतज्ञों के परिवारों के कलाकार परंपरा और ‘फ्यूज़न में प्रयोग’ दोनों का निर्वहन कर रहे हैं उनमें प्रसिद्ध सितार वादक पं. कार्तिक कुमार के पुत्र नीलाद्रि कुमार, सरोद में उस्ताद अमजद अली ख़ान के पुत्र अमान-अयान अली, सारंगी में उस्ताद साबरी ख़ान के पोते सुहैल यूसुफ ख़ान व उस्ताद गुलाम साबिर ख़ान के पुत्र मुराद अली और तबला में पं सुरेश तलवलकर के पुत्र सत्यजीत तलवलकर व पं. अनिंदो चटर्जी के पुत्र अनुब्रत चटर्जी आदि उल्लेखनीय हैं ।

 

बहुत से ऐसे कलाकार हैं जो प्रसिद्ध संगीतज्ञों के परिवार के नहीं हैं किंतु उनके शिष्य हैं और कम समय में ही अपनी कला-प्रतिभा का परिचय दिया है, जैसे, गायन में पं. जितेन्द्र अभिषेकी के शिष्य महेश काले, मिश्र बंधु के शिष्य दिवाकर-प्रभाकर कश्यप, पं. उल्हास कशालकर के शिष्य ओंकार दादरकर, विदुषी वीणा सहस्रबुद्धे की शिष्या सावनी शेंडे, बाँसुरी में पं. हरिप्रसाद चौरसिया की शिष्याएँ देबोप्रिया और शुचिस्मिता चटर्जी, सितार में पं. बिमलेंदु मुखर्जी की शिष्या अनुपमा भागवत, तबला में पं. योगेश शम्सी के शिष्य यशवंत वैष्णव, पं. अनिंदो चटर्जी के शिष्य रूपक भट्टाचार्य आदि ।

 

उक्त सूची केवल उदाहरण स्वरूप है, शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित ऐसे नवोदित और प्रतिभाशाली कलाकारों की संख्या आज हज़ारों में है । एक ओर जहाँ कलाकारों की संख्या में वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर माना जाता है कि आजकल के भागदौड़ भरे इंटरनेटीय युग में शास्त्रीय संगीत के श्रोता अपेक्षाकृत कम हो गए हैं । शास्त्रीय संगीत के श्रोता भी प्रसिद्ध नामों को अधिक सुनना पसंद करते हैं । युवा और कम प्रसिद्ध कलाकारों की ओर वे कम आकर्षित होते हैं । पाश्चात्य संगीत से प्रभावित हल्का-फुल्का भारतीय संगीत युवाओं में अधिक लोकप्रिय है । यही कारण है कि युवा कलाकार भी फ्यूज़न और पाश्चात्य बैंड की ओर आकर्षित हो रहे हैं । ईशान घोष कहते हैं- ‘‘अधिकांश लोगों में पारंपरिक शास्त्रीय संगीत की बारीकियों की सराहना करने का धैर्य नहीं है । प्रसिद्ध घरानों के कुछ वंशज फ्यूज़न  की ओर जा रहे हैं किंतु हमारे संगीत परिवारों के लिए परंपरा की शुद्धता से समझौता करना आसान नहीं  रहा है ।’’ शास्त्रीय संगीत में फ्यूज़न के प्रयोग की आलोचना संगीत समीक्षक और सुधी श्रोता अक्सर करते रहे हैं । फ्यूज़न को अपनाने वाले कलाकारों को इस का अहसास है । सारंगी वादक सुहैल ख़ान कहते हैं- ‘‘हमें अक्सर आरोपों का सामना करना पड़ा है कि आधुनिक रॉक संगीत में सारंगी का इस्तेमाल होने से वह ‘अशुद्ध’ हो गया है ।’’ परंपरा की शुद्धता के पालन के लिए यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक पीढ़ी को पिछली पीढ़ी की तरह कड़ी मेहनत करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विरासत जारी रहे । इस विरासत को जारी रखने में शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । शास्त्रीय संगीत सुनने वाले शुद्धता से समझौता नहीं करते ।

 

पाश्चात्य संगीत के साथ हिंदुस्तानी संगीत का फ्यूज़न जैसा प्रयोग दीर्घजीवी नहीं होता । तात्कालिक रूप से यह युवाओं को भले ही लुभाए किंतु इसमें शुद्ध शास्त्रीय संगीत का गांभीर्य और सौंदर्य नहीं होता । इसीलिए यह उस तरह दशकों तक सहेजा और सुना  नहीं जाता जिस तरह शुद्ध शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अहमद जान थिरकवा या पं मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे महान संगीतज्ञों की रिकॉर्डिंग को आज भी न केवल सुना जाता है, बल्कि सुन कर सीखा भी जाता है ।

 

पाश्चात्य संगीत से प्रभावित आधुनिक फ्यूज़न संगीत को बढ़ावा देने में कई टी.वी. और रेडियो चैनल सक्रिय हैं और शास़्त्रीय संगीत की ओर ध्यान देने वाला, आकाशवाणी के ‘रागम्’ को छोड़ कर,  एक भी चैनल टी.वी. में नहीं है । फिर भी हिंदुस्तानी संगीत पहले की तुलना में आज बेहतर दौर में है । इस संदर्भ में आधुनिक संचार तकनीक की सुविधाएँ शास्त्रीय संगीत के कलाकारों और श्रोताओं के लिए महत्वपूर्ण मंच सिद्ध हुई हैं । अनेक कलाकार डिज़िटल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं और सुधी श्रोताओं से उन्हें पर्याप्त सराहना भी मिल रही है ।  फेसबुक और यू-ट्यूब में अनेक प्रतिभावान कलाकारों के व्यक्तिगत और सामूहिक मंचों पर हज़ारों नए-पुराने और ‘लाइव’ संगीत कार्यक्रम देखे जा रहे हैं । आगरा घराने की गायिका प्रिया पुरुषोत्तम कहती हैं - ‘‘लॉकडाउन के दौर में युवा संगीतकारों ने न केवल प्रदर्शन करके बल्कि लिखकर, मुद्दों पर बोलकर अपने काम का प्रसार कर के अपनी आवाज बढ़ाने के लिए डिज़िटल संसाधनों का भरपूर उपयोग किया ।’’

यह भी सच है कि शास्त्रीय संगीत के सौंदर्य की वास्तविक रसानुभूति तब अधिक होती है जब कलाकार और श्रोता आमने-सामने होते हैं । मीडिया अधिकाधिक श्रोताओं तक कला को पहुँचाने  का एक वैकल्पिक माध्यम अवश्य है । देश में योग्य युवा प्रतिभाओं का सागर है । इन कलाकारों को पर्याप्त प्रोत्साहन और अवसर दिए जाने की आवश्यकता है । इस संदर्भ में अनेक संस्थाओं, संगीतकारों और आयोजकों ने इस क्षेत्र में लगन से काम किया है । देश भर में स्थित विभिन्न संगीत संस्थाएँ, संगीत शोध केंद्र, शासन के सहयोग से होने वाले संगीत समारोह, स्वतंत्र आयोजक और आकाशवाणी नवोदित कलाकारों को मंच पर प्रदर्शन का अवसर प्रदान करने का निरंतर उद्यम करते रहे हैं । विद्यालयीन बच्चों में भारतीय शास्त्रीय संगीत की सभी विधाओं के समृद्ध विरासत के प्रति रुचि जगाने का काम विगत 40 वर्षों से ‘स्पिक मैके’ जैसी प्रतिष्ठित संस्था कर रही है । इसके संस्थापक प्रो. किरण सेठ कहते हैं- ‘‘ मेरा दृष्टिकोण यह है कि प्रत्येक बच्चे को भारतीय कला और विरासत में निहित रहस्य का अनुभव संगीत के माध्यम से हो । जब संगीत के माध्यम से युवा खुद से और दुनिया से जुड़ते हैं तो यह दुनिया को एक बेहतर जगह बनाता है ।’’ प्रो. किरण सेठ का यह स्तुत्य कार्य तब फलीभूत हुआ लगता है जब ईशान घोष कहते हैं- ‘‘मेरा मानना है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरी पीढ़ी के लोगों में विशेष आकर्षण है जो कि कई दिग्गज हस्तियों के योगदान और सर्वोच्च प्रतिभाशाली युवा संगीतकारों की संख्या में वृद्धि का कारण है । भारत में और विदेशों में भी इतनी बड़ी संख्या में शास्त्रीय संगीत समारोहों में हमारे उम्र के लोगों को भाग लेते देखना अच्छा लगता है ।’’

हिंदुस्तानी संगीत के प्रति इन नए युवा संगीतकारों की लगनशीलता को श्रोताओं का उत्साह प्रेरित करती है । यह शास्त्रीय संगीत का जादू ही है जिसके कारण इंजीनियरिंग में स्नातक देबांजन भट्टाचार्य  इंफोसिस में नौकरी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं और अपना भविष्य सरोद के सुरों को सौंप देते हैं, यह शास्त्रीय संगीत के प्रति जुनून ही है कि आई.आई.टी. से कम्प्यूटर साइंस में स्नातक कशिश मित्तल प्रतिष्ठित आई.ए.एस. की नौकरी त्याग कर ख़याल गायन की लय-तान साध रहे हैं । शास्त्रीय संगीत के साधक ये सभी नवोदित कलाकार देश की सांस्कृतिक गरिमा के रक्षक और वाहक हैं । यह हम सब का उत्तरदायित्व है कि हम इन्हें सुनें और सराहें । भारत के प्रथम राष्टपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 अक्टूबर , 1959 को आकाशवाणी संगीत सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए जो बात कही थी वह आज भी प्रासंगिक है- ‘‘संगीत आदि कलाएँ संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग हैं । वास्तव में हमारी एकीकरण की जो क्षमता है, वह इसे इन कलाओं से प्राप्त हुई है । इसीलिए संगीत और दूसरी कलाओं को प्रोत्साहन देना भारतीय संस्कृति को उन्नत करने के समान माना जाता है ।’’

- महेन्द्र वर्मा 

 

on July 28, 2021 No comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
Labels: पाश्चात्य संगीत, फ्यूज़न संगीत, शास्त्रीय संगीत, हिंदुस्तानी संगीत

धर्म से दूर होती नैतिकता


 




अलग-अलग संस्कृति में धर्म का अर्थ अलग-अलग होना  संभव है । इसी प्रकार नैतिकता के अर्थ में भी किंचित भिन्नता हो सकती है । किंतु सभी संस्कृतियों में धर्म का सामान्यीकृत अर्थ 'ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास' है । इसी प्रकर नैतिकता का सर्वस्वीकृत अर्थ ‘मानवीय सद्गुणों पर आधारित व्यवहारों का समूह’ है । दुनिया के लगभग सारे धर्मों ने अपने प्रारंभिक स्वरूप में व्यक्ति के नैतिक गुणों के विकास पर अधिक जोर दिया है । विभिन्न स्मृति ग्रंथों में क्षमा, दया, संयम, धैर्य, सत्य आदि धर्म के जो विभिन्न लक्षण बताए गए हैं वे सभी मानवीय गुण हैं, मनुष्य के नैतिक गुण हैं । तैत्तिरीय उपनिषद की उक्ति ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ में ‘धर्मं चर’ का आशय ‘नैतिक नियमों के अनुसार आचरण’ करना है । तब धर्म और नैतिकता का लगभग समान अर्थ था ।

बाद के काल में एक ही धर्म के अनेक सम्प्रदाय बनते गए । तदनुसार मत और विचारधाराएंँ भी परिवर्तित होने लगीं । विचारों में मतभेद होने लगे, मतभेदों से विवाद और अंततः विवादों से संघर्ष होने लगे । लोग धर्म के नैतिक स्वरूप को भूल कर कृत्रिम धार्मिकता का अनुसरण करने लगे । इस विकार के संदर्भ में अनुमान किया जा सकता है कि धर्म ने जब संगठित रूप लिया होगा तब इसमें ऐसे लोग भी सम्मिलित हुए होंगे जो मन-हृदय से धार्मिक नहीं थे और केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते थे । इन्हीं परिस्थितियों में धर्म के मूल स्वरूप में विचलन होने लगा । इसमें अब ऐसे कार्यां को भी महत्वपूर्ण और धार्मिक माना जाने लगा जो मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक कहे जाते हैं, जैसे, पशुओं की बलि देना, दूसरे धर्म वालों से युद्ध कर उन्हें मार डालना ।

माण्डूक्य उपनिषद की गौड़पाद कारिका के टीकाग्रंथ में स्वामी विशुद्धानंद परिवा्रजक विभिन्न धर्म-संप्रदायों के संबंध में लिखते हैं- ‘‘सारी पृथ्वी में विरोधी भावनाओं, विरोधी भाषा, विरोधी इतिहास तथा विरोधी धर्मों के परस्पर युद्ध से अनेक बार विनाश हुआ है । अपने-अपने मत, मजहब और विचारों की हठधर्मिता के कारण प्राणी समुदाय को अनेक कष्ट सहना पड़ा है । बड़े-बड़े आत्मज्ञान, एकता और अद्वैत का उपदेश देने वाले अपने अभ्यासित संस्कार द्वारा प्राप्त नियमों के इतने दास होते हैं कि दम निकलने तक उनका परित्याग नहीं करते और व्यवहार के नाम पर मूढ़ता को पालते रहते हैं ।’’

सदियों से हर धार्मिक परंपरा में हिंसा जैसे अनैतिक कार्यों को स्वीकृति दी जाती रही है । विश्व भर की पौराणिक कथा-साहित्य और इतिहास में धर्म से संबद्ध लोगों के द्वारा अनैतिक कार्य किए जाने का उल्लेख मिलता है । यह आश्चर्य की बात है कि जो धर्म शांति, सद्भाव और विश्वबंधुत्व का संदेश देते रहे हैं वे भला असहिष्णुता और हिंसक आक्रामकता जैसे अनैतिक व्यवहारों से कैसे जुड़े रह सकते हैं ! धार्मिक लोग यह मानते हैं कि नैतिकता उनके धर्म के कारण ही आती है । अति धार्मिक लोग आश्चर्य करते हैं कि अनीश्वरवादी लोग नैतिक कैसे हो सकते हैं ! प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध से यह निष्कर्ष प्राप्त प्राप्त हुआ है कि अधिक शिक्षित देशों या क्षेत्रों में यह माना जाता है कि नैतिक होने के लिए आस्तिक होना अनिवार्य नहीं है । यह भी ज्ञात हुआ है कि आर्थिक रूप से कमजोर देशों में नैतिकता के लिए ईश्वर पर विश्वास होना अनिवार्य माना जाता है ।

अमेरिका के कैरोलीना विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक जोशुआ कॉनराड जैक्सन अपने एक शोध-पत्र में लिखते हैं- ‘‘दुनिया भर के अधिकांश लोग एक ओर दावा करते हैं कि नैतिक व्यक्ति होने के लिए ईश्वर में विश्वास आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर, कई विद्वान दावा करते हैं कि धर्म लोगों को क्रूर बनाता है । हमें बताया जाता है कि धर्म नैतिकता को जागृत रखता है लेकिन मामला इसके बिल्कुत विपरीत है । इस बात के पक्के सबूत मिलते हैं कि यह विश्वास लोगों को अधिक मतलबी कट्टर, और स्वार्थी बना देता है। प्यू रिसर्च सेंटर  द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के एक चौथाई देशों ने धार्मिक घृणा और आतंक,  धार्मिक लोगों की भीड़ द्वारा हिंसा, धार्मिक मान्यताओं के उल्लंघन के लिए महिलाओं का उत्पीड़न जैसी घटनाओं का सामना किया है । धार्मिक हिंसा में वृद्धि एक वैश्विक समस्या है और लगभग हर धार्मिक समूह इससे प्रभावित हुआ है । प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक पाल मार्शल के अनुसार धार्मिक उत्पीड़न और अपराध दुनिया भर में पाए जाने लगे हैं । उनका मत है कि धर्म संस्कृति को आकार देता है । अलग-अलग धर्म मानव जीवन के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण रखते है इसलिए वे एक-दूसरे का विरोध करने लगते हैं । दुनिया में बहुत से युद्ध धार्मिक कारणों से हुए हैं और हो रहे हैं ।

कई बार ऐसा देखा गया है कि धार्मिक लोग अक्सर दूसरों से नैतिक सिद्धांतों के पालन की अपेक्षा रखते हैं जिनका वे स्वयं पालन नहीं करते । धार्मिक लोग गैरधार्मिक लोगों की तुलना में अनैतिकता के अपने कृत्यों को न्यायोचित और धर्म आधारित कृत्य मनवाने का प्रयास करते हैं । ऐसा तब होता है जब मनुष्य  चार पुरुषार्थों में से काम और अर्थ को अधिक महत्व देने लगता है । तब वह जानबूझ कर या अनजाने में धर्म से विचलित हो जाता है । यह लालच, ईर्ष्या, और क्रोध के जुनून को जन्म देता है जो अनैतिक आचरण के कारण हैं ।

दुनिया में लगभग 6 अरब लोग स्वयं को धार्मिक कहते हैं । ये सभी मानते हैं कि धर्म और ईश्वर के कारण ही समाज में नैतिकता है । यदि यह सही है तो धार्मिक परिवारों के बच्चे अधिक उदार और दयालु होने चाहिए । लेकिन ‘करेंट बायोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के परिणाम इस का समर्थन नहीं करते । इस शोध का निष्कर्ष है कि धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे बेहद अनुदार और गैरधार्मिक परिवार के बच्चे अपेक्षाकृत अधिक उदार होते हैं । कुछ बच्चों में यह प्रभाव जीवन भर बना रह सकता है । बच्चों को धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता सिखाना मानवीय दृष्टिकोण से अनैतिक है । धार्मिक समूह इस अध्ययन के निष्कर्षों से असहमत हो सकते हैं लेकिन दुनिया के उन देशों में जहां धार्मिकता अधिक है वहां असमानता और असहिष्णुता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है ।  लिंगभेद, जातिभेद, नस्लभेद जैसी परंपराएँ धर्म पर ही आधारित है जो कदापि नैतिक नहीं कहे जा सकते । न्यूनाधिक रूप से ऐसे व्यक्ति सभी धर्मों में होते हैं जो धर्म से जुड़े हुए हैं या कहें, जुड़े होने का ढोंग करते हैं । ऐसे लोग धर्म की आड़ लेकर अन्य व्यवसाय भी करते रहते हैं । उनके द्वारा किए जा रहे अनेक तरह के अनैतिक कृत्यों की खबरें समाचारों की सुर्खियाँ बनी रहती हैं । यह चिंता का विषय है कि नैतिकता धर्म से और अधिक दूर होती जा रही है ।

इसका आशय कदापि यह नहीं है कि नास्तिकता नैतिक होने की अनिवार्य शर्त है लेकिन शोध के परिणामों से यह अवश्य कहा जा सकता है कि नैतिक होने के लिए धार्मिक होना अनिवार्य नहीं है । अनेक विचारकों का भी मत है कि सच्ची नैतिकता धर्म से तटस्थ होती है । ऐसे बहुत से महात्मा हुए हैं जो धार्मिक भी थे और नैतिक भी, जैसे, बुद्ध, गुरुनानक, कबीर आदि । कुछ ऐसे भी महान लोग हुए हैं जो धार्मिक नहीं थे किंतु नैतिक थे, जैसे, शहीद भगत सिंह, संत तिरुवल्लुवर, अल्बेयर कामू , फ्रेडरिक नीत्शे आदि ।  इन सब ने विश्व को शांति और परस्पर प्रेम का संदेश दिया । इस विश्व को आज ऐसे ही महात्मा की आवश्यकता है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के लिए दुनिया भर के लोगों के मन में परस्पर प्रेम और सद्भावना जागृत कर सके । फ्रांसीसी दार्शनिक अल्बेयर कामू से जब नैतिकता के संबंध में प्रश्न पूछा गया तो उनका जवाब था- ‘‘ यदि मुझसे कोई नैतिकता पर किताब लिखने को कहे तो मैं सौ पृष्ठों की किताब लिखूंगा । इसमें निन्यानबे पृष्ठ कोरे होंगे । आखिरी पृष्ठ पर लिखूंगा- मैं इंसानों के लिए सिर्फ एक कर्तव्य समझता हूँ और वो है, प्यार करना । इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसके लिए मैं न कहता हूँ ।’’

-महेन्द्र वर्मा







 

on June 25, 2021 4 comments:
Email ThisBlogThis!Share to XShare to FacebookShare to Pinterest
Labels: धर्म, नैतिकता, मानवता, संस्कृति
Newer Posts Older Posts Home
Subscribe to: Posts (Atom)

AD

Search This Blog

About Me

My photo
महेन्‍द्र वर्मा
View my complete profile

Blog Archive

  • ▼  2022 (2)
    • ▼  February (1)
      • समर भूमि संसार है
    • ►  January (1)
  • ►  2021 (14)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  October (1)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (2)
    • ►  February (1)
    • ►  January (2)
  • ►  2020 (12)
    • ►  November (1)
    • ►  October (2)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2019 (15)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  October (1)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (2)
    • ►  June (2)
    • ►  May (1)
    • ►  April (2)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2018 (12)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  October (2)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2017 (12)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  October (1)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2016 (11)
    • ►  December (1)
    • ►  October (1)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2015 (12)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  October (1)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2014 (12)
    • ►  December (1)
    • ►  November (1)
    • ►  October (1)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2013 (14)
    • ►  December (1)
    • ►  November (2)
    • ►  October (2)
    • ►  September (1)
    • ►  August (1)
    • ►  July (1)
    • ►  June (1)
    • ►  May (1)
    • ►  April (1)
    • ►  March (1)
    • ►  February (1)
    • ►  January (1)
  • ►  2012 (37)
    • ►  December (2)
    • ►  November (2)
    • ►  October (2)
    • ►  September (2)
    • ►  August (2)
    • ►  July (2)
    • ►  June (3)
    • ►  May (4)
    • ►  April (5)
    • ►  March (4)
    • ►  February (4)
    • ►  January (5)
  • ►  2011 (52)
    • ►  December (4)
    • ►  November (4)
    • ►  October (5)
    • ►  September (4)
    • ►  August (4)
    • ►  July (5)
    • ►  June (4)
    • ►  May (5)
    • ►  April (4)
    • ►  March (4)
    • ►  February (4)
    • ►  January (5)
  • ►  2010 (38)
    • ►  December (7)
    • ►  November (11)
    • ►  October (16)
    • ►  September (4)

Labels

  • संत-चर्चा
  • दोहे
  • गीतिका
  • नवगीत
  • धर्म
  • गीत
  • प्रकृति
  • ghazal
  • ईश्वर
  • क्षणिकाएँ
  • निबंध
  • बसंत
  • मनोविज्ञान
  • वक़्त
  • विज्ञान
  • शास्त्रीय संगीत
  • अंधविश्वास
  • ऊर्जा
  • कविताएं
  • जीवन
  • तर्क
  • दर्शन
  • दीपक
  • धूप-छाँव
  • मानव
  • संस्कृति
  • सूरज
  • arth
  • kabir
  • अतीत
  • आरती
  • ग़ज़ल
  • गाँव
  • गुरु गोविंद सिंह जी
  • छत्तीसगढ़
  • ज्ञान
  • ज्ञान-विज्ञान
  • तार्किक ज्ञान
  • देवता
  • धरती
  • धर्म और विज्ञान
  • फागुनी दोहे
  • बेमेतरा
  • ब्रह्म
  • भजन
  • भविष्य
  • मंजि़ल
  • मन
  • मनोरोग
  • मौसम
  • विमोचन
  • वैज्ञानिक
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण
  • शब्द
  • शिक्षा
  • संत कबीर दास
  • संत सुंदर दास
  • संस्कृत साहित्य
  • साया
  • सफ़र
  • हिंदुस्तानी संगीत
  • होली
  • 'सच के झरोखे से'
  • Anarth
  • Bastar
  • Lok Geet
  • PARAMPARA
  • PARV
  • diwali
  • dohe
  • geet
  • guru nanak dev ji
  • hindu months
  • hindyugm
  • janjaateey Sanskriti
  • jhaptaal
  • lok sahitya
  • lok sangeet
  • lok sanskriti
  • maths
  • name of weekdays
  • nandini ragini shankar
  • panchang
  • philosophy
  • shabd
  • shraddha
  • singing violin
  • smt. n. rajam
  • smt.kala ramnath
  • smt.sangeeta shankar
  • speech
  • sukrat
  • tark
  • transit of venus
  • unikavi
  • week
  • women tabla player
  • अँगीठी
  • अँधेरे
  • अकेलापन
  • अग्नि
  • अज़ान
  • अधिक मास
  • अधिमास
  • अध्ययन
  • अनहद
  • अनुपम मिश्र
  • अनुप्रास
  • अनुवाद
  • अन्धविश्वास
  • अन्ना हजारे
  • अमीर खुसरो
  • अर्ज़ी
  • अलाव
  • अवसर
  • अशिक्षा
  • अस्तित्व
  • आँगन
  • आइन्स्टीन
  • आईना
  • आडम्बर
  • आत्मबल
  • आत्मा
  • आदमी
  • आदिम धर्म
  • आदिम विज्ञान
  • आधुनिकता
  • आवाज़
  • आशा भोंसले
  • आस्था
  • इंसाँ
  • उजाले
  • उपनिषद
  • उपयोग
  • उर की प्रसन्नता
  • उर्जा
  • उलझन
  • उल्लास
  • औषधि
  • कबीर
  • कर्नाटक संगीत
  • कवि रहीम
  • कविता
  • कसौटी
  • किताबें
  • कीर्तन
  • कुण्डलियां
  • कुदरत
  • कृष्ण विवर
  • कैलेंडर की कहानी
  • क्लोन
  • क्षितिज
  • खर मास
  • ख़ाक
  • ख़ामोशी
  • ख़ुशबू
  • गणित
  • गिरीश पंकज
  • गीत-संगीत
  • गीतकार
  • गुरु तेग बहादुर
  • गुरु नानक देव जी
  • ग्रेगोरियन कैलेण्डर
  • घर
  • चंद बरदाई
  • चाँद
  • चौखट
  • छत्तीसगढ़ी हाना
  • छत्तीसगढ़ी
  • जगत
  • जन-जागरूकता
  • जयदेव
  • जाति
  • जानना
  • जिज्ञासा
  • जीवन-पोथी
  • जुमले
  • जूलियन कैलेण्डर
  • झील
  • झूठ
  • डगर
  • डायरी
  • तबला
  • तबलावादन
  • तानाशाह
  • ताल-वाद्य
  • तालवाद्य
  • त्योहारें
  • तक़़दीर
  • ददरिया
  • दरिया
  • दानिशमंदी
  • दिक्-काल
  • दिनकर
  • दिनों के नाम
  • दिल दरिया
  • दीपावली
  • दीवाली
  • दुनिया
  • दुश्मन
  • देश हमारा
  • देशभक्त
  • देह
  • धार्मिक कट्टरता
  • धूप
  • ध्वनि
  • नजी़र अकबराबादी
  • नयन
  • नामकरण
  • नार्सीसिस्ट
  • निर्गुण ब्रह्म
  • नीरज
  • नैतिकता
  • नोबल पुरस्कार
  • पं. जसराज
  • पदार्थ
  • परम्परा
  • परिभाषा
  • पांच स्वर
  • पाखंड
  • पानी
  • पाश्चात्य संगीत
  • पिटारा
  • पिता
  • पुण्यतिथि
  • पुतले
  • पुरुषोत्तम मास
  • पुस्तक
  • पूजा
  • पेड़
  • प्रसाद
  • प्राचीन ज्योतिष
  • प्राचीन सभ्यता
  • प्रेम
  • फाग
  • फागुन
  • फासिज़्म
  • फूल
  • फ्यूज़न संगीत
  • बचपन
  • बच्चन
  • बाँसुरी
  • बाल गीत
  • बेवजह
  • बोलने की कला
  • ब्रह्मवादी
  • ब्रह्माण्ड
  • भक्ति संगीत
  • भगवान
  • भवानी प्रसाद मिश्र
  • भविष्य के संकट
  • भविष्यकथन
  • भारतीय दर्शन
  • भाषण
  • भाषा
  • भूतविद्या
  • मंदिर
  • मंसूर
  • मज़हब
  • मलमास
  • मस्जिद
  • मस्तिष्क
  • महाकवि तुलसीदास
  • महाकवि सूरदास
  • महादेवी
  • महामंडलाधिपति
  • महफ़िल
  • माँ
  • माता
  • मानव-विकास
  • मानवता
  • मानवतावाद
  • मानसिकता
  • मीराबाई
  • मुखर
  • मौन
  • यारी
  • रंगमंच
  • रवींद्रनाथ टैगोर
  • रसखान
  • रहनुमा
  • राग
  • राजनीति
  • राजरानी देवी
  • राष्ट्रवाद
  • रोमन कैलेण्डर
  • लावा
  • लोकगीत
  • लौंद मास
  • वर्तमान
  • विचारक
  • विधाता
  • विश्वास
  • वैज्ञानिक समझ
  • वैदिक गणित
  • वैदिक गणित .Vedic Mathematics. भारतीय गणितज्ञ
  • व्यक्तित्व विकार
  • व्यथा
  • व्यवहार
  • शब्द.
  • शहर
  • शिकारे
  • शिवसिंह सरोज
  • शिवसिंह सेंगर
  • शिशु
  • शीत
  • शोभा
  • श्रद्धा
  • श्रद्धांजलि
  • श्रीनिवास रामानुजन्
  • श्रेष्ठ कवि
  • श्वासों का अनुप्रास’
  • संकल्प
  • संगमरमर
  • संत कवि परसराम
  • संत चरण दास
  • संत ज्ञानेश्वर
  • संत दरिया साहेब
  • संत दादू दयाल
  • संत दीन दरवेश
  • संत नरसी मेहता
  • संत नागरीदास
  • संत नारायण स्वामी
  • संत पीपा जी
  • संत बाबा किनाराम
  • संत बुल्लेशाह
  • संत मलूक दास
  • संत रविदास
  • संत ललित किशोरी
  • संत सहजो बाई
  • संत सिंगा जी
  • संताप
  • संस्कृत
  • संस्मरण
  • सच
  • सत्य
  • सत्यता
  • सद्गुण
  • सपना
  • सप्तर्षि
  • सप्ताह
  • समंदर
  • समझना
  • समर भूमि संसार
  • समाज
  • सम्मोहन
  • सर्पिल नीहारिका
  • सहरा
  • साँझ
  • सावन
  • सिजदा
  • सुकरात
  • सुख-दुख
  • सुगम संगीत
  • सूखी नदी
  • सूर्य
  • सृजन
  • सृष्टि
  • सोच
  • स्कूली पाठ्यक्रम
  • स्वामी रामतीर्थ
  • स्वामी रामानंद
  • हिंदी साहित्य का इतिहास
  • हिन्दी साहित्य
  • हृदय
  • ज़िंदगी
  • फ़़लसफ़ा

Translate

Followers

top hindi blogs best hindi blogs best hindi blogs
iBlogger
Protected by Copyscape
CG Blog www.hamarivani.com

CG Blog www.blogvarta.com IndiBlogger - The Largest Indian Blogger Community
  • Home

समर भूमि संसार है

                                              दुख के भीतर ही छुपा, सुख का सुमधुर स्वाद, लगता है फल, फूल के, मुरझाने के बाद। हो अतीत चाहे विक...

लोकप्रिय पोस्ट

  • सूफी संत मंसूर
    सन् 858 ई. में ईरान में जन्मे सूफी संत मंसूर एक आध्यात्मिक विचारक, क्रांतिकारी लेखक और सूफी मत के पवित्र गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए। ...
  • होनहार बिरवान के होत चीकने पात
    कवि वृंद  ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात‘ और ‘तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर‘ जैसी लोकोक्तियों के जनक प्रसिद्ध जनकवि वृंद का जन्म सन् ...
  • शिवसिंह सरोज
    ‘शिवसिंह सरोज’, एक पुस्तक का नाम है, जिसकी रचना आज से 143 वर्ष पूर्व जिला उन्नाव, ग्राम कांथा निवासी शिवसिंह सेंगर नाम के एक साहित्यानुरा...
© mahendra verma. Awesome Inc. theme. Powered by Blogger.