हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत - परंपरा और प्रयोग


 

शास्त्रीय संगीत कई सदियों से भारत की संस्कृति का हिस्सा रहा है और आज भी है। सामगायन से प्रारंभ हुई यह परंपरा भारत की सांस्कृतिक एकता का सबसे महत्वपूर्ण घटक है । विशेष रूप से हिंदुस्तानी संगीत तो अब दुनिया भर में लोकप्रिय है । इस का श्रेय अतीत और वर्तमान के उन महान शास्त्रीय संगीतज्ञों को है जिन्होंने भारत की हज़ारों वर्षों की संगीत-परंपरा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी लगन और साधना से सुसज्जित कर  देश और दुनिया भर में प्रदर्शित और प्रचारित किया है । अन्य संस्कृतियों की तुलना में हिंदुस्तानी संगीत विभिन्न संदर्भों में विशिष्ट है । हिंदुस्तानी संगीत में विचारशीलता तथा शास्त्रीय तत्वों की नियमबद्धता का अधिक महत्व होता है। शास्त्रीय संगीत की रचनाओं में ऋतु और प्रहर की अनुकूलता तथा मनोभावों की प्रकृति का जो संश्लेषण है वह दुनिया की किसी भी संस्कृति के संगीत में नहीं है । शास्त्रीय संगीत का आकर्षण और आस्वादन भी मर्यादाबद्ध हैं जो अपनी पूर्णता में मानव के सूक्ष्म हृदय को आकर्षित करने की क्षमता रखता है।

 

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की इन्हीं विशिष्टताओं के कारण आज देश में शास्त्रीय संगीत की साधना करने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । महानगरों से लेकर गाँवों तक के युवा और बच्चे शास्त्रीय संगीत की ओर आकर्षित हो रहे हैं, प्रतिष्ठित गुरुओं से सीख रहे हैं और अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं । शास्त्रीय संगीत एक ऐसी कला है जिसमें परंपरा की शुद्धता पर अधिक ध्यान दिया जाता है जिसे दक्ष गुरु के बिना साधा नहीं जा सकता । दिल्ली विश्वविद्यालय के संगीत के प्राध्यापक डॉ. ओजेश प्रताप सिंह कहते हैं- ‘‘संस्थागत शिक्षण में विद्यार्थियों को संगीत के केवल प्रयोगात्मक, सैद्धांतिक और ऐतिहासिक पक्षों से अवगत कराया जाता है किंतु सिद्ध कलाकार बनने के लिए इन को आत्मसात करने की आवश्यकता होती है जो गुरु के दीर्घकालिक सान्निध्य के बिना संभव नहीं है । इसलिए कलाकार हमेशा गुरु-शिष्य परंपरा में ही उपजते हैं ।" इसी परंपरा-उद्भूत हज़ारों कलाकार आज हिंदुस्तानी संगीत को और अधिक समृद्ध बना रहे हैं ।

 

नई पीढ़ी के इन कलाकारों में अनेक पहले से प्रतिष्ठित उस्तादों और पंडितों के परिवारों से हैं या उनके शिष्य है किंतु बहुत से ऐसे कलाकार भी हैं जो अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध गुरुओं से मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनी कला-साधना के कारण प्रसिद्ध हो रहे हैं । इन नवोदित प्रतिभाओं में अधिकांश ने शास्त्रीय संगीत की परंपरा और शुद्धता को यथावत रखा है और कुछ ने अपनी व्यक्तिगत कला-प्रतिभा को उभारने के लिए अपने प्रदर्शन में नया प्रयोग भी किया है । इन प्रतिभावान नए कलाकारों के प्रदर्शन में, लय चाहे विलंबित हो द्रुत, बोलों की शुद्धता और स्पष्टता ने शास्त्रीय संगीत को अधिक रंजक और सुबोध बनाया है । कुछ कलाकार आधुनिक दौर के प्रयोगधर्मी फ्यूज़न संगीत में भी रुचि ले रहे हैं ।

 

हिंदुस्तानी संगीत की परंपरागत विरासत को समृद्ध करने हेतु दिग्गज उस्तादों के परिवार की जो प्रतिभाएँ चर्चित हैं उनमें गायन में पं. अजय चक्रवर्ती की पुत्री कौशिकी चक्रवर्ती, पं. भीमसेन जोशी के पुत्र श्रीनिवास जोशी, राजन मिश्र के पुत्रद्वय रितेश-रजनीश मिश्र, पं. वसंतराव देशपांडे के पोते राहुल देशपांडे, सितार वादन में पं. पार्थो चटर्जी के पुत्र पूर्बायन चटर्जी, वायलिन वादन में विदुषी  एन. राजम की पोतियाँ और विदुषी संगीता शंकर की पुत्रियाँ नंदिनी-रागिनी शंकर, तबला वादन में पं. नयन घोष के पुत्र ईशान घोष, संतूर वादन में पं. शिवकुमार शर्मा के पुत्र राहुल शर्मा, सारंगी वादन में पं. रामनारायण के पोते हर्ष नारायण और उस्ताद सुल्तान ख़ान के पुत्र साबिर ख़ान, सरोद वादन में पं. आलोक लाहिड़ी के पुत्र अभिषेक लाहिड़ी और पं.शेखर बोरकर के पुत्र अभिषेक बोरकर, बाँसुरी वादन में पं. वेंकटेश गोडखिंडी के पुत्र प्रवीण गोडखिंडी आदि हैं । जिन पंसिद्ध संगीतज्ञों के परिवारों के कलाकार परंपरा और ‘फ्यूज़न में प्रयोग’ दोनों का निर्वहन कर रहे हैं उनमें प्रसिद्ध सितार वादक पं. कार्तिक कुमार के पुत्र नीलाद्रि कुमार, सरोद में उस्ताद अमजद अली ख़ान के पुत्र अमान-अयान अली, सारंगी में उस्ताद साबरी ख़ान के पोते सुहैल यूसुफ ख़ान व उस्ताद गुलाम साबिर ख़ान के पुत्र मुराद अली और तबला में पं सुरेश तलवलकर के पुत्र सत्यजीत तलवलकर व पं. अनिंदो चटर्जी के पुत्र अनुब्रत चटर्जी आदि उल्लेखनीय हैं ।

 

बहुत से ऐसे कलाकार हैं जो प्रसिद्ध संगीतज्ञों के परिवार के नहीं हैं किंतु उनके शिष्य हैं और कम समय में ही अपनी कला-प्रतिभा का परिचय दिया है, जैसे, गायन में पं. जितेन्द्र अभिषेकी के शिष्य महेश काले, मिश्र बंधु के शिष्य दिवाकर-प्रभाकर कश्यप, पं. उल्हास कशालकर के शिष्य ओंकार दादरकर, विदुषी वीणा सहस्रबुद्धे की शिष्या सावनी शेंडे, बाँसुरी में पं. हरिप्रसाद चौरसिया की शिष्याएँ देबोप्रिया और शुचिस्मिता चटर्जी, सितार में पं. बिमलेंदु मुखर्जी की शिष्या अनुपमा भागवत, तबला में पं. योगेश शम्सी के शिष्य यशवंत वैष्णव, पं. अनिंदो चटर्जी के शिष्य रूपक भट्टाचार्य आदि ।

 

उक्त सूची केवल उदाहरण स्वरूप है, शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित ऐसे नवोदित और प्रतिभाशाली कलाकारों की संख्या आज हज़ारों में है । एक ओर जहाँ कलाकारों की संख्या में वृद्धि हुई है वहीं दूसरी ओर माना जाता है कि आजकल के भागदौड़ भरे इंटरनेटीय युग में शास्त्रीय संगीत के श्रोता अपेक्षाकृत कम हो गए हैं । शास्त्रीय संगीत के श्रोता भी प्रसिद्ध नामों को अधिक सुनना पसंद करते हैं । युवा और कम प्रसिद्ध कलाकारों की ओर वे कम आकर्षित होते हैं । पाश्चात्य संगीत से प्रभावित हल्का-फुल्का भारतीय संगीत युवाओं में अधिक लोकप्रिय है । यही कारण है कि युवा कलाकार भी फ्यूज़न और पाश्चात्य बैंड की ओर आकर्षित हो रहे हैं । ईशान घोष कहते हैं- ‘‘अधिकांश लोगों में पारंपरिक शास्त्रीय संगीत की बारीकियों की सराहना करने का धैर्य नहीं है । प्रसिद्ध घरानों के कुछ वंशज फ्यूज़न  की ओर जा रहे हैं किंतु हमारे संगीत परिवारों के लिए परंपरा की शुद्धता से समझौता करना आसान नहीं  रहा है ।’’ शास्त्रीय संगीत में फ्यूज़न के प्रयोग की आलोचना संगीत समीक्षक और सुधी श्रोता अक्सर करते रहे हैं । फ्यूज़न को अपनाने वाले कलाकारों को इस का अहसास है । सारंगी वादक सुहैल ख़ान कहते हैं- ‘‘हमें अक्सर आरोपों का सामना करना पड़ा है कि आधुनिक रॉक संगीत में सारंगी का इस्तेमाल होने से वह ‘अशुद्ध’ हो गया है ।’’ परंपरा की शुद्धता के पालन के लिए यह अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक पीढ़ी को पिछली पीढ़ी की तरह कड़ी मेहनत करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विरासत जारी रहे । इस विरासत को जारी रखने में शास्त्रीय संगीत के श्रोताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । शास्त्रीय संगीत सुनने वाले शुद्धता से समझौता नहीं करते ।

 

पाश्चात्य संगीत के साथ हिंदुस्तानी संगीत का फ्यूज़न जैसा प्रयोग दीर्घजीवी नहीं होता । तात्कालिक रूप से यह युवाओं को भले ही लुभाए किंतु इसमें शुद्ध शास्त्रीय संगीत का गांभीर्य और सौंदर्य नहीं होता । इसीलिए यह उस तरह दशकों तक सहेजा और सुना  नहीं जाता जिस तरह शुद्ध शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अहमद जान थिरकवा या पं मल्लिकार्जुन मंसूर जैसे महान संगीतज्ञों की रिकॉर्डिंग को आज भी न केवल सुना जाता है, बल्कि सुन कर सीखा भी जाता है ।

 

पाश्चात्य संगीत से प्रभावित आधुनिक फ्यूज़न संगीत को बढ़ावा देने में कई टी.वी. और रेडियो चैनल सक्रिय हैं और शास़्त्रीय संगीत की ओर ध्यान देने वाला, आकाशवाणी के ‘रागम्’ को छोड़ कर,  एक भी चैनल टी.वी. में नहीं है । फिर भी हिंदुस्तानी संगीत पहले की तुलना में आज बेहतर दौर में है । इस संदर्भ में आधुनिक संचार तकनीक की सुविधाएँ शास्त्रीय संगीत के कलाकारों और श्रोताओं के लिए महत्वपूर्ण मंच सिद्ध हुई हैं । अनेक कलाकार डिज़िटल मीडिया प्लेटफार्म के माध्यम से अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं और सुधी श्रोताओं से उन्हें पर्याप्त सराहना भी मिल रही है ।  फेसबुक और यू-ट्यूब में अनेक प्रतिभावान कलाकारों के व्यक्तिगत और सामूहिक मंचों पर हज़ारों नए-पुराने और ‘लाइव’ संगीत कार्यक्रम देखे जा रहे हैं । आगरा घराने की गायिका प्रिया पुरुषोत्तम कहती हैं - ‘‘लॉकडाउन के दौर में युवा संगीतकारों ने न केवल प्रदर्शन करके बल्कि लिखकर, मुद्दों पर बोलकर अपने काम का प्रसार कर के अपनी आवाज बढ़ाने के लिए डिज़िटल संसाधनों का भरपूर उपयोग किया ।’’

यह भी सच है कि शास्त्रीय संगीत के सौंदर्य की वास्तविक रसानुभूति तब अधिक होती है जब कलाकार और श्रोता आमने-सामने होते हैं । मीडिया अधिकाधिक श्रोताओं तक कला को पहुँचाने  का एक वैकल्पिक माध्यम अवश्य है । देश में योग्य युवा प्रतिभाओं का सागर है । इन कलाकारों को पर्याप्त प्रोत्साहन और अवसर दिए जाने की आवश्यकता है । इस संदर्भ में अनेक संस्थाओं, संगीतकारों और आयोजकों ने इस क्षेत्र में लगन से काम किया है । देश भर में स्थित विभिन्न संगीत संस्थाएँ, संगीत शोध केंद्र, शासन के सहयोग से होने वाले संगीत समारोह, स्वतंत्र आयोजक और आकाशवाणी नवोदित कलाकारों को मंच पर प्रदर्शन का अवसर प्रदान करने का निरंतर उद्यम करते रहे हैं । विद्यालयीन बच्चों में भारतीय शास्त्रीय संगीत की सभी विधाओं के समृद्ध विरासत के प्रति रुचि जगाने का काम विगत 40 वर्षों से ‘स्पिक मैके’ जैसी प्रतिष्ठित संस्था कर रही है । इसके संस्थापक प्रो. किरण सेठ कहते हैं- ‘‘ मेरा दृष्टिकोण यह है कि प्रत्येक बच्चे को भारतीय कला और विरासत में निहित रहस्य का अनुभव संगीत के माध्यम से हो । जब संगीत के माध्यम से युवा खुद से और दुनिया से जुड़ते हैं तो यह दुनिया को एक बेहतर जगह बनाता है ।’’ प्रो. किरण सेठ का यह स्तुत्य कार्य तब फलीभूत हुआ लगता है जब ईशान घोष कहते हैं- ‘‘मेरा मानना है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरी पीढ़ी के लोगों में विशेष आकर्षण है जो कि कई दिग्गज हस्तियों के योगदान और सर्वोच्च प्रतिभाशाली युवा संगीतकारों की संख्या में वृद्धि का कारण है । भारत में और विदेशों में भी इतनी बड़ी संख्या में शास्त्रीय संगीत समारोहों में हमारे उम्र के लोगों को भाग लेते देखना अच्छा लगता है ।’’

हिंदुस्तानी संगीत के प्रति इन नए युवा संगीतकारों की लगनशीलता को श्रोताओं का उत्साह प्रेरित करती है । यह शास्त्रीय संगीत का जादू ही है जिसके कारण इंजीनियरिंग में स्नातक देबांजन भट्टाचार्य  इंफोसिस में नौकरी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं और अपना भविष्य सरोद के सुरों को सौंप देते हैं, यह शास्त्रीय संगीत के प्रति जुनून ही है कि आई.आई.टी. से कम्प्यूटर साइंस में स्नातक कशिश मित्तल प्रतिष्ठित आई.ए.एस. की नौकरी त्याग कर ख़याल गायन की लय-तान साध रहे हैं । शास्त्रीय संगीत के साधक ये सभी नवोदित कलाकार देश की सांस्कृतिक गरिमा के रक्षक और वाहक हैं । यह हम सब का उत्तरदायित्व है कि हम इन्हें सुनें और सराहें । भारत के प्रथम राष्टपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 24 अक्टूबर , 1959 को आकाशवाणी संगीत सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए जो बात कही थी वह आज भी प्रासंगिक है- ‘‘संगीत आदि कलाएँ संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग हैं । वास्तव में हमारी एकीकरण की जो क्षमता है, वह इसे इन कलाओं से प्राप्त हुई है । इसीलिए संगीत और दूसरी कलाओं को प्रोत्साहन देना भारतीय संस्कृति को उन्नत करने के समान माना जाता है ।’’

- महेन्द्र वर्मा 

 

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