अधिक मास - चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल




कुँवार या आश्विन का महीना शुरू हो गया है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुँवार का महीना दुहराया जाएगा तब उसके बाद कार्तिक का महीना आएगा। दो कुँवार होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2077 तेरह महीनों का है। तेरह महीने का वर्ष होना कोई दैवी या अलौकिक घटना नहीं है बल्कि प्राचीन भारतीय गणितज्ञों द्वारा स्थापित एक व्यवस्था है ताकि सौर मास और चांद्र मास साथ-साथ चलें । इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, खर मास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।

अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, औसतन प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। भारतीय कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की लगभग चार हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।

अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। इसी ग्रंथ (3.8.3) में अधिमास को संवत्सर रूपी ऋषभ का विष्टप यानी पूंछ कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।

अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रवर्ष और सौरवर्ष के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवाँ भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। दो वर्ष में यह अंतर 22 दिनों का और औसत रूप से 32-33 महीनों में लगभग 29 दिन अर्थात एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस तरह 19 सौर वर्षों में 7 अधिमास होते हैं । इस उपाय से चांद्रवर्ष का सौरवर्ष या ऋतुओं के साथ तालमेल स्थापित कर दिया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें। यदि ऐसा न किया जाए तो भारतीय त्योहारों के साथ ऋतुओं का संबंध गड़बड़ा जाएगा । उदाहरण के लिए, दीपावली त्योहार जो शीत ऋतु के आरंभ में होता है वह कभी गर्मी में और कभी बरसात में होने लगेगा ।

किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए, इसके निर्धारण के लिए प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -

1. चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2. सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3. कुछ स्थितियों को छोड़ कर सौर मासों की अवधि चांद्र मासों से अधिक होती है जिसके कारण एक सौर मास के बीच में दो अमावस्याएँ हो सकती हैं ।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क. जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख. जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएँ घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।

इस वर्ष होने वाले दो कुँवार को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की कन्या संक्रांति 16 सितंबर को और तुला संक्रांति 17 अक्टूबर को है। इन तारीखों के मध्य 17 सितंबर की अमावस्या से 16 अक्टूबर की अमावस्या तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।

पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि, 16 सितंबर से 17 अक्टूबर के मध्य दो अमावस्याएँ, क्रमशः 17 सितंबर और 16 अक्टूबर को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम कुँवार होगा। इनमें से एक को प्रथम आश्विन तथा दूसरे को द्वितीय आश्विन कहा जाएगा। किंतु पूर्णिमांत मास के अनुसार इन दो आश्विन मासों के 4 पक्ष में से प्रथम कृष्ण पक्ष और अंतिम दूसरे शुक्ल पक्ष को शुद्ध आश्विन मास कहा जाएगा और बीच के दूसरे और तीसरे पक्ष से जो महीना बनेगा वह अधिक आश्विन मास कहा जाएगा । इस अधिक मास में परंपरा के अनुसार व्रत-त्योहार नहीं होते इसीलिए बीच के अधिक मास के दो पक्षों में कोई व्रत त्योहार नहीं है । पितृपक्ष शुद्ध मास के प्रथम पखवारे में और नवरात्रि अंतिम पखवारे में है । इस बार इन दानों पर्वां में एक माह का अंतर है ।
 
भारतीय काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है । किंतु यह व्यवस्था भी पूर्णतः त्रुटिहीन नहीं है । यदि इसमें संशोधन न किया गया तो छब्बीस हज़ार वर्षों की अवधि में धीरे-धीरे त्योहारों और ऋतुओं का साथ छूटने लगेगा ।
 
- महेन्द्र वर्मा 



जा जा रे अपने मंदिरवा-पं. जसराज


 

                                                       पं. जसराज (28 जनवरी, 1930-17 अगस्त, 2020)

 

संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज को अपने जीवन काल में एक ऐसा सम्मान मिला जो भारतीय संगीत के किसी भी साधक को नहीं मिला । 11 नवंबर, 2006 को अंतरराष्ट्रीय खगोलिकी संगठन ने मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच खोजे गए एक नवीन लघुग्रह का नाम पं. जसराज के नाम पर रखा । यह भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए भी गौरव की बात है ।
 

मेवाती घराने की पाँचवी पीढ़ी के संगीत-नक्षत्र पं. जसराज हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन संगीत के पुरुष कलाकारों में स्वर्णमानक माने जाते हैं, उसी तरह, जैसे महिला कलाकारों में किशोरी अमोनकर । संगीत उनकी पारिवारिक विरासत है । पं. जसराज के पिता पं. मोतीराम तत्कालीन कश्मीर राज्य के दरबारी गायक थे । इनके दो भाई पं. प्रतापनारायण और पं. मणिराम भी शास्त्रीय गायक थे । प्रारंभ में पं. जसराज ने तबले की शिक्षा प्राप्त की । वे अपने भाई पं. मणिराम के साथ कार्यक्रमों में तबला संगत करते । उस दौर में वे पं. रविशंकर, पं. कुमार गंधर्व जैसे बड़े कलाकारों के साथ तबला संगत किया करते थे । किंतु गायन के प्रति तीव्र ललक ने उन्हें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का शीर्षस्थ गायक बना दिया । पं. जसराज ने गायन की शिक्षा अपने बड़े भाई पं. मणिराम, महाराज जयवंत सिंह वाघेला और मेवाती घराने के उस्ताद गुलाम कादिर खान से प्राप्त की ।
 

अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था- ‘‘मेरे स्कूल के रास्ते में एक रेस्तराँ था जहां ग्रामोफोन में संगीत के रिकॉर्ड बजते रहते थे । मैं स्कूल न जा कर वहीं फुटपाथ पर बेगम अख्तर के गीतों को सुनता रहता था । एक दिन शिक्षक ने मेरे बारे में मेरी माँ से पूछा कि क्या वह अस्वस्थ है, बहुत दिनों से स्कूल नहीं आ रहा है ! घर वालों ने मुझे बहुत डाँटा था । मुझे पढ़ाई में कोई रुचि नहीं थी, केवल संगीत से लगाव था ।’’
पं. जसराज का प्रथम सार्वजनिक कार्यक्रम 1952 में नेपाल के तत्कालीन महाराजा त्रिभुवन वीर विक्रम ने आयोजित करवाया था । गायन के प्रारंभिक 6-7 वर्षों में वे अपने भाई पं. मणिराम के साथ युगलबंदी ही प्रस्तुत करते थे । साणंद के महाराज जयवंतसिंह की एक बंदिश ‘माता कालिका महारानी जगज्जननी भवानी’ को उन्होंने राग अड़ाना में निबद्ध कर प्रस्तुत किया था जो बहुत लोकप्रिय है । सन् 1959 में अहमदाबाद में उनके जुगलबंदी गायन को श्रोताओं ने इतना सराहा कि प्रातः तक इन्हीं दोनों भाइयों का गायन होता रहा ।
 

पद्मविभूषण पं. जसराज के गायन को उनका स्वर-लालित्य और स्वर-गांभीर्य अन्य शास्त्रीय गायकों के गायन से विशिष्ट बनाता है । उनके विलंबित खयाल गायन में सुरों की गहराई और द्रुत में तानों की सपष्टता एवं सजीवता अनुपम है । तीनों सप्तकों में स्वरों का निर्दोष प्रदर्शन उनकी गायकी की विशिष्टता है । आकर्षक मुरकियाँ और गंभीर गमक उनके गायन की प्रवीणता का परिचय देती हैं । खयाल गायन के पश्चात प्रस्तुत किए गए उनके भजनों में झलकती सात्विकता अन्यत्र दुर्लभ है । उनके अनेक शिष्यों में पं. संजीव अभ्यंकर, रतन मोहन शर्मा और विदुषी कला रामनाथ ने विशेष ख्याति अर्जित की है ।
 

भारतीय शास्त्रीय गायकी को संपूर्ण शुद्धता के साथ प्रस्तुत करने के लिए पं. जसराज सदैव याद किए जाएंगे । सन् 1987 में एक कार्यक्रम में वे राग तोड़ी प्रस्तुत कर रहे थे । तभी एक हिरण अचानक श्रोताओं के पीछे आकर खड़ा हो गया और मंच की ओर मुँह किए 5 मिनट तक खड़ा रहा । उल्लेखनीय है कि राग तोड़ी का संबंध हिरण से है । 16 वीं शताब्दी में आगरा के एक गायन कार्यक्रम में प्रसिद्ध गायक तानसेन और बैजू बावरा ने राग तोड़ी गाया था । कहा जाता है कि हिरणों का एक झुंड उनके सामने आकर खड़ा हो गया था । भारतीय शास्त्रीय संगीत के संदर्भ में यह माना जाता है कि यदि राग को शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाए तो वह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है ।
 

सन् 1994 में इसी प्रकार के एक और प्रसंग के संबंध में पंडित जी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि गुजरात के एक कार्यक्रम में राग मल्हार गाने के बाद वर्षा होने लगी थी । ऐसा ही राजस्थान और दिल्ली के कार्यक्रमों में पूर्णिमा की रात को घटित हुआ था जहाँ कार्यक्रम के पहले वर्षा का कोई संकेत नहीं था । उन्होंने कहा था- ‘‘इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं थी बल्कि संगीत का प्रभाव था । यदि आप भीतर से गाते हैं तो आप ब्रह्माण्ड को आकर्षित करते हैं और यही शास्त्रीय संगीत की सुंदरता है ।’’ इतने गुणी और महान कलाकार होने और देश-विदेश में प्रसिद्धि और सम्मान पाने के बावजूद उनमें लेशमात्र भी अहंभाव नहीं था । उनका कहना था- ‘‘यदि मैं कहूँ कि मैंने कुछ हासिल किया है तो इसका अर्थ है कि मेरा जीवन रुक गया है । मैंने कुछ हासिल नहीं किया है । मैं तो बस संगीत के प्रवाह में बहते रहना चाहता हूं ।’’
 

पं. जसराज की गाई अनेक रचनाओं में से कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ- राग भैरव में ‘अब न मोहे समझाओ कान्ह तुम’, राग मधुमद सारंग में ‘रसिकनी राधा पलना झूले’, राग दरबारी में ‘जय जय श्री दुर्गे’, भीमपलासी में ‘जा जा रे अपने मंदरवा’, राग मेघ में ‘मन मेरे सुहाई बरखा ऋतु आई’, भैरव में ‘मेरो अल्ला मेहरबान’ आदि ।
 

भले ही उनका शरीर अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनके मधुर स्वरों से सजी गायकी युगों तक आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करती रहेगी ।

उनके गायन को सुनना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी -

प्रस्तुत है, पंडित जसराज की एक प्रसिद्ध रचना - 

जा जा रे अपने मंदिरवा,राग भीमपलासी , छोटा ख्याल , मध्य-द्रुत तीन ताल


 


-महेन्द्र वर्मा







भारत की संत परंपरा - तब और अब




भारत सदा से संतों की भूमि रहा है । आज भी संत उपाधि धारण करने वाले अनेक हैं किंतु इनकी विशेषताएं अतीत के संतों से नितांत भिन्न परिलक्षित होती हैं । विगत आठ-नौ सौ वर्षों तक भारतीय समाज और संस्कृति को एक सूत्र में पिरोए रखने में संतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उत्तर भारत में रामानंद से लेकर स्वामी रामतीर्थ तक हज़ारों संतों की सुविख्यात परंपरा ने भारतीय जन-मानस को श्रेष्ठ संस्कार प्रदान किया है। देश के इतिहास में अनेक बार विस्तारवादी शक्तियों ने न केवल भौगोलिक-राजनैतिक आक्रमण किए वरन् देश की सांस्कृतिक संरचना को भी विच्छिन्न करने का प्रयास किया । इन परिस्थियों में उन महान संतों ने ही देश की सुप्त चेतना को जागृत कर मानवतामूलक धर्म का संदेश दिया और हमारी गौरवमयी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित किया ।

तब

संतों की परंपरा दक्षिण भारत में छठवीं शताब्दी से आलवार संतों से प्रारंभ होती है । ये भक्तिमार्गी संत थे । पुराणों की रचना के पश्चात वेदांत के एकेश्वरवाद की महत्ता क्षीण होने लगी  और बहुदेववाद का प्रचार होने लगा । इसके प्रभाव में शैव, वैष्णव, शाक्त, नाथ, तांत्रिक आदि अनेक उपधर्म या संप्रदाय अस्तित्व में आ गए । जैन और बौद्ध धर्म भी संप्रदायों में विभाजित हो चुका था ।  इन सभी उपधर्मों में भिन्न-भिन्न प्रकार के बाह्योपचार और कर्मकांडयुक्त धार्मिक क्रियाओं का महत्व अधिक था । इन्हीं कर्मकांडों के प्रतिकार के लिए समन्वयवादी संतों का प्रादुर्भाव हुआ । उन्होंने जनसामान्य को कर्मकांड, आडंबर, अंधश्रद्धा, अज्ञान, और कुरीतियों के जाल में फंसा हुआ देखा। ऐसे समय में भ्रमित जनता को मार्ग दिखाने का कार्य संतों ने किया। संत परंपरा के सर्वप्रथम पथदर्शक प्रसिद्ध कवि जयदेव थे। उनसे लेकर 16वीं सदी तक सधना, वेणी, त्रिलोचन, नामदेव, रामानंद, सेना, कबीर, पीपा, रैदास, दादूदयाल, रज्जब जैसे कई संतों ने संतमत को समृद्ध किया। ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास आदि संतों की भक्तिधारा ने महाराष्ट्र के सर्वसामान्य जनजीवन को सँवारा और सुधारा। इन संतों ने भक्तिमार्ग के साथ-साथ मानवतावादी विचारधारा को एक नया सार्थक स्वरूप प्रदान किया।

आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लोकमत एवं वेदमत का जो समन्वय होना आरंभ हुआ था वह भाषा एवं विचार दोनों दृष्टियों से लोकामिमुख हो रहा था। 14 वीं शताब्दी में स्वामी रामानंद ने इस आंदोलन को व्यापक बनाया । उन्होंने भक्ति के लिए वेदशास्त्र, संस्कृत भाषा, वर्णभेद, बाह्याचार, अंधविश्वास आदि को अनिवार्य नहीं माना। उन्होंने निम्न जातियों और स्त्रियों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। वस्तुतः उत्तर भारत में भक्ति-आन्दोलन का आरंभ करने और मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाने का श्रेय रामानन्द को ही है। वे ब्राह्मण थे किंतु उन्होंने वैष्णव धर्म में दो बड़े सुधार किये - 1. भक्ति मार्ग में जाति भेद की संकीर्णता को मिटाया। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर छोटी समझी जाने वाली जातियों को अपना शिष्य बनाया तथा अपने सम्प्रदाय में शामिल किया। 2. उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा जनभाषा में अपने मत का प्रचार किया।

स्वामी रामानंद के विचारों से प्रेरित होकर उत्तर भारत में कबीर, महाराष्ट्र में नामदेव, पंजाब में नानक तथा बंगाल में चैतन्य महाप्रभु ने समाज तथा धर्म-सुधार आन्दोलन को गति प्रदान की । इन संतों ने जातिविहीन समाज, रूढ़िवादिता का परित्याग, वाह्याडंबरों का त्याग तथा भक्ति द्वारा शरीर को शुद्ध करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस संदर्भ में कबीर ने समाज की भलाई के लिए अन्य संतों से अधिक कार्य किया है। कबीर साहब ने यदि स्वातंत्र्य एवं निर्भीकता को अधिक प्रधानता दी, तो गुरुनानक ने समन्वय तथा एकता पर विशेष बल दिया और दादूदयाल ने उसी प्रकार सद्भाव और सेवा को श्रेष्ठ माना। नाथपंथ ने वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया । सामाजिक और धार्मिक एकता के जिस भवन का निर्माण कबीर, दादू और नानक ने किया था उसे रज्जब साहब ने और मजबूत बनाया । उन्होंने हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म की संकुचित चहारदीवारी को लाँघ कर सृष्टिकर्ता से प्रीति करने का संदेश संसार को दिया । एक ओर मूर्तिपूजा, जप, तप, छापा-तिलक, वाह्याडंबर, अंधविश्वास की प्रधानता थी तो दूसरी ओर ं हज, नमाज, रोजा आदि पर विश्वास अधिक था। इसके साथ ही साथ दोनों धर्मों में पाखण्ड-प्रवृत्ति का भी समावेश हो गया था। प्रत्यक्ष जाति-पाँति का भेदभाव, वाह्याडंबर के कारण समाज में वर्गगत विषमता और द्वेष की भावना प्रबल थी। इस समस्या को कबीर की भांति पलटूदास ने भी अनुभव किया था और वर्ण व्यवस्था को कायम रखने वालों पर ही प्रहार किया। उन्होंने समाज की आन्तरिक और बाह्य प्रवृत्तियों पर एक साथ प्रहार किया और लोगों को भावना प्रधान होने की प्रेरणा प्रदान की । इस्लाम के सूफी संतों ने भी सामाजिक समरसता का ही संदेश दिया ।

यद्यपि अनेक संत सवर्ण समुदाय से भी हुए हैं किंतु अधिकांश संत नीची समझी जाने वाली जातियों के थे, इसलिए उनके क्रिया-कलापों, धार्मिक सिद्धान्तों, आदि के विरुद्ध सवर्णों एवं धर्माचार्यों का एक बड़ा समुदाय खड़ा था । उन्हें कदम-कदम पर प्रताड़ित किया जाता था । उन्हें समाज का उपेक्षित व्यक्ति समझा जाता था। इसीलिए संतों ने समाज में जाति-प्रथा का विरोध किया था, ऊँच-नीच का भेद-भाव उनके यहाँ नहीं था, समाज का प्रत्येक व्यक्ति समान था। संतों ने अपने इस मानवतावादी विचारों का विरोध होते हुए स्वयं देखा और अनुभव किया था। सवर्णों और वर्ण-व्यवस्था के पक्षधरों द्वारा किए जा रहे इस विरोध की प्रतिक्रिया में संतों ने अपनी वाणियों के माध्यम से जनता को यह संदेश दिया था कि जातिवादी ऊँच-नीच की विचारधारा, बाह्याडंबर, वहुदेववाद आदि स्वार्थपरक नीतियों से संचालित हैं । इसी क्रम में सिद्धों, नाथों और हठयोगियों की निन्दा करने में भी वे पीछे नहीं हैं। वास्तविक संत तो वही है जिसके भीतर मोक्ष, तीर्थ, व्रत, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि की कामना न हो। उसका न तो कोई मित्र होता है न शत्रु। उसके लिए सभी वर्ण के मनुष्य समान हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती इसी कड़ी के क्रांतिकारी व्यक्तित्व हुए जिन्होंने पाखंड और धर्मान्धता के प्रति समाज को जागरूक करने में एकेश्वरवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर जन-जागृति का मंत्र फूँका। अशिक्षा, अज्ञान, कुरीतियों, सती प्रथा आदि बुराइयों पर उन्होंने अपने उद्बोधन द्वारा नई चेतना जागृत की जो बाद में आर्य समाज के रूप में पूरे देश में फैली। आर्य समाज की धारणा ने सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर प्रगतिशील विचारधारा को जन्म दिया जिसका भारतीय जनमानस पर व्यापक प्रभाव हुआ ।



इन संतों  की वाणियों में यह स्वर निरंतर गूंजता रहता है कि सद्भावना, सदाचार और सहृदयता से केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरा समाज लाभान्वित होता है। प्रेम, परोपकार, त्याग, अहिंसा, क्षमा, अहिंसा, सहनशीलता एवं सत्य के अनुपालन से समाज का कल्याण और उत्थान संभव है। उनकी सामाजिक सोच का प्रतिबिम्ब मिलता है, जिनमें जाति या वर्ण का किंचित भेद नहीं मिलता। इस दृष्टि से भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी के पश्चात् मध्यकालीन भारत में संतों ने सामाजिक न्याय और समानता के लिए अथक प्रयास किया। सामाजिक चेतना जगाने में जो महत्वपूर्ण कार्य संतों ने किया है, उसे नकारना सम्पूर्ण समन्वयवादी चिन्तन पर अविश्वास करने के समान है ।

अब

यह माना जाता है कि उन महान संतों ने अपने-अपने पंथ और संप्रदाय स्थापित किए किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न संप्रदायों का प्रचलन उनके शिष्यों ने किया होगा । जो संत जीवन भर गैरसंप्रदायवादी विचारों को प्रचारित करते रहे वे ही किसी संप्रदाय की स्थापना भला क्यों करेंगे ! आज भी ये संप्रदाय अस्तित्व में हैं किंतु ये उन महान संतों के विचारों और आदर्शों से बहुत दूर प्रतीत होते हैं ।  व्यक्ति की स्वार्थलोलुपता और वर्चस्व के मोह के कारण प्रत्येक संप्रदाय का अनेक बार विभाजन हो चुका है । नए-नए मठ, आश्रम, गद्दी, डेरा, अखाड़ा आदि स्थापित हो रहे हैं । इनमें विराजित होने वाले व्यक्ति अपने नाम के साथ स्वामी और आचार्य जोड़ते हैं जबकि सूर और तुलसी जैसे ब्राह्मण संत भी अपने नामों के साथ दास लिखते थे ।  गत कुछ वर्षों की घटनाओं से यह तथ्य सामने आया है कि आज के इन स्वयंभू संतों का उद्देश्य केवल धनसंग्रह करना और विलासितापूर्ण जीवन जीना ही है ।

संतों का प्रमुख लक्षण त्याग है, संग्रह नहीं । पूर्वयुग के संतों की कथनी, करनी और रहनी में समानता थी किंतु आज के तथाकथित संतों में यह विशेषता लेशमात्र भी नहीं दिखाई देती । स्वामी विवेकानंद भारत की संत-परंपरा की  अंतिम विभूति थे । भारत जैसे परंपरावादी, रूढ़िवादी, जाति व्यवस्था, वाह्याडंबर और अंधविश्वास वाले देश में स्वामी रामानंद से लेकर स्वामी विवेकानंद तक के अनेक संतों ने समााजक चेतना जगाने का जो प्रयास किया था, वह प्रयास अभी अधूरा ही है। यद्यपि तब और अब के सांसारिक परिदृश्य में बहुत परिवर्तन हो चुका है किंतु संतों की ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और मानवतावाद की प्राचीन अवधारणा सदैव प्रासंगिक रहेगी । इस अवधारणा के पुनरुत्थान के लिए क्रान्तिकारी चेतना विकसित करना आवश्यक है।

- महेन्द्र वर्मा














हिन्दी साहित्य के संगीतमय गीत






गीत-संगीत किसे अच्छा नहीं लगता ! यदि गीत किसी प्रख्यात साहित्यकार का हो जिसे संगीतबद्ध कर गाया गया हो तो ऐसी रचना सहसा ध्यान आकर्षित करती ही है । प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती की एक कविता है- ‘ढीठ चांदनी’ । इस की प्रारंभिक पंक्ति है-‘आजकल तमाम रात चाँदनी जगाती है’। इस कविता को संगीतबद्ध कर दिल्ली की एक उभरती गायिका चिन्मयी त्रिपाठी ने गाया है। यह कविता छंदबद्ध नहीं है फिर भी चिन्मयी ने इसे कुशलतापूर्वक गाया है । इसकी संगीत रचना में यद्यपि शास्त्रीय राग की झलक दिखाई देती है किंतु गायन पश्चिमी शैली में है और केवल पश्चिमी वाद्ययंत्रों का उपयोग किया गया है । चिन्मयी धर्मवीर भारती के अलावा महादेवी वर्मा, निराला, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, बच्चन, दिनकर, प्रसाद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और विनोद कुमार शुक्ल जैसे हिंदी के प्रथम पंक्ति के कवियों के गीतों का गायन विगत दो-तीन वर्षों से विभिन्न साहित्यिक मंचों से करती आ रही हैं । एक साक्षात्कार में चिन्मयी ने अपने इस प्रयास के संबंध में बताया था कि वे संगीत के माध्यम से नई पीढ़ी में हिन्दी कविताओं के प्रति रुचि जगाना चाहती हैं ।

हिन्दी के शीर्ष कवियों की साहित्यिक रचनाओं का संगीतमय गायन चिन्मयी के पहले भी संगीत जगत के कुछ प्रसिद्ध कलाकारों ने किया है परंतु ऐसे गीतों की संख्या उँगलियों में गिनी जा सकती है । चिन्मयी के गाए गीतों और इनके पहले गाए गए गीतों में महत्वपूर्ण अंतर यह है कि पहले के गीतों में विशुद्ध भारतीय संगीत की साज-सज्जा है जबकि चिन्मयी के गायन में पहली बार पश्चिमी शैली के संगीत का प्रयोग किया गया है । यह जानना रोचक है कि विगत पचास वर्षों में हिंदी के 7-8 प्रख्यात हिन्दी-कवियों के केवल 30-35 गीत ही संगीतबद्ध किए गए हैं ।

भक्तिकाल के कवियों सूर, तुलसी, कबीर, मीरा आदि की रचनाओं का संगीतमय गायन भजन के रूप में परंपरागत रीति से अपने रचनाकाल से ही हो रहा है । देशभक्ति गीतों की एक अलग परंपरा है जिसमें मैथिली शरण गुप्त, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी आदि कवियों के गीत संगीतबद्ध किए गए हैं । सुगम संगीत के उपप्रकारों में एक ‘गीत-ग़ज़ल’ भी है । यह आलेख आधुनिक हिन्दी काव्य में विगत एक सौ वर्षों में हुए प्रख्यात साहित्यकारों की काव्य रचनाओं को सुगम संगीत के अंतर्गत संगीतबद्ध करने के संदर्भ में है । ऐसे गीतों को स्वरबद्ध करने का कार्य सर्वप्रथम प्रसिद्ध संगीतकार जयदेव ने प्रारंभ किया । छायावाद के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद की काव्यरचना ‘कामायनी’ के निर्वेद सर्ग के एक गीत ‘तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन’ को जयदेव ने सन् 1971 में आशा भोंसले की आवाज़ में रिकॉर्ड किया था । निराशा में आशा को जगाता यह गीत रस, छंद, अलंकार और अर्थगांभीर्य से समृद्ध है । आशा भोंसले की आवाज़ और जयदेव की शास्त्रीय राग पर आधारित मधुर स्वर-रचना ने इसे प्राणवान बना दिया है । 1971 में ही जयदेव की संगीत-रचना पर आशा भोंसले ने महादेवी वर्मा का गीत ‘कैसे उनको पाऊँँ आली’ भी गाया था ।

हरिवंशराय बच्चन के खंडकाव्य ‘मधुशाला’ को जयदेव ने ही 1973 में संगीतबद्ध किया था जिसे मन्ना डे ने अपनी आवाज़ दी थी । अलग-अलग प्रसंगों के भावों के अनुरूप अलग-अलग रागों से इसे सजाया गया है । उसके बाद 1980 में जयशंकर प्रसाद का गीत ‘बीती विभावरी जाग री’ को जयदेव ने ‘कश्मीर की नाइटिंगेल’ कही जाने वाली गायिका सीमा सहगल से गवाया था । इसी वर्ष उन्होंने महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘उर्वशी’ के एक अंश (3,7) ‘पर क्या बोलूँ, क्या कहूँ , भ्रांति यह देह भाव’ को सुरों में बाँधा । क्लिष्ट हिन्दी से युक्त इस काव्यांश का गायन ‘दक्षिण की लता’ एस.जानकी ने किया है । 1987 में जयदेव की बनाई धुनों पर इसी तरह के दो गीत आशा भोंसले ने और एक गीत भूपेन्द्र ने गाए । इन में से प्रथम दो महादेवी वर्मा के हैं-‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल’ और ‘जो तुम आ जाते एक बार’ तथा तीसरा गीत जयशंकर प्रसाद का है-‘वे कुछ दिन कितने सुंदर थे’ । जयदेव की ये सभी रचनाएँ गीत और संगीत के उत्कृष्ट संगम हैं ।

सन् 2009 में सीमा सहगल ने मैथिलीशरण गुप्त के काव्य ‘यशोधरा’ से एक गीत ‘सखि वे मुझसे कह कर जाते’ को अपना स्वर दिया है । यशोधरा की पीड़ा को संगीत के सुरों ने अधिक गहन बना दिया है । सन् 2014 में एक प्रतिभाशाली संगीतकार राहुल रानाडे ने प्रसाद के 4, दिनकर के 5 और निराला के 4 गीतों को विभिन्न रागों में स्वरबद्ध किया है जो बहुत कर्णप्रिय हैं । इन गीतों में सुरेश वाडेकर, साधना सरगम और डॉ. राधिका चोपड़ा जैसी प्रसिद्ध सुरशिल्पियों की मधुर आवाज़ें हैं । एक और संगीतकार केवल कुमार ने भी कवि केदारनाथ अग्रवाल के कुछ गीतों को सुरों से सज्जित किया है ।

उपरोक्त सभी गीतों में भारतीय वाद्ययंत्रों जैसे सितार, सरोद, बाँसुरी, सारंगी आदि का प्रयोग गीतों के सौंदर्य को द्विगुणित करता है । विशेषकर जयदेव और राहुल रानाडे का संगीत गीतों के भाव प्रकटीकरण में सहायक सिद्ध हुए हैं । इन विशेषताओं से चिन्मयी त्रिपाठी का संगीत और गायन वंचित है । पश्चिमी संगीत में ढाले गए उनके गीतों में भारतीयता की महक अनुपस्थित है । फिर भी हिन्दी के महान कवियों के गीतों को संगीत में पिरोने के ये सभी प्रयास सराहनीय हैं ।

समकालीन सुगम संगीत में अधिकतर गायक या तो भजन गाते हैं या ग़ज़ल । इसका कारण यह है कि इनकी परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है । भजन की परंपरा भक्तिकालीन कवियों से और ग़ज़ल की परंपरा दरबारी संगीत से शुरू हुई है । हिन्दी साहित्य के छायावादी और उसके बाद लिखे जाने वाले गीतों को संगीतबद्ध करने का उपरोक्त के अतिरिक्त कोई और प्रयास नहीं किया गया । बंगला के महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर और तमिल के महाकवि सुब्रमण्यम् भारती के गीत सैकड़ों की संख्या में संगीतबद्ध किए गए । इसकी तुलना में हिन्दी के ख्यातनाम कवियों के गीतों और कविताओं का अल्प सांगीतिक रूप रेगिस्तान में नखलिस्तान के समान है । इन्हें लोकप्रिय बनाने के लिए इन गीतों को रेडियो और टेलीविज़न चैनलों से बार-बार प्रसारित किए जाने की आवश्यकता है ।

-महेन्द्र वर्मा

शिशु ने नामकरण किया मां-बाबा का





सभी जीवों के साथ-साथ मनुष्यों के जीवन के लिए हवा के बाद पानी दूसरा महत्वपूर्ण पदार्थ है । पानी के लिए दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग शब्द हैं, जैसे मलय भाषा में एइर, लैटिन में एक्वा, रूसी में वोदी, तुर्की में सु, अरबी में मान फ़ारसी में आब, अफ़्रीकी भाषा ज़ुलू में अमांन्जी, चीनी में शुइ आदि । इन समानार्थी शब्दों के ध्वनिरूप में कोई समानता नहीं दियाई देती । यह स्वाभाविक है कि किसी एक पदार्थ के लिए अलग-अलग भाषा में अलग-अलग शब्द होते ही हैं । लेकिन यह जानना बहुत रोचक है कि संसार की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में माता-पिता के लिए जो विभिन्न शब्द हैं उनकी ध्वनियों में आश्चर्यजनक रूप से समानता है ।


इन शब्दों के अध्ययन से भाषा के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का अनुमान लगाया जा सकता है। जैसे, मनुष्य ने भाषा की शुरुआत कैसे की होगी, वे कौन से शब्द हैं जो पहले-पहल बनाए गए, इन शब्दों के लिए प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई होगी, बोलने के संदर्भ में किसी मनुष्य के लिए कौन-कौन सी ध्वनियां सबसे आसान हैं आदि । इस लेख में इन्हीं प्रश्नों के उत्तर तलाशने का प्रयास किया गया है । पहले हम विभिन्न भाषाओं में माता-पिता के लिए प्रयुक्त शब्दों पर विचार कर लें जिनमें कुछ खास वर्णों या ध्वनियों का प्रयोग हुआ है ।


दुनिया की कुछ भाषाओं में मां के लिए प्रचलित शब्दों के उदाहरण देखिए- अधिकांश भारतीय भाषाओं में मां को मां, अम्मा या अम्मी से संबोधित करते हैं । भोजपुरी और कोंकड़ी जैसी बहुत सी क्षेत्रीय भाषाओं में माई, इया, मइया, मराठी में आई, कुमाउंनी में इजा, डोगरी में म्ये, कश्मीरी में मम्ज, मणिपुरी में इमा, गुजराती में बा, पंजाबी में बेबे, उड़िया में बाउ, हल्बी और बहुत सी आदिवासी बोलियों में माय, छत्तीसगढ़ी में दाई, संस्कृत में मातृ आदि । यूरोप की भाषाएं भारोपीय समूह की भाषाएं हैं इसलिए इन में मां के समरूप शब्द संस्कृत मातृ से मिलते-जुलते हैं किंतु सभी नहीं । विदेशी भाषाओं में उदाहरण- अंग्रेज़ी में मदर, डच में मोएदेर, एस्टोनियाई में एमा, आयरिश में मताइर, पुर्तगाली में माय, अजरबैजानी में अना, हंगेरियाई में आन्या, तुर्की में अन्ने, अरबी में उम, तुर्कमेनी में इजे, वियतनामी में मे, हिब्रू में मु, स्वाहिली में मामा, योरूबा में इया, जुलू में उनिना, स्लोवाक में मात्का, फिनिश में माइती, चीनी में मु किन् आदि ।


मां के समरूप उपर्युक्त शब्दों में अधिकांश में पहला वर्ण म है, कुछ में मध्य या अंतिम वर्ण म है, कुछ के प्रारंभ, मध्य या अंत में स्वर वर्ण अ, इ, ए या उ है, कुछ में त, द या न भी है । कुछ शब्द इन्हीं ध्वनियों के मेल से बने हैं । म हिन्दी वर्णमाला में प वर्ग का अंतिम वर्ण है और त,द,न त वर्ग के वर्ण हैं । निष्कर्ष यह कि मां के लिए जो शब्द हैं उनमें प और त वर्ग के व्यंजन तथा लघु स्वरों की प्रधानता है । क्या ऐसा होने का कोई महत्वपूर्ण कारण है ? इसकी चर्चा कुछ देर बाद करेंगे, पहले पिता के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों पर विचार कर लें । कुछ उदाहरण देखिए-


अधिकांश भारतीय भाषाओं और बोलियों में पिता के लिए बाबा, बप्पा, बाबूजी, अब्बा, बापू, दद्दा, ददा आदि प्रचलित हैं जबकि दक्षिण भारतीय भाषाओं में अप्पा, अन्ना, अच्चन, तन्दी आदि । संस्कृत में पितृ, तात और वाप्ति भी पिता के समानार्थी हैं । भारोपीय समूह की भाषाओं में लैटिन के पतेर और उसके अन्य रूपों के अलावा संबोधन के लिए पापा शब्द प्रचलित है । फिलिपीनी में ताते, हंगेरियन में अपा, चेक में ताता, अफ्रीकी में बाबा, हिब्रू में अब्बाह्, इंडोनेशियाई में बापा, इटैलियन में बब्बू, ग्रीक में बब्बास् आदि जैसे शब्द संसार की प्रायः सभी भाषाओं में पिता के लिए प्रयुक्त होते हैं । इन में भी प, ब, त, द, न और अ वर्णों के अर्थात प और त वर्ग के वर्णों के अलावा अ स्वर के प्रयोग की अधिकता है ।


अब इस बात पर विचार करना है कि दुनिया भर में माता-पिता के लिए प्रयुक्त शब्दों में इतनी समानता क्यों है और वह भी कुछ खास वर्णों के साथ ! वास्तव में एक शिशु का जब जन्म होता है तो सबसे पहले वह रोता है । रोने की इस ध्वनि को किसी लिपि में लिखा तो नहीं जा सकता किंतु सुनने से यह समझ आता है कि उस ध्वनि का मूल स्वर नासिक्ययुक्त अ या आ है । कुछ महीने तक शिशु की यही ध्वनि उसके लिए संपूर्ण भाषा बनी रहती है । 5-6 महीने की आयु में शिशु अ की ध्वनि निकालते हुए शिशु जब दोनों होठों को बंद कर लेता है तब यह अम् की ध्वनि होती है । अम् बोलते हुए होंठों को फिर खोलता है तो अम्अअ की की ध्वनि निकलती है । इस दौरान यदि 2-3 बार होंठों को खोलता और बंद करता है तो अम्अम्अ जैसी ध्वनि सुनाई देती है । शिशु को ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं सिखाया है, यह अनायास ही उसके मुंह से निकलता है । मां इस ध्वनि को अपने लिए अनायास ही संबोधन मान लेती है । कहा जा सकता है कि इस प्रकार नवजात शिशु ने अपनी जननी का नामकरण किया- मां, अम्मा, मामा आदि। इन्हीं के आधार पर बाद में बड़ों ने देश-काल के अनुसार और भी अनेक संज्ञाएं बनाई ।


एक वर्ष की आयु होते-होते शिशु के मुंह से स्वाभाविक रूप से दो ध्वनियां और निकलने लगती हैं- प और ब । ये दोनों ध्वनियां भी होठों के बंद होने और खुलने पर निकलती हैं । शिशु द्वारा बार-बार की जाने वाली ध्वनि बब्बब्बब् या पप्पप्पप् का संबंध उसके जनक के लिए बाबा और पापा जैसे शब्दों से है जो उनके लिए संज्ञाएं बनी और बाद में विस्तारित होकर अनेक रूपों में परिवर्तित हुई । भाषा शास्त्रियों का अनुमान है कि शिशु की इन ध्वनियों का शब्दविशेष में रूपांतरण की प्रक्रिया लगभ्ग एक लाख वर्ष पहले विकसित होनी शुरू हुई । शिशु द्वारा अनायास इन वर्णों को उच्चारित कर लेने के कारण इन्हें सरलतम वर्ण कहा जाता है ।


प वर्ग के वर्णों के बाद उच्चारण की दृष्टि से सरलता क्रम में त वर्ग के वर्ण हैं। इसीलिए माता-पिता के लिए बने शब्दों में यही ध्वनियां अधिक प्रयुक्त हुई हैं । बच्चे की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे उनकी उच्चारण क्षमता बढ़ने लगती है और वे प और त वर्ग की महाप्राण ध्वनियों फ, भ, थ, ध को भी बोलने लगते हैं । भारतीय भाषाओं में परिवार के अन्य सदस्यों के लिए बनी संज्ञाओं में भी यही सारे वर्ण अधिक मिलते हैं, भाई से लेकर फूफा तक और भांजी से लेकर नानी तक। बच्चों की ध्वनि ताता से प्रेरित हो कर संस्कृत का तात और हिंदी का चाचा जैसे शब्द बने ।

4-5 वर्ष के जो बच्चे कठिन वर्णों को उच्चारित नहीं कर पाते वे इन्हीं सरल वर्णों के सहारे तुतलाते हैं । अनुमान किया जा सकता है कि मनुष्य ने जब वाचिक भाषा की शुरुआत की होगी तब ये शब्द उन शब्दों में शामिल रहे होंगे जो पहले-पहल अस्तित्व में आए।



-महेन्द्र वर्मा

वह जो जानता था अनंत को



(श्रीनिवास रामानुजन् की सौवीं पुण्यतिथि पर विशेष)






प्रतिभा और योग्यता प्रायः विषम परिथितियों में ही विकसित होती हैं । रामानुजन् हजारों सूत्रों, सिद्धांतों और विवरणों एक ऐसा खजाना छोड़ गए हैं जो दुनिया के सबसे बड़े हीरे से भी ज्यादा मूल्यवान है ।’’ यह विचार अमेरिका के इमोरी विश्वविद्यालय के जापानी मूल के प्रोफेसर केन ओनो ने एक साक्षात्कार में  प्रसिद्ध भारतीय़ गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् के संबंध में व्यक्त किया था । गणित की दुनिया में भारत का नाम प्रतिष्ठित करने वाले रामानुजन् की पारिवारिक पृष्ठभूमि हर प्रकार से साधारण थी किंतु उसकी जन्मजात गणितीय प्रतिभा विलक्षण थी । 

गणित के संदर्भ में वे स्वशिक्षित थे । जब वे 12 वर्ष के थे एस.एल.लोनी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘त्रिकोणमिति’ के अतिरिक्त उच्च गणित की कुछ और पुस्तकों को पढ़ कर उसके सारे प्रश्नों को हल कर लिया था और स्वयं नए गणितीय सूत्रों की रचना शुरू कर दी थी । वे स्लेट पर प्रश्न हल करते । स्लेट में लिखे हुए को बार-बार साफ करने के कारण उनकी कुहनी खुरदुरी और काली हो गई थी । गणितज्ञ कार की पुस्तक ‘सिनाप्सिस ऑफ प्योर मैथमेटिक्स’ ने रामानुजन् की शक्तियों को और सुदृढ़ किया जो उसे कुंभकोनम के महाविद्यालय से मिली थी ।

रामानुजन् की रुचि गणित के अलावा किसी अन्य विषय में नहीं थी । इसी कारण वे 12वीं की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। फलस्वरूप उन्हें विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिला । वे चाहते थे कि उनके गणितीय कार्यों के आधार पर उन्हें कोई छोटी-सी नौकरी दिला दे । इसी उद्देश्य से रामानुजन् ने अपने सूत्रों को सबसे पहले 1910 में वी. रामास्वामी अय्यर को दिखाया जो ‘इंडियन मैथमेटिकल सोसायटी’ के संस्थापक थे । उसके बाद वे पी.वी. शेषु अय्यर, नेल्लोर के कलेक्टर दीवान बहादुर आर. रामचंद्र राव, मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष सर फ्रांसिस स्प्रिंग और मि. ग्रिफिथ, भारत की वेधशालाओं के निदेशक डॉ. जी.टी. वाकर आदि से मिले । इन्होंने रामानुजन् के कार्यों की सराहना की लेकिन उन्हें केवल क्लर्क की नौकरी ही मिल सकी। 1903 से 1914 के मध्य कैम्ब्रिज जाने से पहले तक दो रजिस्टरों के 400 पृष्ठों में वे अपने सूत्रों और सिद्धांतों के बारे में लिख चुके थे । उनका प्रथम शोध पत्र ‘जर्नल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसायटी’ में 1911 में प्रकाशित हुआ था । रामानुजन् को सुझाव दिया गया कि उन्हें इंग्लैंड जाना चाहिए क्योंकि उनके गणित को इंग्लैंड के गणितज्ञ ही महत्व दे सकते हैं ।


मित्रों के कहने पर रामानुजन् ने कैम्ब्रिज के प्रोफेसर जी.एच. हार्डी को पत्र लिखा । पहले दो पत्रों का कोई उत्तर नहीं मिला। 16 जनवरी, 1913 को लिखे गए तीसरे पत्र के बाद हार्डी ने रामानुजन् को कैम्ब्रिज आमंत्रित किया किंतु परिवार और बिरादरी वालों ने उनके समुद्र यात्रा करने पर आपत्ति व्यक्त की और जाति से बहिष्कृत करने की धमकी दी। 1914 में कैम्ब्रिज के गणित के प्राध्यापक ई.एच. नेबिल भारत आए । डॉ. हार्डी ने नेबिल को कह दिया था कि वे रामानुजन् से मिलें और उन्हें अपने साथ कैम्ब्रिज ले आएं । नेविल ने मद्रास वि.वि. के अधिकारियों को रामानुजन् को छात्रवृत्ति देने हेतु एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘‘श्री रामानुजन् की प्रतिभा का संसार के समक्ष उद्घाटन गणित संसार में हम लोगों के समय की सर्वोकृष्ट घटना होगी । उनका नाम भी गणित के इतिहास में महान और सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञों में लिखा जाएगा ।’’ तब वि.वि. ने रामानुजन् को वार्षिक छात्रवृत्ति स्वीकृत की । उसी राशि को लेकर 26 वर्षीय रामानुजन्  मि. नेविल के साथ 17 मार्च, 1914 को लंदन के लिए रवाना हुए ।

यहाँ से रामानुजन् के जीवन में एक नए युग का आरंभ हुआ और इसमें डॉ. हार्डी की बड़ी भूमिका थी । उनके गणितीय शोध से इंग्लैंड के गणितज्ञ बहुत प्रभावित हुए । वे 6 वर्ष वहाँ रहे । इस अवधि में रामानुजन् ने हार्डी के साथ मिलकर 21 शोधपत्र प्रकाशित किए । जी. एच. हार्डी ने लिखा  हैं- ‘‘यह अत्यंत विस्मयजनक प्रतीत होता है कि श्रीनिवास रामानुजन् ने इतनी छोटी अवस्था में इतने महत्वपूर्ण और कठिन प्रश्नों को सिद्ध कर दिया है । इन्हीं प्रश्नों को हल करने में यूरोप के बड़े से बड़े गणितज्ञों को सौ वर्ष से अधिक लग गए और उनमें से बहुत से तो आज भी हल नहीं किए जा सके हैं । मैं उनके जैसे किसी और गणितज्ञ से नहीं मिला हूं, रामानुजन् की तुलना केवल जैकोबी या आयलर से की जा सकती है ।’’

जून, 1914 में उनको कैम्ब्रिज में अध्ययन हेतु प्रवेश दिया गया था । 16 मार्च, 1916 को उनके द्वारा किए गए एक विशेष शोधकार्य के आधार पर उन्हें बी.ए. की उपाधि प्रदान की गई । 28 फरवरी, 1918 को ‘रायल सोसायटी’ के सदस्य नामित किए गए । रायल सोसायटी के पूरे इतिहास में  इतने कम उम्र का कोई सदस्य नहीं हुआ । इसके बाद 2 मई, 1918 को ट्रिनिटी कालेज का सदस्य बनने वाले वे पहले भारतीय बने । उन्हें 6 वर्षों के लिए 250 पाउंड वार्षिक की फेलोशिप राशि प्रदान की गई जिसका लाभ लेना उनके भाग्य में नहीं था । अस्वस्थ होने के कारण 27 मार्च, 1919 को वे भारत वापस आ गए । रामानुजन् के भारत लौटने पर प्रो. हार्डी ने कहा था- ‘‘रामानुजन् इतने महान और प्रतिष्ठित गणितज्ञ हो कर भारत लौटेंगे जितना आज तक कोई भारतीय नहीं हुआ । मुझे आशा है कि भारत इन्हें अपनी अमूल्य संपत्ति समझ कर इनका उचित सम्मान करेगा ।’’ उनके लिए मद्रास वि. वि. में प्राचार्य का विशेष पद सृजित किया गया किंतु अधिक समय तक इस पद पर कार्य नहीं कर सके । उनका रोग असाध्य हो चुका था । 26 अप्रेल, 1920 को लगभग 4 हजार गणितीय सूत्रों के रूप में अपनी बौद्धिक संपत्ति छोड़ कर अनंत को जानने वाला रामानुजन् स्वयं अनंत की ओर चले गए । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ ने उनके निधन पर जो लेख प्रकाशित किया था, उस का यह अंश रामानुजन् के कार्यों की श्रेष्ठता को व्यक्त करता है- ‘‘इस समय से 20 वर्ष पश्चात जब रामानुजन् के कार्यों पर शोध कार्य पूरे हो जाएंगे तब उनका कार्य आज की अपेक्षा और अधिक महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक प्रतीत होगा ।’’

रामानुजन् का कार्य  क्षेत्र मूल रूप से शुद्ध गणित था । संख्या सिद्धांत और अनंत श्रेणियों पर उन्होंने अति महत्वपूर्ण और मौलिक सूत्र प्रस्तुत किए । उनके द्वारा संख्या 1729 के कुछ विशिष्ट गुण बताए जाने के कारण इसे ‘रामानुजन् संख्या’ कहा जाता है । रामानुजन् ने संख्या 139 का एक जादुई वर्ग बनाया जिसमें उनकी जन्म तिथि की संख्याएं 22,12,18 और 87 का प्रयोग किया गया था। उन्होंने जादुई वर्गों को हल करने का एक सूत्र भी बनाया ।


रामानुजन् के अधिकांश प्रमेय उच्च गणित से संबंधित हैं जो आज कम्प्यूटर विज्ञान, इंजीनियरिंग, भौतिकी और गणित के विविध क्षेत्रों में उपयोगी हैं । अमेरिका के इमोरी वि.वि. के प्रोफेसर केन ओनो कहते है- ‘‘ब्लैक होल संबंधी एक समस्या को हमने रामानुजन् के अंतिम दिनों के सूत्रों से ही हल किया जबकि 1920 में ब्लैक होल के बारे में वैज्ञानिकों को कोई जानकारी नहीं थी ।’’ प्रकृति के गुणों और रहस्यों को समझने में गणित की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । रामानुजन् के निधन के बाद से ही उनके कार्यों का गणितज्ञों द्वारा निरंतर विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है । उनके कुछ अनुमानों और कथनों ने अध्ययन के नए क्षेत्रों का सृजन किया है । दुनिया भर के गणितज्ञ और वैज्ञानिक 100 सालों के बाद भी उनके कार्यों पर शोध कर रहे हैं । गणितज्ञ फ्रीमैन डायसन ने ठीक ही कहा था- ‘‘रामानुजन् के उद्यान से जो बीज हवा में बिखरे हैं वे अब पूरी दुनिया में अंकुरित होने लगे हैं ।’’


उनके सभी प्रकाशित 21 शोध पत्रों का संग्रह 355 पृष्ठों के ग्रंथ के रूप में उनके निधन के 7 साल बाद 1927 में ‘द कलेक्टेड पेपर्स’ नाम से कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ । उन्होंने अपने जीवन काल में गणित के 3884 प्रमेयों का सृजन किया । 1985 में उनके मूल नोट बुक्स ‘रामानुजन् नोट बुक्स’ शीर्षक से 5 खंडों में प्रकाशित हुआ । उनका एक पुराना रजिस्टर जिसमें वे प्रमेयों और सूत्रों को लिखा करते थे, 1976 में अचानक ट्रिनिटी कालेज के पुस्तकालय में मिला जिसे रामानुजन् की ‘द लॉस्ट बुक’  के नाम से जाना गया । यह पुस्तक उनकी जन्म शताब्दी वर्ष 1987 में प्रकाशित हुआ । रामानुजन् के हस्तलिखित 3 नोटबुक मद्रास वि.वि. के पुस्तकालय में हैं । उनके द्वारा लिखे गए कुछ पत्र राष्ट्रीय अभिलेखागार में है और कुछ अन्य दस्तावेज कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज के पुस्तकालय में है ।

रामानुजन् की जीवनी से संबंधित पुस्तकों में राबर्ट कैनिगेल लिखित ‘द मैन हू नो इन्फिनिटी’, ‘द इंडियन क्लर्क’ और ‘द फर्स्ट वन’ प्रमुख हैं । उनके नाम पर 3 जर्नल भी प्रकाशित हो रहे हैं ।
विदेशों में उन पर बहुत से नाटक भी मंचित हुए हैं जिनमें ‘द ओपेरा-रामानुजन्, पार्टीशन’, ‘फर्स्ट क्लास मैन’ और ‘ए डिस्अपीयरिंग नंबर’ उल्लेखनीय हैं । उनके जीवन पर देश-विदेश में कई डाक्यूमेंटरी फिल्में बनीं । दो फीचर फिल्में भी बनीं- 1914 में ‘रामानुजन’ और 2015 में ‘द मैन हू नो इन्फिनिटी’। भारत सरकार ने वर्ष 1962, 2011, 2012 और 2016 में रामानुजन् की स्मृति में डाक टिकिट जारी किए । उनकी 125 वीं जयंती पर वर्ष 2012 को ‘राष्ट्रीय गणित वर्ष’ घोषित किया गया था जबकि उनकी जन्मतिथि 22 दिसंबर  को ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ घोषित किया गया है । लेकिन अब समय है कि हम  प्रसिद्ध वैज्ञानिक पद्मविभूषण रोदम नरसिम्हा के इस गूढ़ कथन पर भी ध्यान दें- ‘‘भारतीय विश्वविद्यालयों में अभी भी रामानुजन् को प्रवेश नहीं मिला है !’’


एक महान बौद्धिक व्यक्तित्व होने के बावजूद रामानुजन् का स्वभाव अत्यंत सरल था । वे आस्तिक थे किंतु रूढ़ियों और कुरीतियों को स्वीकार नहीं करते थे । उनकी धारणा थी कि जात-पाँत और छुआछूत के नियम ईश्वरीय नहीं हैं और इनका पालन करना भी अनिवार्य नहीं है । रामानुजन् का जीवन अल्प समय का रहा, लगभग 33 वर्ष, किंतु उनकी कीर्ति दुनिया भर के गणितज्ञों और वैज्ञानिकों की स्मृति में चिरकाल तक स्पंदित होती रहेगी ।

-महेन्द्र वर्मा