गुरु तेग बहादुर

जगत में झूठी देखी प्रीत


सिक्ख धर्म के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर छठवें गुरु हरगोविंद जी के पुत्र थे। उनका जन्म 1 अप्रेल 1621 ई. को अमृतसर में हुआ था। पिता की देख-रेख में उन्हें अस्त्र-शस्त्र संचालन के साथ-साथ ज्ञान-ध्यान की भी शिक्षा मिली। दसवें गुरु गोविंद सिंह इन्हीं के पुत्र थे। आठवें गुरु हरिकृश्ण जी के ज्योतिर्लीन होने के बाद गुरु तेग बहादुर 43 वर्ष  की अवस्था में गुरुगद्दी पर विराजित हुए। उन्होंने विभिन्न धार्मिक स्थानों की यात्राएं की और आनंदपुर नामक नगर बसाया। औरंगजेब के अत्याचारों से सताए हुए कश्मीरी पंडितों ने यहीं आकर उनसे धर्म की रक्षा की याचना की थी। 1665 ई. में वे धर्म प्रचार और तीर्थ यात्रा पर निकले। 
औरंगजेब कश्मीरी हिंदुओं को बलात् मुसलमान बनाने लगा था। गुरु तेग बहादुर ने इसका विरोध किया तो औरंगजेब ने उन्हें  और उनके शिष्यों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। गुरु तेग बहादुर  धर्म परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए और अपने शिष्यों के साथ 1675 ई. में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। जिस स्थान पर गुरु तेगबहादुर ने अपना बलिदान दिया वह स्थान अब शीशगंज गुरुद्वारा के नाम से प्रसिद्ध है। जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ, वह गुरुद्वारा रकाबगंज है।
गुरु तेगबहादुर का हृदय कोमल व क्षमाशील था। उन्होंने बहुत से पदों एवं साखियों की रचना की थी जो आदिग्रंथ में महला 9 के अंतर्गत संग्रहीत हैं। उनके प्रत्येक पद में उनकी रहनी की स्पष्ट छाप लक्षित होती है और उनके शब्द गहरी अनुभूति के रंग में रंगे हुए हैं। उनकी रचनाओं में पंजाबी की अपेक्षा ब्रज भाषा का अधिक प्रयोग हुआ है। उनकी बहुत सी रचनाओं के अंत में ‘नानक‘ शब्द का प्रयोग होने के कारण भ्रमवश उन्हें गुरु नानक देव की रचनाएं समझ ली जाती हैं।
प्रस्तुत है गुरु तेग बहादुर जी का एक प्रसिद्ध पद-


जगत में झूठी देखी प्रीति।
अपने सुख ही सों सब लागे, क्या दारा क्या मीत।
मेरो मेरो सबै कहत हैं, हित सों बांधेउ चीत।
अंत काल संगी नहिं कोउ, यह अचरज है रीत।
मन मूरख अजहूं नहिं समझत, सिख दे हारेउ नीत।
नानक भव जल पार परै जब, गावै प्रभु के गीत।