नाकामी को ढंकते क्यूं हो,
नए बहाने गढ़ते क्यूं हो ?
रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?
तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ?
भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?
पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?
कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?
नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?
-महेन्द्र वर्मा