हिंदयुग्म का वार्षिकोत्सव



कल 5 मार्च, 2011 को नई दिल्ली के राजेन्द्र भवन ट्रस्ट सभागार में हिंदयुग्म का वार्षिक सम्मान समारोह आयोजित हुआ। इस आयोजन में 12 यूनिकवियों को सम्मानित किया गया। सम्मानित होने वाले कवियों की सूची में एक नाम मेरा भी था। यह आप सब की शुभकामनाओं का असर है...।
अस्वस्थता के कारण मैं इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सका।
बहरहाल मैं उस ग़ज़ल को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं जो हिंदयुग्म की सितम्बर  2010 की प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर चयनित हुई थी।

आपकी दीवानगी बिल्कुल लगे मेरी तरह,
ये अचानक आप कैसे हो गए मेरी तरह।


इक अकेला मैं नहीं कुछ और भी हैं शहर में, 
जेब में रक्खे हुए दो  चेहरे मेरी तरह।


भीड़ से पूछा किसी ने किस तरह हो आदमी,
हो गई मुश्किल कि सारे कह उठे मेरी तरह।


लोग जो सब जानने का कर रहे दावा मगर,
दरहक़ीकत वे नहीं कुछ जानते मेरी तरह।


किस लिए   यूं  आह के पैबंद टांके जा रहे,
क्या जिगर में छेद हैं अहसास के मेरी तरह।


ख़ुदपरस्ती के अंधेरे में भला कैसे जिएं,
देख जैसे जल रहे हैं ये दिये मेरी तरह।


मजहबी धागे उलझते जा रहे थे और वे,
नोक से तलवार की सुलझा रहे मेरी तरह।

                                                                       -महेन्द्र वर्मा

ग़ज़ल



अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।


दरवाजे  पर  देख  मुझे  मायूस हुए वो, 
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


बहुत  दिनों  के  बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।


यादों का इक रेला मन को तरल कर गया, 
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।


दोस्त  हमारे  कतरा  कर  यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।


जब दीवारें  अपनेपन  के  बीच  खड़ी हों, 
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप  का  टुकड़ा  उतरा  देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा

उतना ही सबको मिलना है



ग़ज़ल

उतना ही सबको मिलना है,
जिसके हिस्से में जितना है।


क्यूं ईमान सजा कर रक्खा,
उसको तो यूं ही लुटना है।


ढोते रहें सलीबें अपनी, 
जिनको सूली पर चढ़ना है।


मुड़ कर नहीं देखता कोई, 
व्यर्थ किसी से कुछ कहना है।


जंग आज की जीत चुका हूं,
कल जीवन से फिर लड़ना है।


सूरज हूं जलता रहता हूं,
दुनिया को ज़िंदा रखना है।


बोल सभी लेते हैं लेकिन,
किसने सीखा चुप रहना है।

                                              -महेन्द्र वर्मा