किसी ने हंसाया रुलाया किसी ने।


सरे बज़्म जी भर सताया किसी ने,
मेरा कर्ज सारा चुकाया किसी ने।


थकी ज़िंदगी थी सतह झील की सी,
तभी एक पत्थर गिराया किसी ने।


सुकूने-जिगर यक-ब-यक खो गया है,
या वक़्ते- फ़रागत चुराया किसी ने।


मिले नामवर हमनफ़स ज़िंदगी में,
किसी ने हंसाया रुलाया किसी ने।


वो मासूम सा ग़मज़दा लग रहा था,
कि जैसे उसे आजमाया किसी ने।


कोई कह रहा था कि इंसानियत हूं,
मगर नाम उसका मिटाया किसी ने।


दीवानगी बेतरह बढ़ चली जब,
मेरा हाल मुझको सुनाया किसी ने।

बज़्म- महफिल
वक़्ते फ़रागत- आराम का समय
नामवर- प्रसिद्ध
हमनफ़स- साथी

                                                  -महेन्द्र वर्मा

चकित हुआ हूं


तिक्त हुए संबंध सभी मैं 
व्यथित हुआ हूं,
नियति रूठ कर चली गई या,
भ्रमित हुआ हूं।
दुर्दिन में भी बांह छुड़ा कर 
चल दे ऐसे,
मित्रों के अपकार भार से 
नमित हुआ हूं।
क्षुद्रकाय तृण का बिखरा 
साम्राज्य धरा पर,
पतझड़ में भी हरा-भरा क्यों
चकित हुआ हूं।
अनुशीलन कर ग्रंथ सहस्त्रों
ज्ञात हुआ तब,
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, कौशल से
रहित हुआ हूं।

                                         -महेन्द्र वर्मा

मानवता


ढूंढूं कहां, कहां खो जाती मानवता,
अभी यहीं थी बैठी रोती मानवता।


रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।


मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।


दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।


है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।


सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।


उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।

                                                            -महेन्द्र वर्मा