क्षणिकाएँ


1.
हम तो  
अक्षर हैं
निर्गुण-निरर्थक
तुम्हारी जिह्वा के खिलौने
अब 
यह तुम पर है कि
तुम हमसे
गालियाँ बनाओ
या
गीत




2.
मैंने तो 
सबको दिया
वही धरा
वही गगन
वही जल-अगन-पवन
अब तुम 
चाहे जिस तरह जियो
बुद्ध की तरह
या
बुद्धू की तरह

                                                    -महेन्द्र वर्मा

संत दीन दरवेश


सूफी संत दीन दरवेश के जन्मकाल के संबंध में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती। एक मत के अनुसार इनका जन्म विक्रम संवत 1810 में उदयपुर के निकट गुड़वी या कैलाशपुरी नामक ग्राम में हुआ था। दूसरे मत के अनुसार इनका जन्म गुजरात के डभोड़ा नामक ग्राम में वि.सं. 1867 में हुआ था।
अपने गुरु अतीत बालनाथ से दीक्षित होने के पूर्व ये अनेक हिंदू तथा मुस्लिम विद्वानों से मिल चुके थे और प्रसिद्ध तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुके थे। यही कारण है कि इनके काव्य में सूफीवाद तथा वेदांत दर्शन के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायों की विचारधारा का प्रभाव परिलक्षित होता है।
कहते हैं कि दीन दरवेश ने अपने हृदय के पावन उद्गारों को व्यक्त करते हुए सवा लाख कुंडलियों की रचना कर ली थी किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ अप्राप्य हैं। इनकी कुंडलियों का एक लघु संग्रह वि.सं. 2008 में गुजराती लिपि में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ था। इनके काव्य के प्रमुख विषय माया, ईश्वर प्रेम, सहज जीवन, विश्वप्रेम, परोपकार आदि हैं।
संवत 1910 में चंबल नदी में स्नान करते समय डूब जाने से इनका देहावसान हुआ था।

प्रस्तुत है, संत दीन दरवेश की 3 कुंडलियां-

1.
माया माया करत है, खाया खर्च्या नाहिं,
आया जैसा जाएगा, ज्यूँ बादल की छाँहिं।
ज्यूँ बादल की छाँहि, जायगा आया जैसा,
जान्या नहिं जगदीस, प्रीत कर जोड़ा पैसा।
कहत दीन दरवेश, नहीं है अम्मर काया।
खाया खर्च्या नाहिं, करत है माया माया।


2.
बंदा कहता मैं करूँ, करणहार करतार,
तेरा कहा सो होय नहिं, होसी होवणहार।
होसी होवणहार, बोझ नर बृथा उठावे,
जो बिधि लिखा लिलार, तुरत वैसा फल पावे।
कहत दीन दरवेश, हुकुम से पान हलंदा,
करणहार करतार, तुसी क्या करसी बंदा।


3.
सुंदर काया छीन की, मानो क्षणभंगूर,
देखत ही उड़ जायगा, ज्यूँ उडि़ जात कपूर।
ज्यूँ उडि़ जात कपूर, यही तन दुर्लभ जाना,
मुक्ति पदारथ काज, देव नरतनहिं बखाना।
कहत दीन दरवेश, संत दरस जिन पाया,
क्षणभंगुर संसार, सुफल भइ सुंदर काया।

गीतिका : दिन



सूरज का हरकारा दिन,
फिरता मारा-मारा दिन।


कहा सुबह ने हँस लो थोड़ा, 
फिर रोना है सारा दिन।


जिनकी किस्मत में अँधियारा,
तब क्या बने सहारा दिन।


इतराता आया पर लौटा, 
थका-थका सा हारा दिन।


रात-रात भर गायब रहता,
जाने कहाँ कुँवारा दिन।


मेरे ग़म को वह क्या समझे,
तारों का हत्यारा दिन।

                                                -महेन्द्र वर्मा