दो कविताएँ


1.
मैं ही
सही हूँ
शेष सब गलत हैं
ऐसा तो
सभी सोचते हैं
लेकिन ऐसा सोचने वाले
कुछ लोग
अनुभव करते हैं
अतिशय दुख का
क्योंकि
शेष सब लोग
लगे हुए हैं
सही को गलत
और गलत को सही
सिद्ध करने में

2.
मुझे
एक अजीब-सा
सपना आया
मैंने देखा
एक जगह
भ्रष्टाचार की
चिता जल रही थी
लोग खुश थे
हँस-गा रहे थे
अमीर-गरीब
गले मिल रहे थे
सभी एक-दूसरे से
राम-राम कह रहे थे
बगल में
छुरी भी नहीं थी

सपने
सच हों या न हों
पर कितने अजीब होते हैं
है न ?



                                                        -महेन्द्र वर्मा

सूरज: सात दोहे



सूरज सोया रात भर, सुबह गया वह जाग,
बस्ती-बस्ती घूमकर, घर-घर बाँटे आग।

भरी दुपहरी सूर्य ने, खेला ऐसा दाँव,
पानी प्यासा हो गया, बरगद माँगे छाँव।

सूरज बोला  सुन जरा, धरती मेरी बात,
मैं ना उगलूँ आग तो, ना होगी बरसात।

सूरज है मुखिया भला, वही कमाता रोज,
जल-थल-नभचर पालता, देता उनको ओज।

पेड़ बाँटते छाँव हैं, सूरज बाँटे धूप,
धूप-छाँव का खेल ही, जीवन का है रूप।

धरती-सूरज-आसमाँ, सब करते उपकार,
मानव तू बतला भला, क्यों करता अपकार।

जल-जल कर देता सदा, सबके मुँह में कौर,
बिन मेरे जल भी नहीं, मत जल मुझसे और।

                                                                                 -महेन्द्र वर्मा

हर तरफ


वायदों की बड़ी बोलियाँ हर तरफ,
भीड़ में बज रही तालियाँ हर तरफ।

गौरैयों की चीं-चीं कहीं खो गई,
घोसलों में जहर थैलियाँ हर तरफ।

वो गया था अमन बाँटने शहर में,
पर मिलीं ढेर-सी गालियाँ हर तरफ।

भूख से मर रहे हैं मगर फिंक रहीं
व्यंजनों से भरी थालियाँ हर तरफ।

मन का पंछी उड़े 
भी तो कैसे उड़े,
बाँधता है कोई जालियाँ हर तरफ।

एक ही पेड़ से सब उगी हैं मगर,
द्वेष की फैलती डालियाँ हर तरफ।

विचारों की आँधी करो कुछ जतन,
गिरे क्रांति की बिजलियाँ हर तरफ।

                                                                -महेन्द्र वर्मा