धर्म और विज्ञान



प्रकृति ने मनुष्य को स्वाभाविक रूप से तार्किक बुद्धि प्रदान की है । मनुष्य की यह क्षमता लाखों वर्षों की विकास यात्रा के दौरान विकसित हुई है । लेकिन सभी मनुष्यों में तर्कबुद्धि समान नहीं होती । जिनके पास इसकी कमी थी स्वाभाविक रूप से उनमें आस्थाबुद्धि विकसित हो गई ।

तर्कशील ने विज्ञान को अपनाया और आस्थावान ने धर्म को ।

विज्ञान प्रकृति की विशेषताओं का अध्ययन-मनन करता है, उस प्रकृति का जो स्वयंभू है, उन विशेषताओं का जो शाश्वत यथार्थ हैं । धर्म मनुष्य की मनोजन्य अवधारणाओं का चिंतन-मनन करता है , उन अवधारणाओं का जिसे न तो सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्ध।

पृथ्वी पर जब मनुष्य नहीं थे तब भी प्रकृति ऐसी ही थी, उसकी विशेषताएं ऐसी ही थीं, तब भी तारों में हाइड्रोजन का विखंडन होता था, पिंडों में गुरुत्वाकर्षण था, पेड़-पौधे ऑक्सीजन छोड़ते थे, यानी विज्ञान तो था लेकिन तब धर्म नहीं था । धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण नहीं है ।

धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण भले नहीं है लेकिन धर्म के प्रारंभिक रूप मे प्रकृति की ही पूजा की जाती थी । धर्म का यह स्वरूप तार्किक रूप से भी यथेष्ट था किंतु बाद में कल्पनाजन्य विरूपित तर्क वाले लोगों ने धर्म की दिशा ही बदल दी । विज्ञान का प्रारंभिक रूप जैसा था वैसा ही आज भी है । लाखों वर्ष पहले आदिम मनुष्य ने जिस तरीके से पहली बार आग जलाई थी उसी तरीके से सामान्यतः आज भी जलाई जाती है- घर्षण से ।

विज्ञान एक है, धर्म अनेक । इस समय दुनिया में कबीलाई धर्मों सहित लगभग आठ हज़ार प्रकार के छोटे-बड़े धर्म प्रचलित हैं । यानी, आठ हज़ार परमात्मा हैं । उनके मानने वाले कहते हैं- हमारा परमात्मा ही सत्य है, औरों का नहीं । सभी आठ हजार परमात्माएं एक साथ सही भी और ग़लत भी कैसे हो सकते हैं ?

विज्ञान में संप्रदाय नहीं होते जबकि एक ही धर्म अनेक संप्रदायों में विभाजित है । विज्ञान एक विशाल वृक्ष की तरह है जिसकी अनेक शाखाएं हैं लेकिन तना एक ही है- तर्क । धर्म के अलग-अलग हज़ारों  वृक्ष हैं जिनकी शाखाएं कभी-कभी टूट कर अलग वृक्ष भी खड़ा कर लेती हैं- निजार्थ की आस्था ।

धर्म को यह कहने की ज़रूरत होती है- ‘मन को एकाग्र करो, ध्यान करो, ‘सत्य’ का दर्शन होगा’ । ऐसा इसलिए क्योंकि अनुयायी का मन एकाग्र नहीं होता । लेकिन प्रकृति के गुणों पर शोध करने वाले विज्ञानी को मन को एकाग्र करने का ज़रा भी प्रयास करना नहीं पड़ता । वह स्वभाव से ही एकाग्रचित्त होता है और इसीलिए वह प्रकृति के किसी सत्य का ‘दर्शन’ कर लेता है, भले ही लक्ष्यप्राप्ति में उसे वर्षों लग जाएं किंतु उसका ध्यान विचलित नहीं होता ।

कहा जाता है कि हर धर्म का लक्ष्य मानव और मानवता का कल्याण है । धर्म द्धारा किए गए मानव कल्याण की बातें किस्से-कहानियों में भले हों, यथार्थ जीवन में कोई उदाहरण नहीं मिलता । किंतु विज्ञान ने वास्तव में कल्याण किया है । आज से 70-80 साल पहले तक दुनिया भर के लाखों लोग चेचक के कारण मारे जाते थे । तब इसे दैवी आपदा माना जाता था । विज्ञान ने पूरी पृथ्वी से चेचक का उन्मूलन कर मानवता का हित किया ।

धर्म द्वारा प्रतिवर्ष लाखों लीटर दूध और रक्त अर्पित करने के बावजूद मानवता आज भी संकट में है । विज्ञान ने केवल ‘दो बूंद’ से करोड़ों लोगों को निःशक्त होने से बचा लिया ।

विज्ञान जो बातें बताता है, पूरी दुनिया उसे उसी रूप में अपना लेती है, अपने ढंग से अर्थ में परिवर्तन नहीं करता । जैसे, जब विज्ञान कहता है कि समान ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति आवश्यकता होने पर रक्त का परस्पर आदान-प्रदान कर सकते हैं, तो हर देश, हर जाति, हर धर्म के लोग इसे स्वीकार करते हैं, यह नहीं कहते कि मुझे अपने ही धर्म, जाति या वर्ण के व्यक्ति का रक्त चाहिए । धर्म  की  मान्यताओं  की  स्वीकार्यता  ऐसी  नहीं  होती ।

धर्म की बातों का अर्थ व्यक्तिनिष्ठ होता है, इसीलिए एक ही बात के कई अर्थ लगाए जाते हैं, अलग-अलग व्याख्या की जाती है, जबकि विज्ञान की बातों का अर्थ वस्तुनिष्ठ होता है, उनका अर्थ देश, जाति या धर्म के अनुसार नहीं बदलता ।

घर्मान्धता, धार्मिक कट्टरता, धर्मभीरु, धार्मिक पाखंड, धर्मिक उन्माद जैसे शब्द धर्म से ही निकले हैं । विज्ञान की दुनिया में ऐसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं है । किसी  विज्ञानवेत्ता को कट्टर वैज्ञानिक या विज्ञानांध नहीं कहा जाता ।

धर्म अपनी बात मनवाने के लिए आक्रामक भी हो जाता है औ कभी अपनी बात को मान्यता दिलाने के लिए विज्ञान से गवाही भी दिलवाता है । विज्ञान को इसकी आवश्यकता नहीं ।

धर्म कहता है, मैंने सब कुछ जान लिया है विज्ञान कहता है, मैं अभी बहुत कम जान पाया हूं । वह सदैव जिज्ञासु होता है । विज्ञान अहंकार नहीं करता । 

धर्म ‘हारे को हरिनाम’ है, विज्ञान ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ है ।

किसी धर्म के सौ-हज़ार पन्नों के ग्रंथ से बहुत अधिक विराट है प्रकृति का ग्रंथ जिसे प्रकृति ने स्वयं लिखा है, विज्ञान इसे ही पढ़ता और समझता है ।

-महेन्द्र वर्मा







भविष्य के संकटों का तारणहार विज्ञान ही है



दुनिया भर के वैज्ञानिक बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि निकट भविष्य में पृथ्वी पर जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं- शुद्ध वायु, जल और भोजन के अभाव का संकट अवश्यंभावी है । कुछ देशों में इनका अभाव अभी से दिखाई दे रहा है । प्रकृति ने इन बुनियादी आवश्यकताओं की सतत उपलब्धता के लिए स्वचालित व्यवस्था की थी किंतु मनुष्य ने स्वार्थवश इस व्यवस्था को विकृत किया । प्राकृतिक व्यवस्था के विकृतीकरण को नियंत्रित रखने का काम राजनीतिक सत्ता का है किंतु वे इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दे रहे, उल्टे वे वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग कर रहे हैं ।

विज्ञान मनुष्य की इस दुश्चेष्टा पर नियंत्रण तो नहीं कर सकता किंतु वह भविष्य के इस संकट से उबरने का उपाय अवश्य खोज सकता है । इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थाओं को पर्याप्त धन और कार्य करने की स्वतंत्रता चाहिए । साथ ही जन-मानस में विज्ञान के प्रति रुचि और विश्वास जगाने के लिए विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है । समस्या यह है कि दुनिया भर की सरकारें वैज्ञानिक शोध संस्थाओं  और उच्च शिक्षा संस्थाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता और अवसर उपलब्ध नहीं करा रहे हैं ।

इन्हीं समस्याओं के प्रति सत्ता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 2017 में भारत सहित दुनिया भर के एक लाख से अधिक वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, शिक्षकों, वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं, और वैज्ञानिक सोच के समर्थकों ने विज्ञान और वैज्ञानिक   दृष्टिकोण की रक्षा के लिए दुनिया भर में 600 से अधिक शहरों में ‘मार्च फॉर साइंस’ जैसा महत्वपूर्ण आयोजन किया । अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह प्रयास इसलिए शुरू किया क्योंकि उनकी सरकार वैज्ञानिक साक्ष्यों की अनदेखी कर पेरिस समझौते से हटने वाली थी । अधिकांश देशों के वैज्ञानिकों की प्रतिक्रिया ने संकेत दिया कि लगभग हर जगह विज्ञान पर हमला हो रहा है । राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी करने वाली नीतियां बनाई जा रही हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं ।

‘मार्च फॉर साइंस’ का आयोजन पूरी दुनिया में अब प्रतिवर्ष होता है। इस बार यह आयोजन 4 मई, 2019 को भारत सहित विश्व भर में सम्पन्न हुआ । भारत में आम चुनाव के कारण विभिन्न संस्थाओं के वैज्ञानिकों को ‘मार्च फॉर साइंस’ की अनुमति नहीं मिली इसलिए मार्च में भाग लेने के बजाय भारत भर के वैज्ञानिकों ने विभिन्न शहरों में सेमिनार और सम्मेलन आयोजित किए।  वैज्ञानिकों ने 9 अगस्त को एक भारतीय मार्च आयोजित करने की योजना बनाई है। पूरे राष्ट्र में आयोजित सम्मेलनों और सेमिनारों में भाग लेने वाले वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा कि विज्ञान एक सशक्त और उन्नत समाज का आधार है। हाल के वर्षों में सरकार वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं दिखा रही है और पृथ्वी की चिंताजनक स्थिति के संबंध में तैयार किए गए वैज्ञानिक आंकड़ों की अनदेखी कर रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के देश औसत रूप से शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% से अधिक और वैज्ञानिक अनुसंधान पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3 % खर्च करते हैं । भारत में ये आंकडे़ क्रमश 3 % और 0.85% हैं । नतीजतन, देश की आबादी का एक बड़ा तबका आजादी के 72 साल बाद भी अनपढ़ या अर्धसाक्षर बना हुआ है । हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय बुनियादी ढांचे, शिक्षण और गैरशिक्षण कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं । अनुसंधान करने के लिए  सीएसआईआर और डीएसटी जैसी विज्ञान फंडिंग एजेंसियां तीव्र आर्थिक संकट से जूझ रही हैं । वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि शिक्षा पर जी.डी.पी. का 10 % और वैज्ञानिक शोधों के लिए 3 % राशि का प्रावधान रखा जाना चाहिए ।

उन्होंने इस बात पर भी  चिंता व्यक्त की कि प्राकृतिक संसाधनों का ‘अधिक लाभ के लिए दोहन’ हानिकारक प्रवृत्ति है । ये संसाधन देश-राज्य-धरती  की जरूरतों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों से असंवैधानिक तथ्यों का विज्ञान के रूप में प्रचार किया गया जो वास्तविक विज्ञान को नुकसान पहुंचा रहा है। विज्ञान को कमजोर करने के लिए निरंतर कुप्रयास किए जा रहे हैं । मीडिया द्वारा अवैज्ञानिक विचारों और अंधविश्वासों को इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है कि लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं। मिथक, पौराणिक कथाएं और भारतीय संस्कृति के बारे में विचित्र तथ्य विज्ञान के रूप में प्रचारित कर देश की प्राचीन संस्कृति को ही विकृत किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति का विरोध करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क के अनुसार सभी नागरिकों का कर्तव्य है ।

केवल विज्ञान ही जानता और समझता है कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, किस तरह वह जीवित रहती है और कैसे उसकी मृत्यु हो सकती है । इसलिए विज्ञान को बचाएं, विज्ञान को समझें और पृथ्वी को सुरक्षित रखें । पृथ्वी सुरक्षित नहीं होगी तो कोई देश कैसे सुरक्षित रह सकता है ?

-महेन्द्र वर्मा

वैदिक गणित और विद्यालयीन पाठ्यक्रम

(मेरे पिछले पोस्ट का दूसरा भाग, पहला भाग यहां देखें)


दिसंबर 2016, संसद का शीतकालीन सत्र । सदन में भारत शासन से पूछे गए दो दो प्रश्न और संबंधित ‘मिनिस्टर’ द्वारा दिए गए उनके उत्तर-
प्र.1.  क्या यह सच है कि वैदिक गणित परंपरागत विधि से अधिक तीव्र गति से गणितीय प्रश्न हल करने में सक्षम है ?
उ. वैदिक गणित में शीघ्र हल करने के लिए कुछ विधियां दी गई हैं, किंतु ये विधियां गणित में सभी जगह लागू नहीं होतीं ।
पं. 2. क्या सरकार वैदिक गणित को विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में लागू करने के संबंध में विचार कर रही है ?
उ. सरकार इस तरह के किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही  है ।
.......................

इस तरह का प्रस्ताव एक न्यास द्वारा शासन के समक्ष प्रस्तुत किया गया था । एन.सी.ई.आर.टी. ने इस पर काम भी शुरू कर दिया था । यह न्यास  सन् 1992 से इस प्रयास में लगा था कि वैदिक गणित देश भर के स्कूलों में पढ़ाया जाए । इसी न्यास के प्रस्ताव पर कुछ राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में वैदिक गणित को सम्मिलित कर लिया गया है ।

उक्त प्रस्ताव को केन्द्र शासन निरस्त नहीं करता यदि देश के जागरूक वैज्ञानिक और गणितज्ञों ने इस की आलोचना नहीं की होती। इन सब का कहना है कि जिसे वैदिक गणित कहा जा रहा है वह गणित नहीं है बल्कि परंपरागत गणित के कुछ प्रारंभिक प्रश्नों के शीघ्र उत्तर बताने की मौखिक विधियां हैं । लेकिन सीखने वाले को यह नहीं बताया जाता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है जबकि गणित सीखने का अर्थ यह होता है कि उत्तर प्राप्त करने की प्रक्रिया में हर क्यों का जवाब भी मालूम हो ।

वैदिक गणित के संबंध में सबसे पहले प्राचीन भारतीय गणित और खगोल विज्ञान पर अनेक पुस्तकों के लेखक डॉ.के.एस.शुक्ल का एक आलोचनात्मक लेख Mathematical Education  पत्रिका के जनवरी 1989 अंक में Vedic Mathematics-The illusive title of Swamijis book शीर्षक से प्रकाशित हुआ । उनके अनुसार ‘वैदिक गणित’ शीर्षक भ्रम उत्पन्न करने वाला है क्योंकि इसकी विषय वस्तु वैदिक नहीं है ।

1993 से 2007 के मध्य टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के डॉ. एस.जी.दानी ने Vedic Mathematics-Myths and Reality सहित कई लेख लिखे ।  एक लेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘वैदिक गणित को पढ़ाए जाने से कहीं ऐसा न हो कि हमारे देश का बौद्धिक और शैक्षिक जीवन विकृत हो जाए, आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा और इतिहास की प्रवृत्ति ही दूषित हो जाए ।

प्रसिद्ध खगोलभौतिक विज्ञानी प्रो. जयंत विष्णु नारलीकर की एक पुस्तक 1993 में प्रकाशित हुई- The Scientific Edge । इस में भारत के पिछले 3000 वर्षों के विज्ञान और गणित के गौरवपूर्ण अतीत का विस्तृत वर्णन किया गया है ।  इस पुस्तक में उन्होंने आजकल प्रचलित वैदिक गणित के संबंध में भी विस्तार से लिखा है । प्रो.. नारलीकर इसे न तो वैदिक मानते हैं और न ही गणित । वे लिखते हैं- ‘‘वास्तविक गणित केवल संख्याओं का परिकलन नहीं है बल्कि तर्क और विचारों का परस्पर ऐसा  संबंध है जो सरल सिद्धांतों से प्रारंभ हो कर एक गहन निष्कर्ष तक पहुंचता है ।’’

यही कारण है कि बोधायन (ई.पू. 8वीं श.) द्वारा बताई गई समकोण त्रिभुज संबंधी विशेषता को ‘गणित’ नहीं माना गया क्योंकि उन्होंने इस की उपपत्ति नहीं दी और पायथेगोरस (ई.पू. 5वीं श.) को इसका श्रेय इसलिए दिया गया क्योंकि उसने उपपत्ति भी लिखी । प्रमेय का अर्थ ही है, ‘जिसे प्रमाणित किया जाए’ ।

बहुत से लोगों ने वैदिक गणित के समर्थन में कई लेख प्रकाशित करवाया है । इस पर प्रो. नारलीकर लिखते हैं-‘‘उन्हें गणित की समझ नहीं है । आगे वे एक महत्वपूर्ण बात लिखते हैं- ‘‘स्कूली पाठ्यक्रम में वैदिक गणित को सम्मिलित करना गणित के उस वास्तविक और सार्थक स्वरूप से ध्यान भटकाना होगा जिसे वास्तव में पढ़ाए जाने की आवश्यकता है ।’’

आई.आई.टी. चेन्नई में गणित की प्रोफेसर डॉ.(सुश्री) वसंत कांतसामी, जिनकी गणित पर 116 शोध-पुस्तकें लिखी हैं, ने वैदिक गणित पर शोध अध्ययन किया है । यह शोध 220 पृष्ठों के एक पुस्तक Vedic Mathematics -‘Vedic’ or‘Mathematics’:A Fuzzy & Neutrosophic Analysis  शीर्षक से 2006 में प्रकाशित हुई है। इन्होंने वैदिक गणित के संबंध में छात्रों, अध्यापकों, पालकों और उच्च शिक्षित व्यक्तियों के विचारों का एक नई गणितीय विधि से विश्लेषण किया है । इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने वैदिक गणित को स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन के लिए लाभदायक नहीं माना है ।

इनके अतिरिक्त और भी कई गणितज्ञों एवं वैज्ञानिकों ने वैदिक गणित को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के प्रयास की आलोचना की है । उनके अनुसार वैदिक गणित 
में केवल ‘शार्टकट्स’ हैं जो प्रारंभिक कक्षाओं के कुछ ही परिकलनों में लागू होते हैं । उच्च गणित में इनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है ।

 इन सब के बावज़ूद यह न्यायालय का प्रकरण बन गया ।

सुप्रीम कोर्ट में स्कूली पाट्यक्रम के संबंध में शासन के विरुद्ध एक अपील दर्ज की गई थी । इस प्रकरण के संदर्भ में कोर्ट द्वारा 12 सितंबर, 2002 को दिए गए निर्णय में यह तथ्य भी है- ‘‘वैदिक गणित को पाठ्यक्रम का भाग नहीं बनाया गया है बल्कि इसे गणना सहायक सामग्री के रूप में उपयोग करने हेतु सुझाव दिया गया है । गणित शिक्षण के दौरान शिक्षक इसका उपयोग करने अथवा न करने के लिए स्वतंत्र है ।’’

इसी संदर्भ में एन.सी.ई.आर.टी. में गणित विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हुकुम सिंह ने दिसंबर, 2016 में यह विचार व्यक्त किया था- ‘‘वैदिक गणित पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होना चाहिए, यह निर्णय प्रसिद्ध गणितज्ञों से प्राप्त सुझावों के आधार पर लिया गया था ।’’

उक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि विद्यालयों में वैदिक गणित नहीं पढ़ाया जाना चाहिए ।  कई राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में यह अभी भी सम्मिलित है, पढ़ाने की अनिवार्यता सहित ।

-महेन्द्र वर्मा