ग़ज़ल



अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।


दरवाजे  पर  देख  मुझे  मायूस हुए वो, 
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


बहुत  दिनों  के  बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।


यादों का इक रेला मन को तरल कर गया, 
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।


दोस्त  हमारे  कतरा  कर  यूं निकल गए,
मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का।


जब दीवारें  अपनेपन  के  बीच  खड़ी हों, 
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप  का  टुकड़ा  उतरा  देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा

35 comments:

Sunil Kumar said...

सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का
खुबसूरत गज़ल हर शेर दाद के क़ाबिल, मुबारक हो।

ashish said...

महेंद्र जी आप को पढ़ कर बहुत कुछ सिखने का अवसर मिलता है . मन आल्हादित हुआ .

ZEAL said...

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जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का..

When our own folk start behaving like strangers. It hurts ! But either of them has to break the ice .

All the couplets have beautifully defined the important aspects of life .

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Patali-The-Village said...

खुबसूरत गज़ल हर शेर दाद के क़ाबिल|धन्यवाद|

Atul Shrivastava said...

बेहतरीन गजल। हर शेर पर दिल में हलचल होने लगी।
महेन्‍द्र जी सच में आपके हर शेर में दम है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
बेहतरीन ..... खूबसूरत गज़ल

Sushil Bakliwal said...

गजलों में बहुत बढिया तालमेल "किसी और का".

Shikha Kaushik said...

बहुत अच्छी ग़ज़ल .बधाई .

vandana gupta said...

सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का

आपकी गज़ले दिल मे उतर जाती हैं…………बेहद शानदार लाजवाब गज़ल्।

रश्मि प्रभा... said...

अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
bemisaal

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (28-2-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

संजय @ मो सम कौन... said...

सरल और सहज तरीके से गहरी बातें करना आप जानते हैं। बहुत अच्छी रचना लगी। कहीं भी हाईपर हुये बिना अपने जज़्बात सब उकेर कर रख दिये।
आभार स्वीकार करें।

vijai Rajbali Mathur said...

असलियत को ख़ूबसूरती से संवारा है.

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

बहुत दिन बाद कहीं से ख़त इक आया
नाम मगर उसपे लिक्खा था किसी और का।
लाज़वाब शे'र मुबारक बाद वर्मा जी।

Rahul Singh said...

अपने भी जैसे लगें पराए.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

वर्मा सा!
सुब्हान अल्लाह!! सादगी के साथ गहरी बात कहने का फ़न आपको हासिल है और आपकी सारी ग़ज़लें इस बात की गवाह हैं.. ग़ज़ल गुफ्तगू का दूसरा रूप हैं यह आपकी ग़ज़ल से जाहिर है.. इस ग़ज़ल के एक शेर के एक लफ्ज़ ने मेरा दिल चुरा लिया..
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यादों का इक रेला मन को तरल कर गया,
आंचल भिगो रहा अब होगा किसी और का।
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मन को तरल कर गया.. अद्भुत प्रयोग है तरल शब्द का! नत हूँ आपके समक्ष!!

BrijmohanShrivastava said...

वाह जनाव निशाना कहीं और लगाया था और लगा कहीं और । वो कर रहे थे किसी और का इन्तजार और हम पहुंच गये अपनी रोनी सूरत लिये। ये भी बढिया रहीं बहुत दिन बाद तो पत्र आया मगर किसी और के नाम का। विल्कुल सही है एक रोयेगा तो दूसरा भी रोयेगा दिल को दिल से राहत की बात है। दोस्त वाली बात नहीं नहीं जमी साहब माफ करना वे तो हमारी ही सूरत देख कर कतराये होगंे । सही है भाई लोग तो ये कहते भी है कि भाई तू मेरे हिस्से का आंगन भी लेले मगर बीच की ये दीवार गिरादे। अन्तिम शेर बहुत उम्दा । हम गरीवों के घर दिन निकलता नहीं अब तो सूरज भी उंचे मकानों में है। शानदार प्रस्तुति

Bharat Bhushan said...

ग़ज़ल की प्रशंसा करता हूँ तो शब्द कम पड़ रहे हैं. हर शे'र याद करने को दिल करने लगा है.

Kunwar Kusumesh said...

दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।

रूमानी खुशबू बिखेरते हुए ये दोनों शेर बेहतरीन हैं. सच कहें तो पूरी ग़ज़ल लाजवाब है.

Dr Xitija Singh said...

दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का।


सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

हर शेर लाजवाब है महेंद्र जी ... एक एहसास लिए है ग़ज़ल ... मनो कुछ अपना होते होते अचानक पराया हो गया हो ...

Arvind Jangid said...

बहुत ही सुन्दर रचना, आभार.

रचना दीक्षित said...

अच्छी लगी ये गज़ल हर शेर सच्चाई से रुबरु कराता हुआ

Kailash Sharma said...

जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।

बहुत खूब! बहुत सटीक और सुन्दर गज़ल..

रंजना said...

जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।

वाह...कितनी खरी बात कही आपने....

बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल...सभी शेर बेमिसाल...

Dr Varsha Singh said...

बहुत दिनों के बाद कहीं से ख़त इक आया,
नाम मगर उस पर लिक्खा था किसी और का।

वाह..क्या खूब लिखा है आपने।
बहुत अच्छी ग़ज़ल है। साधुवाद!

मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!

सम्वेदना के स्वर said...

महेंद्र जी!
ग़ज़ल का हर शेर लाजवाब है, बहर इतनी दुरुस्त की मज़ा आ गया गुनगुनाने का.. एक शीतल बयार सी है यह ग़ज़ल!!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

वर्मा जी,
आनंद!आनंद! आनंद!
आशीष
---
लम्हा!!!

दिगम्बर नासवा said...

दरवाजे पर देख मुझे मायूस हुए वो,
शायद उनको इंतज़ार था किसी और का ...

Subhaan alla ... kya gaab ka sher hai ...Verma ji mazaa aa gaya ... Poori gazal bahut aasaan shabdon mein door ki baat kahti hai ...

Amrita Tanmay said...

पूरी ग़ज़ल लाजवाब..बेहद शानदार..आभार स्वीकार करें.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'दोस्त हमारे कतराकर यूँ निकल गए

मेरा चेहरा समझा होगा किसी और का '



बेहतरीन शेर.....उम्दा ग़ज़ल

हरकीरत ' हीर' said...

अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।

क्या बात है ....बहुत खूब ....!!

ज्योति सिंह said...

जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।
bahut sundar.

Minakshi Pant said...

अक्स निशाने पर था रक्खा किसी और का,
शीशा टूट-टूट कर बिखरा किसी और का।
बहुत खुबसूरत रचना हर शब्द जैसे किसी मुजरिम की कहानी सुना रहा हो

मदन शर्मा said...

वाह..क्या खूब लिखा है आपने।
बहुत अच्छी ग़ज़ल है।
बहुत सारी शुभ कामनाएं आपको !!

विशाल said...

जब दीवारें अपनेपन के बीच खड़ी हों,
अपना आंगन लगने लगता किसी और का।


सुबह धूप का टुकड़ा उतरा देहरी पर,
रुका नहीं वह मेहमान था किसी और का।

बहुत ही बढ़िया अंदाजे बयां.
सादगी में बहुत ताजगी है.
सलाम.