नवगीत


पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी,
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


धू-धू कर धधक रहे
किरणों के शोले,
उग आए धरती के 
पांव पर फफोले।


शीतलता बंदी है 
सूर्य की कचहरी।
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।


उबली हवाओं की 
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।


जमुहाई लेती है
मुंह खोले गगरी।
पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।

                             -महेन्द्र वर्मा

40 comments:

Shikha Kaushik said...

bahut sateek chitran jethh ki dopahri ka .aabhar

Sunil Kumar said...

गर्मी की तपिश को शब्दों में बखूबी व्यक्त किया है और सूर्य की कचहरी तो वाह वाह ....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

जेठ की तपती दोपहरी का सजीव चित्रण।

---------
गुडिया रानी हुई सयानी..
सीधे सच्‍चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।

Anupama Tripathi said...

जमुहाई लेती है
मुंह खोले गगरी।
पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।



जेठ की दोपहरी का बहुत सुंदर और सजीव चित्रण है ..बिलकुल अलग बिम्बों का प्रयोग ..
बहुत अच्छी लगी रचना ..!!

Bharat Bhushan said...

उबली हवाओं की
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।

ये बिंबित पंक्तियाँ सुंदर तरीके से संप्रेषित हुई हैं. क्या बात है!!
महेंद्र जी बहुत अच्छी कविता!!

nilesh mathur said...

बहुत सुन्दर!

vandana gupta said...

जेठ की दोपहरी का बहुत सुन्दर चित्रण किया है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सजीव चित्रण कर दिया है गर्मी का ..

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

बेहतरीन रचना ,वर्मा जी को मुबारकबाद्।

Rahul Singh said...

धरती के पांव पर फफोले, ठिठकने को बाध्‍य करता है. बढि़या रचना.

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (30-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर रचना धन्यवाद

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

प्रतीक और प्रतिमानों का अभिनव प्रयोग .ग्रीष्म पर अनुपम कविता.बुधियारिन का प्रयोग, आपका अंचल के प्रति उत्कट प्रेम स्पष्ट दर्शाता है.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

गर्मी के दिनों का सटीक चित्रण ... सुन्दर वर्णन ...
ग़ज़ल में अब मज़ा है क्या ?

मनोज कुमार said...

नवीन बिम्बों से इस नव गीत के अर्थ में चार चांद लग रहे हैं।

virendra sharma said...

प्रकृति के मानवीकरण के साथ साथ अनेक बिम्बों को समेटे है रचना का फलक ।
शीतलता बन्दी है ,सूरज की कचेहरी है ....

BrijmohanShrivastava said...

जेठ की दुपहरिया की क्या शानदार उपमायें दी है सरजी

Urmi said...

धू-धू कर धधक रहे
किरणों के शोले,
उग आए धरती के
पांव पर फफोले।
शीतलता बंदी है
सूर्य की कचहरी।
मरुथल की मृगतृष्णा
सड़कों पर पसरी।
बहुत सुन्दरता से आपने गर्मी के मौसम को शब्दों में पिरोया है! प्रशंग्सनीय रचना!

मदन शर्मा said...

ये शब्द कहाँ से ले आते हैं आप ? बहुत ही सुन्दर तरीके से शब्दों का प्रयोग किया है आपने ! ये गर्मी की तपिश और ये बुधियारिन वाह भाई वाह सुन्दर प्रस्तुति है आपकी ! धन्यवाद

ज्योति सिंह said...

उबली हवाओं की
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।
garmi ke mausam ka sundar varnan .wakai jhuls rahe hai sab......

Vivek Jain said...

बहुत सुंदर कविता, गरमी पर बहुत कवितायें पढ़ी, पर ये शानदार है
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

रजनीश तिवारी said...

bahut sundar rachna . bahut achchha chitran..

सदा said...

वाह ...बहुत ही अच्‍छा लिखा है ।

Kailash Sharma said...

उबली हवाओं की
पोटली खुली है,
बुधियारिन नीम तले
छांव सी रही है।

बहुत खूब ....लाज़वाब प्रस्तुति..

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

सन्दर्भित दृश्यों को शब्दंकित करता सुंदर नवगीत

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

जेठ की दुपहरी और गर्मी की तपिश को बहुत सुनार्ता से उकेरा है आप ने बधाई हों निम्न बहुत अच्छी पंक्तियाँ
धू-धू कर धधक रहे
किरणों के शोले,
उग आए धरती के
पांव पर फफोले।
शुक्ल भ्रमर 5

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'शीतलता बंदी है

सूर्य की कचहरी |

मरुथल की मृगतृष्णा

सड़कों पर पसरी '

................... अति सुन्दर ...........प्यारा नवगीत

ZEAL said...

पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।....

बिलकुल ही नए अंदाज़ में लिखा है आपने। , बहुत पसंद आई ये रचना।

.

Anonymous said...

गर्मी का अति सुंदर चित्रण - आपका नव गीत पढ़ ही नहीं गुनगुना भी रहा हूँ - आभार

जीवन और जगत said...

बहुत बढि़या। इस पर कविवर बिहारी का दोहा याद आ रहा है, ''देख दुपहरी जेठ की, छॉंहौ चाहत छॉंह।''

संजय @ मो सम कौन... said...

बेहतरीन नवगीत वर्मा साहब।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

सूरज के धूप वाले चाबुक की मार झेलते हुए आपके इस नवगीत को अनुभव किया जा सकता है इन दिनों!!

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मौसम के अनुकूल नवगीत ...बहुत सुंदर

girish pankaj said...

'anvgeet'' dupahari ko bilkul jeevant kar deta hai....

girish pankaj said...

varmaji, apne ghar ka pataa mail kare. aapko ''sadbhavana darpan'' bhejani hai. mera email hai-girishpankaj1@gmai.com

ashish said...

जेठ की दुपहरिया अब जाने वाली है , भीगी फुहारे आने वाली है . . सुँदर शब्द रचना .

Satish Saxena said...

पोखर को सोख रही
जेठ की दुपहरी।
शुभकामनायें आपको !

Amrita Tanmay said...

बहुत ही सुन्दर और शानदार ..ठंडक पहुंचाती रचना

Anonymous said...

वाह ... बहुत ही अच्‍छा लिखा है

Unknown said...

Bahut khoobsurat rachna hai...