ढूंढूं कहां, कहां खो जाती मानवता,
अभी यहीं थी बैठी रोती मानवता।
रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।
मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।
-महेन्द्र वर्मा
40 comments:
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (6-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता
bahut sateek abhivyakti.aabhar
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
वाह महेंद्र जी अति संवेदनाओं से भरी रचना के लिए
....
हो गए है मूल्य भी
निर्मूल्य देश में,
फूलों से भी
चुभने लगे है शूल देश में,
बधाई
उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।
काश यह सच हो ...सुन्दर प्रस्तुति
संवेदनशील हो रहे मनुष्य मानवता से विहीन हो रहे हैं। जिनमें बची है , उन्हें कुचला जा रहा है। लेकिन कहीं न कहीं ये अभी जीवित भी है , अच्छे , सज्जन एवं सवेदनशील मनुष्यों में।
सुनो भेड़िये ने पाला मनव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
बहुत ख़ूब वर्मा जी मुबारकबाद।
सुनो भेड़िये ने पाला मनव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
बहुत ही बढ़िया,वाह,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सच ... बहुत ही सार्थक लेखन ... आज के दौर का सफल चित्रण है ये रचना
जिस तरह से आज निहत्थे तथा सोते हुवे लोगों पर लाठी चार्ज हुवा वो तो सरकारी आतंकवाद की परकाष्ठा ही है |
मानव ने मानव का लहू पिया देखो,
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता।
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
सुना भेड़िये ने पाला मानव शिशु को ,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता .
बेहतरीन कटाक्ष आज के वक्त पर .राग हीनता ,भाव हीनता ,द्वंद्व पर .बधाई और आपका आभार !
सुखांत बहुत अच्छा लगा, तमाम गतिरोधों के बावजूद मानवता का जीवित होना जरूरी भी है और अवश्यंभावी भी है।
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
वाह, क्या खूब कही है ... कम से कम शहरों में तो मानवता नहीं रहती है ...
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
....बहुत सच कहा है..महानगरों में तो नहीं दिखाई देती मानवता..बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
रहते हैं इस बस्ती में पाषाण हृदय,
इसीलिए आहत सी होती मानवता।
महेंद्र जी , आपकी हर रचना पढ़ कर नई प्रेरणा मिल जाती है
मानव , मानवता को तज कर , देवों में देवत्व ढूँढता.
बस्ती पाषणों की रचता , उसमें जीवन - तत्व ढूँढता .
रिश्त - नाते भूल गया सब , नई मशीनें गढ़ता जाता
किन्तु धड़कता कभी ह्रदय तब ,अपनों में अपनत्व ढूँढता.
bhav hin vishye par bhav se bharpur kavita
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
उन्मत्त और दमनकारी भ्रष्टाचारियों को तो वाकई इंसानियत का पाठ पढना ही पढेगा।
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
बहुत गहन ..संवेदनशील एक एक पंक्ति ..!!
बधाई.
gazal ke saare sher jo tasveer kheenchte hain maanavataa kee, maqte men uske vipareet ek asha ki kiran yaa sacchchee maanavata kee paribhasha di hai aapne!!
dil ko chhoo gayee ye gazal!
खड़ी बोली में एक सुंदर एवं प्रशंसनीय गजल।
---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
बाबाजी, भ्रष्टाचार के सबसे बड़े सवाल की उपेक्षा क्यों?
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।...
हिन्दी में लाजवाब ग़ज़ल कहने का प्रयास है .... बहुत लाजवाब शेर हैं ...
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
सत्य कहा...
अब तो मानवता जंगलों में ही बस्ती है अधिकांशतः...
सार्थक सुन्दर प्रभावशाली रचना...
"है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता"
आदरणीय वर्मा जी आपकी इस रचना का एक-एक शब्द आज की इंसानियत को आइना दिखा कर उसे कठघरे में खड़ा कर रहा है - लाजवाब रचना के लिए बधाई तथा पढवाने के लिए आभार
संवेदनशील पंक्तियाँ ... मानवता सच में कहीं खो गयी है....
महेंद्र भाई "मानवता" को रद्दीफ़ बना कर बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पेश की है आपने| बयान अपने अंदाज़ के साथ अधिक प्रभावित करता है| बधाई|
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! सुन्दर और शानदार रचना!
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
मानवता के विचरने की सही जगह कवि ने खोजी. सुंदर अभिव्यक्ति, सुंदर रचना.
दंशित हुई कुटिल भौंरों से कभी कली,
लज्जित हो मुंह मोड़ सिसकती मानवता।
Yehi aajki sachayi hai .. Sunder ghazal .. bohot badhayi!!!
एक सकारात्मक उर्जा से परिपूर्ण रचना के लिए धन्यवाद
साहित्य और संगीत मेरी ज्ञानेन्द्रियां हैं, इन्हीं के द्वारा मैं दुनिया को देखता और महसूस करता हूं।
nice line
इंसानियत को आइना दिखाती लाजवाब प्रस्तुति
सुना भेड़िए ने पाला मानव शिशु को,
क्या जंगल में रही विचरती मानवता।
....बहुत सच कहा है.....बहुत सुन्दर प्रस्तुति
कई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
है कोई इस जग में मानव कहें जिसे,
पूछ पूछ कर रही भटकती मानवता।
मानवता की खोज में सुँदर , प्रभावशाली और सुघड़ पंक्तिया .
बहुत बढिया इन संगदिलों ने मानवता को आहत कर दिया है। कभी कांपती है कभी सिसकती है , उलझन में है किसे मानव कहे। आंसू पौछदो किसी रोते हुये के वही मानवता है। परहित सरिस धरम नहि भाई
उसने उसके बहते आंसू पोंछ दिए,
वो देखो आ गई विहंसती मानवता।
उम्दा ग़ज़ल.हर शेर बेहतरीन
संवेदनशील अभिव्यक्ति ......
एकदम अलग तरह की गजल ... लाजबाव
आखिर में सकारात्मक बात कह दी और मानवता लौट आयी, लेकिन भारत में तो लुप्त होती जा रही है मानवता। आपकी रचना दिल को छूने वाली है। बधाई स्वीकारें।
आदरणीय महेन्द्र जी
नमस्कार !
आपकी इस पोस्ट पर विलंब से पहुंचने का अफ़सोस है ।
बहुत अच्छी रचना है …
मानव ने मानव का लहू पिया देखो
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता
आदरणीया अजित गुप्ता जी ने सही कहा - "भारत में तो लुप्त होती जा रही है मानवता। "
4 जून की अर्द्ध रात्रि की अमानवीयता ही देखलें …
'चकित हुआ हूं' भी अच्छी रचना है ।
आभार !
'मानव ने मानव का लहू पिया देखो
दूर खड़ी स्तब्ध कांपती मानवता '
...........................सामयिक ,जानदार शेर
...................उम्दा ग़ज़ल,हर शेर बेहतरीन
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