श्रद्धा की आंखें नहीं

जंगल तरसे पेड़ को, नदिया तरसे नीर,
सूरज सहमा देख कर, धरती की यह पीर ।

मृत-सी है संवेदना, निर्ममता है शेष,
मानव ही करता रहा, मानवता से द्वेष ।

अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ।

‘मैं’ से ‘मैं’ का द्वंद्व भी
,सदा रहा अज्ञेय,
पर सबका ‘मैं’ ही रहा, अपराजित दुर्जेय ।

उर्जा-समयाकाश है, अविनाशी अन्-आदि,
शेष विनाशी ही हुए, जल-थल-नभ इत्यादि ।

अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।

कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
                                                                         -महेन्द्र वर्मा

14 comments:

कविता रावत said...
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कविता रावत said...
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कविता रावत said...

कहीं खेल विध्वंस का, कहीं सृजन के गीत,
यही सृष्टि का नियम है, यही जगत की रीत ।
..सच उपर वाले के नियम को इंसान कभी तोड़ नहीं सकता..वह उसके समझ से पर है ..
बहुत बढ़िया प्रस्तुति

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और सार्थक दोहे...

Bharat Bhushan said...

दोहों में विराट बिंब हैं. यह दोहा विशेषकर पसंद आया-
अंधकार के राज्य में, दीये का संघर्ष,
त्रास हारता है सदा, विजयी होता हर्ष ।

Vandana Ramasingh said...

एक से बढ़कर एक दोहे आदरणीय

दिगम्बर नासवा said...

अर्थपिपासा ने किया, नष्ट धर्म का अर्थ,
श्रद्धा की आंखें नहीं, सत्य हुआ असमर्थ ...
करारी चोट है समाज की गलत मान्यताओं पर ... कमाल के दोने हैं सब ...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अद्भुत दोहे आपके, अद्भुत हैं सन्देश,
ऐसे उच्च विचार से है महान यह देश!

Amrita Tanmay said...

शाश्वत और सुकूनदायी दोहे .. अति सुन्दर .

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बेहतरीन दोहे

पुरानी बस्ती said...

लाजवाब

संजय भास्‍कर said...

एक से बढ़कर एक दोहे

Shanti Garg said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ।

प्रतिभा सक्सेना said...

गहन जीवन-दर्शन की अति सहज अभिव्यक्ति ,वह भी दोहे जैसे लघु छंद में !