भवानी प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र और बेमेतरा



स्व. भवानी प्रसाद मिश्र
................एक छोटा-सा किस्सा सुनाता हूँ,  आज के माता-पिता के लिए वो ज़रा चौंकाने वाला होगा । आज हम यह देखते हैं कि बच्चे कैसे अच्छे-से पढ़ें और पढ़-लिख कर कैसे अच्छी नौकरियों में चले जाएँ , कितना बड़ा उनको पैकेज मिले । पिताजी का दौर उस समय के माता-पिता जैसा रहा होगा लेकिन उनका विचार कुछ और था ।
 
हम लोग बम्बई में शायद तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, साधारण स्कूल था, ठीक-ठाक । एक दिन हम लोग आए तो अचानक उन्होंने कहा - कल हम लोग सब बेमेतरा चलेंगे । बेमेतरा कहाँ है ये हमें मालूम था क्योंकि पिताजी के बड़े भाई बेमेतरा में एस.डी.एम. थे । अच्छा ही लगा, स्कूल से छुट्टी मिलेगी। जो दो-चार कपड़े थे और थोड़ा-सा सामान  बाँध-बूँध कर, माता-पिता  का हाथ पकड़ कर हम लोग रेलगाड़ी से बेमेतरा चले गए ।
 
वहाँ दो-तीन दिन रहे । अचानक एक दिन पता चला, माँ और मन्ना बम्बई लौट रहे हैं । हम और जीजी (नंदिता मिश्र) वहीं रुकेंगे, बेमेतरा में । तब तक हमको पता नहीं था । उन्होंने कहा कि एक दिन बड़े भैया यानी हमारे ताऊ जी ने बम्बई में एक पोस्टकार्ड लिखा पिताजी को कि मेरे सब बच्चे बड़े होकर हास्टल में चले गए हैं। घर बिल्कुल सूना हो गया है । पिताजी ने कहा कि ये दोनों तुम्हारे हैं, इनको मैं बम्बई से आपके पास भेज देता हूँ ।
बेमेतरा उस समय दस-पंद्रह हज़ार की आबादी वाला एक छोटा-सा कस्बा था । एक ही स्कूल था, पूरे कस्बे में । उन्होंने कहा कि बड़े पिताजी का सूनापन दूर हो जाना चाहिए इसलिए तुम लोग किलकारी मारो उनके घर में । बम्बई के स्कूल से हटाकर हमें एक गाँव के स्कूल में डाल दिया ।
 
जिसको कहते हैं ना, भविष्य देखना, ये सवाँरना वो सवाँरना , ये सब नहीं, उन्होंने कहा - बड़े भाई का मन सवाँरना । 

स्व. अनुपम मिश्र
एकाध दिन रोए होंगे लेकिन उसके बाद हमको बेमेतरा बहुत पसंद आया । हम बम्बई में जूता पहन कर स्कूल जाते थे, अच्छी तरह से चमका कर,, यही हमें सिखाया गया था । वहाँ हमने देखा, हमारे क्लास में किसी भी बच्चे के पैर में जूता-चप्पल नहीं था । उसके बाद हमने भी दूसरे दिन से स्कूल में जूता पहनना छोड़ दिया ।
 
कोई डेढ़ वर्ष वहाँ रहे । अब बड़े पिताजी को लगा होगा कि खूब किलकारी हो गई । तब तक पिताजी बम्बई से दिल्ली आ गए थे। फिर वैसे ही पीले पोस्टकार्ड का आदान-प्रदान हुआ होगा । तब बड़े पिताजी ने हम लोगों को कहा, चलो, तुम लोग अपना सामान बाँधो । कल तुम लोगों को दिल्ली  जाना है । तब हमने पहली बार रेल में फर्स्ट क्लास देखा। बड़े पिताजी के कोई मित्र एम.पी. थे, उनके साथ हम लोगों को रवाना कर दिया ।
ये घटना आप लोगों को इसलिए बताई कि पिता कैसा होता है और उसका व्यापक परिवार क्या होता है और उसको कितना भरोसा होता है कि केवल स्कूल की शिक्षा बच्चे के भविष्य को नहीं बनाती या बिगाड़ती उसके अलावा पचासों और चीज़ें होती हैं । तो, हम लोग जो बने हैं वो आप सब के कारण बने हैं, किसी स्कूल और शिक्षा के कारण नहीं............... ।
 

 -स्व. अनुपम मिश्र
  प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक और पर्यावरणविद्
 (‘सूत्रधार’ संस्था द् वारा  21 सितम्बर, 2013 को   इंदौर में  आयोजित  भवानी प्रसाद मिश्र जी  की    जन्मशती समारोह में संस्मरण सुनाते हुए )

  29 मार्च को स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती है, उन्हें सादर नमन ।









7 comments:

कविता रावत said...

सच ही स्कूल-कॉलेज के शिक्षा से बेहतर इंसान बने, यह जरुरी नहीं है, जरुरी हैं मानवीय संस्कारों को आत्मसात करना सीखना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती पर शत-शत नमन ।

दिगम्बर नासवा said...

ऐसे संसका सहज जीवन में ही आ जाते थे उन दिनों ...
नमन है मिश्र जी को ...

Bharat Bhushan said...

अनुपम मिश्र जी के बारे में जानता था, उन्हीं के मुखारविंद से भवानी प्रसाद मिश्र जी के बारे में जान कर अच्छा लगा.

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मर्मस्पशी.... सार्थक जीवन की रीढ़ बनते हैं ऐसे संस्कार |

JEEWANTIPS said...

बहुत प्रभावपूर्ण रचना......
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपके विचारों का इन्तज़ार.....

संजय भास्‍कर said...

स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की जयंती पर शत-शत नमन ।

Amrita Tanmay said...

हृदयग्राही ।