कुछ और

मेरा कहना था कुछ और,
उसने समझा था कुछ और ।

धुँधला-सा है शाम का  सफ़र,
सुबह उजाला था कुछ और ।

गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।

अजीब नीयत धूप की हुई,
साथ न साया, था कुछ और ।

जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।

 

-महेन्द्र वर्मा

5 comments:

दिगम्बर नासवा said...

बहुत सुंदर ... जीवन के पन्नों पर हमेशा कुछ और हाई लिखा जाता है ... हर शेर बेहद लाजवाब ...

Bharat Bhushan said...

यह 'कुछ और' जीवन भर साथ रहता है.......

गाँव जला तो बरगद रोया,
उसका दुखड़ा था कुछ और ।

बरगद का दुखड़ा भी कुछ-कुछ ऐसा ही रहा होगा....

जीवन-पोथी में लिखने को,
शेष रह गया था कुछ और ।

बहुत ही सुंदर महेंद्र जी.

Sanju said...

mere blog ki new post par aapke vicharo ka swagat...
Happy Father's Day!

कविता रावत said...

बहुत सुंदर ...
आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!

Amrita Tanmay said...

शेष और से ही बँधा है डोर ।