छत्तीसगढ़ी में संस्कृत के शब्द




छत्तीसगढ़ के किसानों के लिए इस मौसम में ‘ओल’ महत्वपूर्ण हो जाता है । रबी फसल के लिए खेत की जुताई-बुआई के पूर्व किसान यह अवश्य देखता है कि खेत में ओल की स्थिति क्या है । ओल मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है । विशेष बात यह है कि ओल का जो अर्थ संस्कृत में है ठीक वही अर्थ छत्तीसगढ़ी में भी है । दोनों भाषाओं में ओल का अर्थ नमी है ।


शब्द या़त्रा करते हैं, समय और देश, दोनों के सापेक्ष । इस यात्रा के प्रभाव से अनेक शब्द अपना स्वरूप और अर्थ बदल देते हैं । किंतु कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जो हज़ारों साल बाद भी अपना चोला नहीं बदलते । हिन्दी सहित भारत की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में संस्कृत के बहुत सारे शब्द हैं ।   छत्तीसगढ़ी में भी कुछ ऐसे शब्द हैं जो संस्कृत के हैं और जिनकी वर्तनी और अर्थ दोनों अभी भी संस्कृत के समान हैं । ऐसे ही कुछ शब्दों के उदाहरण देखिए- पर, दूसरे, पर के जिनिस । समेत, सहित, झउहाँ समेत उठा ले । कपाट, किवाड़, कपाट ल ओधा दे । मरीच, काली मिर्च, सरदी हे त घी मरीच पी ले । लसुन, लहसुन, लसुन मिरचा के चटनी, संस्कृत वर्तनी लशुन है । सङ्ग, साथ, ओकर संग ल झन छोड़बे । हन, मारना, ओतके मा नँगत हन दीस । कुकुर, कुत्ता । संस्कृत शब्दकोषों में कुकुर की दो और वर्तनियाँ हैं- कुर्कर और कुक्कुर, संस्कृत पर्याय श्वान भी है। कूची, चाबी, तारा के कूची गँवागे । नाथ, बैल के नाक में डाली गई रस्सी, बइला ल नाथ दे.......इत्यादि ।


अब छत्तीसगढ़ी के कुछ ऐसे शब्द जो संस्कृत के हैं किंतु जिनकी वर्तनी में छत्तीसगढ़ी में उच्चारण लाघव के कारण ज़रा-सा ही परिवर्तन हुआ है । अङ्गार से अँगरा, गुरु से गरू अर्थात भारी, प्रीत से पिरीत, विष से बिख, वृथा से बिरथा, इह से इही यानी यहीं, मरकी ला इही मेर मढ़ा दे । स्वाद से सेवाद, शाक से साग, वत्सर से बच्छर या बछर किंतु वर्ष से बरस, सर्वस्व से सरबस, अपन सरबस ल दान कर दीस । व्यवहार से बेवहार, सूची से सूजी अर्थात सुई, आदित्यवार से अइतवार, लवङ्ग से लवाँग, दोला से डोला यानी पालकी, अञ्जलि से अँजरी, हृदय से हिरदे, विपत्ति से बिपत, चिक्कण से चिक्कन यानी चिकना, मुहूर्त से मुहरुत, मूक से मुक्का यानी गूँगा, चमस से चम्मस यानी चम्मच, वर्जना से बरजना यानी मना करना, चिह्न से चिनहा, पाण्डर से पँड़रा यानी सफेद, छन्द से छाँदना- घोड़वा ला छांद दे, पाषाण से पखना, प्रस्तर से पथरा, तप्त से तात, तात पानी पीबे के जूड़ पानी ।


पीयूष या पेयूष से पेंउस, प्रसूता गाय के दूध से बना व्यंजन, देहली से डेहरी, प्रकट से परगट, दलन से दरन- अरन बरन कोदो दरन, जभे देबे तभे टरन । घर्षण से घँसरना, भित्ति से भितिया यानी दीवार, महिषी से भैंसी- भैंसी हा भितिया मा मूड़ी ला घँसरत हे । मुण्ड से मूड़, मसि से मस यानी स्याही, हमारे समय में स्याही की टिकिया आती थी, हम कहते थे- दवात मा मस घोर डरेंव। बर्बटी से बरबट्टी, भृति से भूती, मजदूरी, बनी-भूती, चित्रित से चितरी- चितरी केरा, संलग्न से सरलग, सूत्र से सूत यानी धागा, हड्ड से हाड़ा, हण्डी से हाँड़ी और हँड़िया, शिला से सिल, चटनी पीसने का.......आदि ।


छत्तीसगढ़ी में बहुत से शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत से आए हैं किंतु उनकी वर्तनी में अधिक अंतर हो गया है जबकि अर्थ वही हैं जो संस्कृत में हैं, उदाहरण देखिए- पोष्य से पोंसवा, जिसका पालन और पोषण किया जाए, पोंसवा कुकुर, आश्चर्यचकित से अचानचकरित, स्कन्ध से खाँध यानी कंधा, विलोडन से बिलोना, दही बिलोना, अम्लिका से अमली यानी इमली, स्फुटन से फूटना यानी फटना, फुग्गा फूटगे, विकार से बिगाड़, मित्र से मितान, योक्त्र से जोंता यानी गाड़ी में बैल को युक्त करने की रस्सी, राक्षस से रक्सा, लङ्घ से लाँघन रहना यानी उपवास रहना, वण्ड से बँड़वा यानी जिसमें नोक न हो या कुछ हिस्सा टूट गया हो, प्रतिवेशी से परोसी यानी पड़ोसी । भृङ्गराज से भेंगरा, एक पौधा, पट्टवायक से पटवा, धागे से अनेक प्रकार की शृंगारिक वस्तुएं बनाने वाला, अक्ष से अस्कुड़ यानी बैलगाड़ी का एक्सेल ।


अञ्जन से आँजना, लइका ला काजर झन आँज, अनम्बर से नँगरा यानी बिना कपड़े का, ईर्ष्या से इरखा, पारावत से परेवा यानी कबूतर, मधुरस से मँदरस, बुस से भूँसा, मन्द्र से माँदर, एक अवनद्ध वाद्ययंत्र, विस्मरण से बिसरना,  लाङ्गल से नाँगर यानी हल, राशि से रास यानी ढेर, धान के रास मा दिया बार दे । कुक्कुट से कुकरा, पिष्टान्न से पिसान, पिष्ट अन्न यानी पिसा हुआ अन्न । अन्य से आन यानी दूसरा और अन्यत्र से अन्ते यानी कोई अन्य स्थान, न्याय से नियाव, अत्याचार से अइताचार, आर्द्रा से अदरा, एक नक्षत्र, मृग से मिरगा, नक्षत्र भी हिरण भी । इतस्ततः से एती-तेती यानी इधर-उधर, उच्चारण से उचार, विवाह में शाखोचार होता है, शाखा यानी वेदमंत्र पाठ की विभिन्न परंपराएं, संस्कृत में शाखोच्चारण । गोस्थान से गौठान, उत्साह से उछाह, कोष्ठागार से कोठार, खर्पर से खपरा, छान्ही के खपरा, तर्षण से तरसाना, धवल से धौंरा, धौंरा बइला, वञ्चक से बंचक यानी धोखेबाज, पीताम्बर से पीतामड़ी ......आदि ।


कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो संस्कृत से छत्तीसगढ़ी में आए हैं किंतु उनका उच्चारण तो परिवर्तित हुआ ही, किंचित अर्थ परिवर्तन भी हुआ है, जैसे- विकट का अर्थ भयानक, विकराल, बड़ा है, इस से बना बिक्कट यानी बहुत । षट्कर्म से खटकरम, षट्कर्म का अर्थ छह क्रियाएं जो शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिए निर्धारित हैं किंतु इसी से बना खटकरम का अर्थ झंझट है । शून्य से सुन्न और सुन्ना, सुन्न यानी चेतनाहीन और सुन्ना यानी सुनसान । भाषण से बना भँसेड़ना यानी फटकारना, ओ भासन देवइया ला बने भँसेड़ के आबे । कुभार्या से कुभारज और विधुर से बिदुर, पाञ्चाली से पंचाएल, भाण्ड से भड़वा, गाली के लिए प्रयुक्त होते हैं । स्थिर से थिर यानी विश्राम या आराम, थोकन थिरा ले । पूर्ति से पुरती, तोर पुरती तैं लेग जा ।


अब कुछ ऐसे छत्तीसगढ़ी शब्दों के उदाहरण जो संस्कृत शब्दों में कोई प्रत्यय जोड़ने से बने हैं । संस्कृत में भण्ड का अर्थ है- उपहास करना, इसी से छत्तीसगढ़ी में शब्द बना- भड़ौनी, विवाह के अवसर पर गाया जाने वाला एक गीत । मुख से मुखारी और दंत से दतवन, दांत साफ करने हेतु नीम, बबूल आदि की पतली टहनी । वामन से बावनबूटा यानी बौने कद का, यह शब्द स्वयं बुटरा हो गया । मंडलेश यानी सूबेदार, अब अच्छी आर्थिक स्थिति वाले किसान को मंडल कहते हैं । पाण्डुर से पिंड़ौरी यानी पीले रंग का, पिंड़ौरी माटी ।


इसी तरह के सैकड़ों शब्द छत्तीसगढ़ी में हैं जो संस्कृत से आए हैं । ऊपर दिए गए उदाहरणों में उन शब्दों को यथासंभव स्थान नहीं दिया गया है जो संस्कृत के हैं किंतु हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में एक जैसे या कुछ अंतर के साथ प्रयुक्त होते हैं, जैसे- आश्रय से आसरा, क्षण से छिन, वंश से बाँस, घृणा से घिन, रात्रि से रात, चन्द्र से चंदा, खट्वा से खटिया आदि ।


हमने जाना कि किसी छोटे से क्षेत्र की भाषा के शब्द हज़ारों साल बाद भी जीवित रह सकते हैं। संस्कृति के संरक्षण और विकास से भाषा समृद्ध होती है तथा भाषा संस्कृति को अगली पीढ़ियों तक संचारित करती रहती है । भाषा कमजोर होती है तो संस्कृति का भी क्षरण होता है । इसलिए नई पीढ़ी के लिए यह आवश्यक है कि वे लगभग बिसरा दी गई अपनी समृद्ध भाषायी संस्कृति को जानें और समझें ।


-महेन्द्र वर्मा

7 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (20-11-2019) को     "समय बड़ा बलवान"    (चर्चा अंक- 3525)     पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

महेन्‍द्र वर्मा said...

आभार, आ.शास्त्री जी ।

Bharat Bhushan said...

मेरा विचार है कि संस्कृत को श्रम संस्कृति के शब्दों को सीधे तौर पर अपनाने में दिक्कत रही है. प्राकृत और पाली के कई ऐसे स्थानीय शब्द हैं जो वास्तव में तत्सम हैं और उन्हें जिस रूप में संस्कृत में अपनाया गया है वो तद्भव शब्द हैं. इस बारे में भाषाविज्ञान की नई खोज बहुत कुछ कहती है. संस्कृत नहीं बल्कि प्राकृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है.

Satish Saxena said...

नमन ...

महेन्‍द्र वर्मा said...

@ आ. भूषण जी, महत्वपूर्ण टिपण्णी के लिए आभार.
आपके विचार सही हैं.
मैं इतना और जोड़ना चाहूँगा कि किसी भी भाषा का विकास जनभाषा या लोकभाषा से ही होता है . जिसे विद्वान संस्कृत काल कहते हैं उस काल में पालि और प्राकृत लोक व्यवहार की भाषा अवश्य रही होगी . इसी लोकभाषा को संस्कारित कर संस्कृत भाषा का स्वररूप दिया गया . सामान्य तर्क के अनुसार, कालक्रम में और पीछे जाएं तो पालि-प्राकृत का भी विकास तत्कालीन लोकभाषाओं से ही हुआ होगा.

इस बहुप्रचलित कथन से मेरा मतैक्य नहीं है कि संस्कृत सभी भारतीय भाषाओँ की जननी है.

Anonymous said...

आभार

Sagar said...

मैंने अभी आपका ब्लॉग पढ़ा है, यह बहुत ही शानदार है।
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