खुला मस्तिष्क या बंद मस्तिष्क



क्या आपको किसी ने कभी कहा है कि ‘ज़रा खुले दिमाग़ से सोचो’ या क्या यही बात आपने किसी से कभी कही है ?  इस बात से ऐसा लगता है कि सोचने वाला अब तक ‘बंद दिमाग़’ से सोच रहा था । क्या बंद दिमाग़ से भी सोचा जा सकता है ? सोचते होंगे कुछ लोग ! तभी तो कहने की ज़़रूरत पड़ी कि ‘खुले दिमाग से सोचो’ !

हर एक व्यक्ति अपने आस-पास की दुनिया और उसमें घटित होने वाली घटनाओं को अलग तरह से ‘देखता’ है, उसके बारे में अलग तरह से सोचता है, अलग तरह से निष्कर्ष निकालता है और अंत में अलग तरह से अपनी प्रतिक्रिया देता है । ऐसा इसलिए क्योंकि प्रत्येक की बौद्धिक क्षमता अन्य से अलग होती है । किसी घटना या विचारधारा के प्रति दो व्यक्तियों की राय बिल्कुल विपरीत भी हो सकती है । विचित्र स्थिति तब पैदा होती है जब दोनों अपनी-अपनी बात को सही होने का दावा करते हैं । प्रश्न उठता है कि उन दोनों में सही कौन है ? क्या इस तरह की बातों के बारे में सही या गलत का निर्णय करने का कोई पैमाना, कोई आधार होता है ?

इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के पहले यह जान लेना आवश्यक होगा कि लोगों के साथ जीवन में वास्तव में औसत रूप से क्या होता है । एक बात जो सर्वमान्य है कि प्रत्येक के जीवन में उतार-चढ़ाव होता रहता है लेकिन यह भी सही है कि कुछ लोग लगातार अपने कार्यक्षेत्र में सफल होते रहते हैं जबकि कुछ को लगातार असफलता का सामना करना पड़ता है । यह स्पष्ट कर दें कि यहां सफलता का संबंध परिश्रम, ईमानदारी, लगन और प्रतिभा जैसी विशेषताओं से है न कि भ्रष्टाचार, बेईमानी, झूठ आदि से । पहले प्रकार के लोग प्रायः ज़़्यादा ग़लतियां नहीं करते वहीं दूसरे प्रकार के लोग बार-बार ग़लतियां करते हैं । जाहिर है, इस सफलता-असफलता के पीछे लोगों की सोच ज़िम्मेदार है, घटनाओं को देखने-समझने का, सामना करने का उनका नज़़रिया जिम्मेदार है । दूसरे शब्दों में, इन सबका संबंध बौद्धिक क्षमता से है, मानसिकता से है ।

मनुष्य के व्यवहारों का अध्ययन करने वाले ‘पढ़े-लिखे लोगों’ यानी मनोवैज्ञानिकों ने  उपर कही गई बातों पर भी बहुत सारा अध्ययन किया है, शोध किया है और फिर कुछ निष्कर्ष निकाले हैं । इस विषय पर विशेषज्ञों ने किताबें भी लिखी गई हैं । उन्होंने पहले समूह के लोगों को ‘खुली मानसिकता वाले लोग’ और दूसरे समूह वाले लोगों को ‘बंद मानसिकता वाले लोग’ कहा है। यानी, दुनिया भर में यही दो तरह के लोग  हैं । आप ने महसूस किया होगा कि पहले प्रकार के लोगों की संख्या दूसरे प्रकार के लोगों की संख्या की तुलना में बहुत कम है ।

उक्त अध्ययनों में दोनों समूह के लोगों की कुछ विशेषताएं बताई गई हैं । खुली मानसिकता वाले लोग उदार सोच वाले होते हैं । ये ये नए विचारों को जानने के प्रति उत्सुक होते हैं । ये रूढ़ियों से बंधे रहना ज़रूरी नहीं समझते । जबकि बंद मानसिकता वाले लोग संकीर्ण सोच वाले होते हैं । ये नए विचारों को बिल्कुल नहीं जानना चाहते और उसका विरोध करते है। अपनी अपने वर्षों पुराने विचारों पर ही कायम रहना चाहते हैं । रूढ़ियों से बंधे रहना इन्हें पसंद होता है ।

पहले समूह के लोगों में सीखने के प्रति ललक होती है । अपनी ग़लतियों को स्वीकारते हैं । वे अपने विचारों पर सवाल उठाए जाने से दूसरों को नहीं रोकते । दूसरों की असहमति को अपने ज्ञान को बढ़ाने का साधन के रूप में देखते हैं । इस से इनकी रचनात्मकता में वृद्धि होती है । इसके विपरीत दूसरे समूह के लोगों को कुछ नया सीखने में कोई रुचि नहीं होती । ये कभी नहीं मानते कि इन से कोई गलती हो सकती है । ऐसे लोग बिल्कुल नहीं चाहते कि दूसरे लोग उनके विचारों पर सवाल उठाएं ।  सवाल उठाए जाने पर ये नाराज हो जाते हैंं । दूसरों के विचारों के खंडन में अधिक रुचि रखते हैं । अपनी बात मनवाने के लिए दूसरो पर दबाव भी डालते हैं । ये कुछ नया करने से झिझकते हैं । इसीलिए इनमें रचनात्मकता का अभाव होता है ।

खुली मानसिकता वालों का एक स्वाभाविक गुण है कि ये अहंकारी नहीं होते । इनमें किसी अज्ञात डर की भावना नहीं होती । ये दूसरों को समझाने की बजाय स्वयं समझने की कोशिश करते हैं, दूसरों के विचारों को धैर्य से सुनते हैं। बंद मानसिकता वाले लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। इनमें डर और असुरक्षा की भावना प्रबल होती है इसीलिए ये दूसरों पर हावी होने की कोशिश लगातार करते रहते हैं । ये लोग नहीं चाहते कि कोई दूसरा उन्हें समझाए, दूसरों की बातों को सुनना इन्हें पसंद नहीं ।

खुली मानसिकता वाले लोग तथ्यों और तर्कों को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं । ये अपनी राय देने के पहले जानना और सीख लेना जरूरी समझते हैं । इन में एक से अधिक परस्पर विरोधी विचारों की समझ होती है । ये दूसरों के नज़रिए से भी चीजों को देखना जानते हैं । जबकि बंद मानसिकता वाले लोग कुतथ्य और कुतर्क जैसी बैसाखियों के सहारे आगे बढ़ना चाहते हैं । निराधार बातें करना इन्हें अच्छा लगता है । इन के मस्तिष्क में केवल खुद का ही विचार होता है, उस विचार से अलग किसी अन्य विचार के बारे में ये कुछ जानना भी नहीं चाहते । यदि कोई बताना भी चाहे तो ये जोर देकर कहते हैं-‘चुप रहो’ । दूसरों के नजरिए से इन्हें कोई मतलब नहीं ।

और....सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि बंद मानसिकता वाले लोग स्वयं को कभी भी ‘बंद मानसिकता वाला’ नहीं मानते ।

(एंटिनोरी, स्टेनोविच, कार्टर, रे डालिओ, सिमिली आदि मनोवैज्ञानिको के अध्ययनों पर आधारित)

4 comments:

Anonymous said...

"बंद मानसिकता वाले लोग स्वयं को कभी भी ‘बंद मानसिकता वाला’ नहीं मानते"

जड़ तो यही है फिर सुधार कैसे होगा?

प्रशंसनीय प्रस्तुति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (25-12-2019) को    "यीशू को प्रणाम करें"  (चर्चा अंक-3560)    पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

Bharat Bhushan said...

बहुत बढ़िया महेंद्र जी. आपके विस्तृत आलेख से 'बंद मानसिकता' को समझने में काफी मदद मिली.

Anonymous said...
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