जा जा रे अपने मंदिरवा-पं. जसराज


 

                                                       पं. जसराज (28 जनवरी, 1930-17 अगस्त, 2020)

 

संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज को अपने जीवन काल में एक ऐसा सम्मान मिला जो भारतीय संगीत के किसी भी साधक को नहीं मिला । 11 नवंबर, 2006 को अंतरराष्ट्रीय खगोलिकी संगठन ने मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच खोजे गए एक नवीन लघुग्रह का नाम पं. जसराज के नाम पर रखा । यह भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए भी गौरव की बात है ।
 

मेवाती घराने की पाँचवी पीढ़ी के संगीत-नक्षत्र पं. जसराज हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन संगीत के पुरुष कलाकारों में स्वर्णमानक माने जाते हैं, उसी तरह, जैसे महिला कलाकारों में किशोरी अमोनकर । संगीत उनकी पारिवारिक विरासत है । पं. जसराज के पिता पं. मोतीराम तत्कालीन कश्मीर राज्य के दरबारी गायक थे । इनके दो भाई पं. प्रतापनारायण और पं. मणिराम भी शास्त्रीय गायक थे । प्रारंभ में पं. जसराज ने तबले की शिक्षा प्राप्त की । वे अपने भाई पं. मणिराम के साथ कार्यक्रमों में तबला संगत करते । उस दौर में वे पं. रविशंकर, पं. कुमार गंधर्व जैसे बड़े कलाकारों के साथ तबला संगत किया करते थे । किंतु गायन के प्रति तीव्र ललक ने उन्हें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का शीर्षस्थ गायक बना दिया । पं. जसराज ने गायन की शिक्षा अपने बड़े भाई पं. मणिराम, महाराज जयवंत सिंह वाघेला और मेवाती घराने के उस्ताद गुलाम कादिर खान से प्राप्त की ।
 

अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था- ‘‘मेरे स्कूल के रास्ते में एक रेस्तराँ था जहां ग्रामोफोन में संगीत के रिकॉर्ड बजते रहते थे । मैं स्कूल न जा कर वहीं फुटपाथ पर बेगम अख्तर के गीतों को सुनता रहता था । एक दिन शिक्षक ने मेरे बारे में मेरी माँ से पूछा कि क्या वह अस्वस्थ है, बहुत दिनों से स्कूल नहीं आ रहा है ! घर वालों ने मुझे बहुत डाँटा था । मुझे पढ़ाई में कोई रुचि नहीं थी, केवल संगीत से लगाव था ।’’
पं. जसराज का प्रथम सार्वजनिक कार्यक्रम 1952 में नेपाल के तत्कालीन महाराजा त्रिभुवन वीर विक्रम ने आयोजित करवाया था । गायन के प्रारंभिक 6-7 वर्षों में वे अपने भाई पं. मणिराम के साथ युगलबंदी ही प्रस्तुत करते थे । साणंद के महाराज जयवंतसिंह की एक बंदिश ‘माता कालिका महारानी जगज्जननी भवानी’ को उन्होंने राग अड़ाना में निबद्ध कर प्रस्तुत किया था जो बहुत लोकप्रिय है । सन् 1959 में अहमदाबाद में उनके जुगलबंदी गायन को श्रोताओं ने इतना सराहा कि प्रातः तक इन्हीं दोनों भाइयों का गायन होता रहा ।
 

पद्मविभूषण पं. जसराज के गायन को उनका स्वर-लालित्य और स्वर-गांभीर्य अन्य शास्त्रीय गायकों के गायन से विशिष्ट बनाता है । उनके विलंबित खयाल गायन में सुरों की गहराई और द्रुत में तानों की सपष्टता एवं सजीवता अनुपम है । तीनों सप्तकों में स्वरों का निर्दोष प्रदर्शन उनकी गायकी की विशिष्टता है । आकर्षक मुरकियाँ और गंभीर गमक उनके गायन की प्रवीणता का परिचय देती हैं । खयाल गायन के पश्चात प्रस्तुत किए गए उनके भजनों में झलकती सात्विकता अन्यत्र दुर्लभ है । उनके अनेक शिष्यों में पं. संजीव अभ्यंकर, रतन मोहन शर्मा और विदुषी कला रामनाथ ने विशेष ख्याति अर्जित की है ।
 

भारतीय शास्त्रीय गायकी को संपूर्ण शुद्धता के साथ प्रस्तुत करने के लिए पं. जसराज सदैव याद किए जाएंगे । सन् 1987 में एक कार्यक्रम में वे राग तोड़ी प्रस्तुत कर रहे थे । तभी एक हिरण अचानक श्रोताओं के पीछे आकर खड़ा हो गया और मंच की ओर मुँह किए 5 मिनट तक खड़ा रहा । उल्लेखनीय है कि राग तोड़ी का संबंध हिरण से है । 16 वीं शताब्दी में आगरा के एक गायन कार्यक्रम में प्रसिद्ध गायक तानसेन और बैजू बावरा ने राग तोड़ी गाया था । कहा जाता है कि हिरणों का एक झुंड उनके सामने आकर खड़ा हो गया था । भारतीय शास्त्रीय संगीत के संदर्भ में यह माना जाता है कि यदि राग को शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाए तो वह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है ।
 

सन् 1994 में इसी प्रकार के एक और प्रसंग के संबंध में पंडित जी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि गुजरात के एक कार्यक्रम में राग मल्हार गाने के बाद वर्षा होने लगी थी । ऐसा ही राजस्थान और दिल्ली के कार्यक्रमों में पूर्णिमा की रात को घटित हुआ था जहाँ कार्यक्रम के पहले वर्षा का कोई संकेत नहीं था । उन्होंने कहा था- ‘‘इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं थी बल्कि संगीत का प्रभाव था । यदि आप भीतर से गाते हैं तो आप ब्रह्माण्ड को आकर्षित करते हैं और यही शास्त्रीय संगीत की सुंदरता है ।’’ इतने गुणी और महान कलाकार होने और देश-विदेश में प्रसिद्धि और सम्मान पाने के बावजूद उनमें लेशमात्र भी अहंभाव नहीं था । उनका कहना था- ‘‘यदि मैं कहूँ कि मैंने कुछ हासिल किया है तो इसका अर्थ है कि मेरा जीवन रुक गया है । मैंने कुछ हासिल नहीं किया है । मैं तो बस संगीत के प्रवाह में बहते रहना चाहता हूं ।’’
 

पं. जसराज की गाई अनेक रचनाओं में से कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ- राग भैरव में ‘अब न मोहे समझाओ कान्ह तुम’, राग मधुमद सारंग में ‘रसिकनी राधा पलना झूले’, राग दरबारी में ‘जय जय श्री दुर्गे’, भीमपलासी में ‘जा जा रे अपने मंदरवा’, राग मेघ में ‘मन मेरे सुहाई बरखा ऋतु आई’, भैरव में ‘मेरो अल्ला मेहरबान’ आदि ।
 

भले ही उनका शरीर अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनके मधुर स्वरों से सजी गायकी युगों तक आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करती रहेगी ।

उनके गायन को सुनना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी -

प्रस्तुत है, पंडित जसराज की एक प्रसिद्ध रचना - 

जा जा रे अपने मंदिरवा,राग भीमपलासी , छोटा ख्याल , मध्य-द्रुत तीन ताल


 


-महेन्द्र वर्मा







4 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर। नमन पंडित जसराज जी को।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

विनम्र नमन।

sanskriti said...

पंडित जसराज के बारे अनोखी जानकारी मिली।

Amrita Tanmay said...

पंडित जी का प्रवाह सतत बहता रहेगा ।