जाने -पहचाने बरसों के फिर भी वे अनजान लगे,
महफ़िल सजी हुई है लेकिन सहरा सा सुनसान लगे ।इक दिन मैंने अपने ‘मैं’ को अलग कर दिया था ख़ुद से,
अब जीवन की हर कठिनाई जाने क्यों आसान लगे ।
चेहरे उनके भावशून्य हैं आखों में भी नमी नहीं,
वे मिट्टी के पुतले निकले पहले जो इन्सान लगे ।
उजली-धुँधली यादों की जब चहल-पहल सी रहती है,
तब मन के आँगन का कोई कोना क्यों वीरान लगे ।
होते होंगे और कि जिनको भाती है आरती अज़ान,
हमको तो पूजा से पावन बच्चों की मुस्कान लगे ।
-महेन्द्र वर्मा