औपनिषदिक ब्रह्म और ऊर्जा



उपनिषदों में ब्रह्म की अवधारणा एक दार्शनिक अवधारणा है, धार्मिक अवधारणा नहीं । वेदों के संहिता खंड में बहुत सी प्राकृतिक शक्तियों के लिए प्रार्थनाओं का उल्लेख है । ब्राह्मण खंड में इन प्राकृतिक शक्तियों की उपासना के लिए कर्मकाण्ड का विधान वर्णित है । इस कर्मकाण्ड की प्रतिक्रिया के रूप में उपनिषदों में ऋषियों ने एक नया विचार प्रस्तुत किया जो आगे चलकर भारतीय दर्शन का मूल बना। इस विचार के अंतर्गत ब्रह्म की अवधारणा प्रस्तुत की गई जो वेदों में उल्लेखित प्राकृतिक शक्तियों का केवल एकीकृत रूप ही नहीं है बल्कि विशाल ब्रह्माण्ड से लेकर सूक्ष्म कण जैसे पदार्थों तक, अमूर्त भौतिक शक्तियों से लेकर भावनाओं तक का समेकित रूप है।

ब्रह्म के वर्णन में विचारणीय बात यह है कि इसमें और आधुनिक विज्ञान की ऊर्जा संबंधी तथ्यों में बहुत अधिक समानता परिलक्षित होती है ।

आधुनिक विज्ञान मुख्य रूप से पदार्थ और ऊर्जा का अध्ययन करता है । संपूर्ण ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों की परस्पर प्रतिक्रिया से संचालित है । ऊर्जा के संबंध में विज्ञान के विचार ये हैं-

1.    ऊर्जा उत्पन्न नहीं की जा सकती और न ही नष्ट की जा सकती है । दूसरे शब्दों में, इस ब्रह्माण्ड में जितनी ऊर्जा है उतनी पहले भी थी और उतनी ही हमेशा रहेगी । यहां जितनी और उतनी शब्दों को अनंत के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ।
2.    ऊर्जा एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित हो जाती है, स्वाभाविक रूप से अथवा प्रयास द्वारा ।
3.    ऊर्जा के द्वारा कार्य संपन्न होता है अर्थात यह प्रत्येक कार्य का कारण है ।
4.    ऊर्जा स्वयं को अनेक रूपों में व्यक्त करती है, स्वाभाविक रूप से या प्रयास द्वारा ।
5.    चूंकि ऊर्जा पदार्थ नहीं है इसलिए इसका कोई रूप-आकार, रंग-गंध, घनत्व-आयतन आदि जैसा  गुण नहीं होता ।
6.    प्रत्येक पदार्थ में ऊर्जा निहित है ।
7.    पदार्थ ऊर्जा में और ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तित होती रहती है ।
8.    ऊर्जा वह है जिसके कारण कोई कार्य संपन्न होता है ।
9.    पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।


उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी विचारों में यद्यपि उस समय तक उपलब्ध तार्किक ज्ञान और उस समय की चिंतन शैली और उस समय की काव्यमय भाषा झलकती है फिर भी ब्रह्म के लक्षण संबंधी मूल विचार स्पष्ट हैं, जिन्हें हम तथ्य कह सकते हैं । इन तथ्यों में यदि ब्रह्म के स्थान पर उर्जा रखकर मनन करें तो भी ये कथन ऊर्जा के संदर्भ में सही हैं । इन पर विचार करें और ब्रह्म की ऊर्जा से तुलना करें -

अनाद्यनंतम् महतः परं ध्रुवं । कठोपनिषद, 1।3।15

ब्रह्म अनादि और अनंत है, श्रेष्ठ है और दृढ़ सत्य है ।
ऊर्जा का भी प्रारंभ और अंत नहीं होता ।

नित्यं विभुं सर्वगतं ।
मुंडक 1।1।6

ब्रह्म नित्य है, व्यापक है और सब में विस्तारित है ।
ऊर्जा भी शाश्वत है, सर्वत्र है और सभी पदार्थों में है ।

अक्षरात्संभवतीह विश्वं। मुंडक 1।1।7

अविनाशी ब्रह्म से ही इस सृष्टि में सब कुछ उत्पन्न होता है ।
ऊर्जा से ही पदार्थों की उत्पत्ति होती है, पहले निर्जीव बाद मे क्रमशः सजीव।

सर्वखल्वमिदम् ब्रह्म । छान्दोग्य 3।14।1

यह संपूर्ण विश्व ब्रह्म है ।
चूंकि पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित होता है इसलिए विश्व को ऊर्जामय कह सकते हैं ।

एकं रूपं बहुधा यः करोति । कठ, 2।2।12

ब्रह्म अपने एक रूप को ही विविध रूपों में व्यक्त करता है ।
सभी प्रकार के पदार्थ ऊर्जा के ही रूपांतरण हैं । एक  ही ऊर्जा  विभिन्न  प्रकार की ऊर्जा में रूपांतरित हो सकती है ।

इदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । छांदोग्य 6।2।1

आरंभ में यह एकमात्र अद्वितीय ही था ।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के पहले केवल ऊर्जा ही विद्यमान थी, कृष्ण विवर के रूप में । महाविस्फोट सिद्धांत यही व्यक्त करता है ।

यतो वा इमानिभूताति जायन्ते येन जातानि जीवन्ति,
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासत्व ।
तैत्तिरीय, 3।1।1

ब्रह्म सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और अनंत है, जिनसे ये सम्पूर्ण पदार्थ जन्म लेते, जन्म लेकर जिनसे जीवन धारण करते तथा प्रलय के समय जिनमें पूर्णतः प्रवेश कर जाते हैं, उनको जानने की इच्छा करो ।
पदार्थ ऊर्जा के कारण ही अस्तित्व में आते हैं, ऊर्जा के कारण ही उनका अस्तित्व बना रहता है और ऊर्जा के कारण ही वे नष्ट होकर पुनः ऊर्जा में रूपांतरित हो जाते हैं ।

अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घमलोहितमस्नेहमच्छायमतमो अवाय्वनाकाशमसड.गमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनो अतेजस्कमप्राणममुखममात्रमनन्तरमबाह्यम् बृहदारण्यक 3।8।8

वह ब्रह्म न स्थूल है, न अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है न आकाश है, न संग है, न रस है, न गंध है, न नेत्र है, न कर्ण है, न वाणी है, न मन है, न तेज है, न प्राण है, न मुख है, न माप है, उसमें न अंतर है न बाहर है ।
ऊर्जा के संबंध में भी ये बातें सही हैं ।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्,
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि ।
केन 1। 5

जिसका मन के द्वारा मनन नहीं होता, जिसकी शक्ति से ही मन मनन करने में समर्थ होता है, उसी को तुम ब्रह्म जानो ।
जब हम सोचते हैं तो भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है ।

येद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते। केन, 1।4

जो वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं होता, जिसके द्वारा वाणी अभिव्यक्त होती है, उसे ही तुम ब्रह्म जानों ।
हम ऊर्जा के कारण ही बोल पाते हैं ।


स आत्मा, तत्वमसि । छांदोग्य 6।8।7

यह आत्मा है, वह तुम हो ।
आत्मा भी ऊर्जा है, तुम ऊर्जा हो । चूंकि तुम कार्य कर सकते हो इसलिए तुम्हारे भीतर ऊर्जा है ।

अहं ब्रह्मास्मि । बृहदारण्यक 1।4।10

मैं ब्रह्म हूं ।
मैं ऊर्जा हूं ।

छान्दोग्य उपपिषद के 7 वें अध्याय में कहा गया है कि नाम, वाक्, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान, विज्ञान, बल, अन्न, जल, तेज, आकाश, स्मरण, आशा, प्राण ....ये ब्रह्म हैं ।
हमारे मन की भिन्न-भिन्न दशाएं और भावनाएं भी मानसिक ऊर्जा के कारण प्रदर्शित हो पाती हैं । 
 
ब्रह्म के संबंध में इतना सब वर्णन के पश्चात् भी अंत में उपनिषदों ने उसे 'नेति-नेति ' कहा है अर्थात उसके संबंध में चाहे जितना भी कहा जाए तब भी उसका पूर्ण वर्णन नहीं किया जा सकता  । दुसरे शब्दों में ब्रह्म अपरिभाषेय है । ठीक इसी तरह विज्ञान भी ऊर्जा की निश्चित परिभाषा नहीं दे सका है, ऊर्जा अपरिभाषित है । विद्यालयों में बच्चों को समझाने के लिए बताया जाता है कि 'कार्य करने की क्षमता को ऊर्जा कहते हैं ', किन्तु यह ऊर्जा का एक अत्यंत सीमित अर्थ है , सम्पूर्ण परिभाषा नहीं ।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि ब्रहम की अवधारणा ऊर्जा की अवधारणा से बिल्कुल मेल खाती है । ब्रह्म के बारे में जो कुछ भी कहा गया है वे सारी बातें ऊर्जा के लिए भी पूर्णतः सही हैं । प्रारंभ में रचे गए 10 मुख्य उपनिषदों में ब्रह्म संबंधी ऐसे ही अनेक उदाहरणों की प्रचुरता है । यहां केवल कुछ ही दिए गए हैं । यह चर्चा दर्शन से संबंधित है। वर्तमान समय में दर्शन के अंतर्गत परंपरागत विषयों पर चर्चा नहीं की जाती क्योंकि जो कभी दर्शन के विषय थे उनमें से अनेक का अब विज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन होता है, जैसे सृष्टि की उत्पत्ति और उसका विकास, सृष्टि को संचालित करने वाली शक्ति आदि  । प्रारंभिक उपनिषदों के बाद के विद्वानों ने ब्रह्म को  सगुण और निर्गुण में विभाजित कर दिया । अब निर्गुण ब्रह्म दर्शन के क्षेत्र में आ गया और सगुण ब्रह्म धर्म का विषय हो गया । तब से लोगों ने निर्गुण ब्रह्म को भुला दिया । ब्रह्म के इस विभाजन के फलस्वरूप भ्रमपूर्ण धर्म का विकास हुआ और  भारतीय दर्शन आहत हुआ ।  आस्थावानों के मन की संतुष्टि के लिए कह दिया जाता है  कि दोनों में कोई अंतर नहीं । ब्रह्म का विभाजन दर्शन ने नहीं किया बल्कि धर्म ने किया । औपनिषदिक  दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सर्वोच्च शक्ति है यानी  ऊर्जा ही सर्वोच्च शक्ति है ......!



-महेन्द्र वर्मा

पांच सुरों का सौंदर्य





ज्योति कलश छलके,
हुए गुलाबी लाल सुनहरे
रंग दल बादल के.....

यह एक पुरानी फ़िल्म का गीत है । यह गीत आपको आज भी अच्छा लगता होगा। इस गीत की कई ख़ूबियों में से एक यह है कि इस गीत की धुन केवल पांच सुरों के मेल से बनी है । इस गीत के कर्णप्रिय होने का एक कारण यही पांच सुर हैं । हम जो गाने सुनते, गाते या बजाते हैं उनमें छह और सात सुरों का उपयोग सामान्य है । कुछ गीतों में तो सभी बारह सुर लगाए गए हैं । संगीत के जानकारों का कहना है कि पांच से कम सुरों से कोई राग नहीं बन सकता । किसी गीत को गाने के लिए कम से कम पांच सुरों की आवश्यकता तो होगी ही ।

पांच सुरों से सजा केवल ‘ज्योति कलश छलके’ ही नहीं है, हज़ारों गीत हैं । ‘पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में’, ‘जाने कहां गए वो दिन’, ‘नीले गगन के तले धरती का प्यार पले’, ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’, ‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं’ आदि फ़िल्मी गीतों के अलावा अनेक गैरफिल्मी गीत, ग़ज़ल, भजन आदि भी हैं । लोक गीत भी हैं, शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन पांच सुरों वाले रागों में भी होता ही है । केवल हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के हर क्षेत्र में पांच सुर वाले गीत-संगीत  लोकप्रिय हैं । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि छह या सात सुर वाले गीत-संगीत कम लोकप्रिय हैं । संगीत प्रिय ही होता है, चाहे लोक का हो या शास्त्र का ।

पांच सुरों वाले गीतों की कर्णप्रियता प्राकृतिक और आदिम है । इस बात को पचास हज़ार वर्ष हो गए जब मनुष्य ने नैसर्गिक रूप से गुनगुनाना सीख लिया था या कहें, विकसित कर लिया था। मां जब अपने शिशु को सुला रही होती है तो वह सहसा गुनगुनाने भी लगती है । यह गुनगुनाना वही आदिम गुनगुनाना है । वही भावना और वही स्वर। इस गुनगुनाने में स्वाभाविक रूप से तीन, चार या अधिकतम पांच सुरों का प्रयोग होता है। बच्चों के खेल गीतों में भी प्रायः तीन से पांच सुरों का प्रयोग होता है ।

अतीत के गीत-संगीत में पांच सुरों के प्रयोग का एक पुरातात्विक प्रमाण भी मिला है । दक्षिण जर्मनी की पहाड़ियों की एक गुफा में एक बांसुरी जैसा वाद्ययंत्र मिला है । यह किसी पक्षी की हड्डी से बना है । इसमें चार छेद हैं जो यह दर्शाते हैं कि इससे पांच स्वर उत्पन्न किए जाते थे । पुरातत्वविदों ने इसे चालीस-पचास हज़ार साल पुराना माना है । पांच सौ ई.पू. के तमिल संगम साहित्य में पांच सुरों के समूह ‘पन्’ का उल्लेख है । पांच सुर वाले रागों की परंपरा यहीं से प्रारंभ हुई ।

प्राचीन गीतों में सात सुरों में से शुरू के लगातार तीन, चार या पांच सुरों की प्रधानता होती थी । बाद के विकास क्रम में जब मनुष्य में सुरों का सौंदर्यबोध थोड़ा और विकसित हुआ तो उसने अनुभव किया कि नैसर्गिक सात सुरों में से बीच के दो सुरों (जैसे ग और नि) को छोड़ दें तो केवल पांच सुरों के गाने में कहीं अधिक मधुरता होती है। विश्व के अनेक भागों में आज भी पांच सुरों वाला गीत-संगीत उनकी संस्कृति की पहचान है । अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, यूरोप और एशिया के अनेक देशों में पांच सुर वाले गीत लोकप्रिय हैं । चीन और जापान के संगीत विधान में तो पांच सुरों की ही प्रधानता है । हिंदी फ़िल्म ‘लव इन टोकियो’ के गीत ‘सायोनारा सायोनारा’ को जापानी संगीत में ढालने की कोशिश की गई है।

भारत के अनेक राज्यों के लोकगीतों में पांच सुर मिलते हैं । हिमाचल और उत्तरांचल के पारंपरिक लोकगीतों में पांच सुरों की मधुरता स्पष्ट झलकती है । शास्त्रीय राग दुर्गा का विकास यहीं के लोकगीत से हुआ है । गुजरात का गरबा गीत भी पांच सुरों का है । ‘पंखिड़ा ओ पंखिड़ा’ आपने ज़रूर सुना होगा । असम के बिहू नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत भी पांच सुरों से सजे होते हैं।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में पांच सुर वाले 30 से अधिक राग हैं । हिंदी फिल्मों के अनेक गीत इन्हीं रागों पर आधारित हैं । कुछ उदाहरण देखिए- ‘चंदा है तू मेरा सूरज है तू’, ‘जा तोसे नहीं बोलूं कन्हैया’, ‘मन तड़पत हरि दरसन को आज’, ‘आ लैट के आजा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, ‘बहारों फूल बरसाओ’, ‘कहीं दीप जले कहीं दिल’, ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’, ‘मेरे नैना सावन भादों’ आदि ।

इन गीतों की मधुरता के कई कारणों में एक यह है कि इनके सभी पांच सुर परस्पर सुसंगत होते हैं। दो सुर अनुपस्थित होने के कारण जो ‘गेप’ बनता है वह गीत में विशेष प्रभाव उत्पन्न करता है । लेकिन ये सुर सभी गीतों में एक जैसे नहीं हैं । कुल बारह सुरों में से कोई पांच ऐसे सुर चुने जाते हैं जो सुनने में रंजक लगे । एक शोध का निष्कर्ष है कि इन से जो राग बने हैं उनको सुनने से मस्तिष्क को शांत और प्रसन्न रखने वाले रसायन ‘डोपामाइन’ के स्तर में वृद्धि होती है ।

-महेन्द्र वर्मा

सप्ताह के दिनों का नामकरण - कब, कहां, कैसे ?



समय की गणना के लिए सप्ताह एकमात्र ऐसी इकाई है जो किसी प्राकृतिक घटना पर आधारित नहीं है । समय की अन्य सभी इकाइयां जैसे, वर्ष, महीना, दिन, घटी, घंटा, किसी न किसी प्राकृतिक घटना से संबंद्ध हैं । चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं के आधार पर दिनों की गणना की प्रक्रिया आदिम लोगों ने प्रारंभ की थी, किसी गणितज्ञ या वैज्ञानिक ने नहीं । दुनिया के अनेक क्षेत्रों में इन 15 दिनों के क्रमसूचक नामों का उपयोग आज भी होता है जैसे, भारत में पूर्णिमा या अमावस्या के बाद प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया और ग्रामीण इलाकों में परिवां, दूज, तीज आदि । तिथियों से दिनों को जानने की परंपरा 50 हज़ार वर्ष पुरानी है । आज दुनिया भर में सप्ताह और इस के सात दिनों के नाम चलन में हैं । ये नाम फलित ज्योतिष में प्रचलित ग्रहों के नामों पर आधारित है। दिनों के नामकरण की प्रक्रिया अतीत में 2000 वर्षों तक क्रमशः विकसित होती रही ।

सप्ताह की अवधारणा की शुरुआत कब और कहां हुई इस का परीक्षण पहले भारत से ही प्रारंभ करते हैं । हमारे देश के सबसे प्राचीन लिखित साहित्य वेदों (रचना काल 2500 ई.पू.) से लेकर महाभारत (रचना काल 500 ई.पू.) तक के विशाल साहित्य में दिनों के नामों का कहीं उल्लेख नहीं है । लगध रचित ऋग्वेदीय वेदांग ज्योतिष में तो सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रह का नाम तक नहीं है ।

अथर्ववेदीय वेदांग ज्योतिष (500 ई.पू.) के एक श्लोक में दिनों के स्वामी के रूप में ग्रहों के नामों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त सप्ताह या दिनों के संबंध में और कोई विवरण नहीं है । चौथी शती में रचित याज्ञवल्क्य स्मृति में फलित ज्योतिष के नौ ग्रहों के नाम हैं । इस श्लोक में विशेष बात यह है कि प्रथम सात ग्रहों के नाम उसी क्रम में हैं जिस क्रम में दिनों के नाम आज प्रचलित हैं । प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट ने अपनी पुस्तक आर्यभटीयम् (5वीं शती) में ‘होरा’ के स्वामी ग्रहों का उल्लेख किया है किंतु यह नहीं लिखा है कि यही दिनों के नाम भी हैं । आगे चर्चा करेंगे कि ‘होरा के स्वामी’ से किसी दिन के नाम का निर्धारण कैसे होता है ।

किसी दिवस या दिन के नाम का सर्वप्रथम उल्लेख पांचवी शती के एक शिलालेख में अंकित है । मध्यप्रदेश के सतना ज़िले में एरण एक पुरातात्विक स्थल है । यहां एक पाषाण स्तंभ के लेख में तिथि के साथ ‘सुरगुरुर्दिवसे’ अंकित है जिसका स्पष्ट अर्थ है- गुरुवार के दिन । प्रसिद्ध गणितज्ञ वराहमिहिर (6वीं शती) लिखित पंचसिद्धांतिका के पहले अध्याय में एक श्लोक में सोमदिवस अर्थात सोमवार का उल्लेख है ।

उक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि ई.सन् की चौथी-पांचवीं शती के पहले तक भारत में सप्ताह और  उसके दिनों के नाम प्रचलित नहीं थे। पांचवी शती के बाद दिनों के नाम ग्रंथों में मिलने शुरू होते हैं लेकिन हमारे किसी भी प्राचीन ग्रंथ में इस बात का कोई विवरण नहीं मिलता कि सप्ताह की शुरुआत कब और कैसे हुई और दिनों के नाम ग्रहों के नाम पर क्यों रखे गए हैं । ‘भारतीय ज्योतिष’ के विद्वान लेखक शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने लिखा है- ‘‘वारों की उत्पत्ति हमारे देश में नहीं हुई है क्योंकि उनकी उत्पत्ति का संबंध ‘होरा’ नामक अवधारणा से है जो हमारे देश का नहीं है ।’’

‘होरा’ शब्द मूलतः लैटिन horae और ग्रीक ώρα ओरा है जिसका अर्थ है- एक निश्चित समयावधि । दिन-रात के समय को छोटी इकाइयों में विभाजित करने का प्रयास सब से पहले इज़िप्त में 2400 ई.पूर्व हुआ था लेकिन इसकी जड़ें बेबीलोन, खाल्दिया और सुमेर से जुड़ी हुई थीं। यहां के खगोल विज्ञान में रुचि रखने वाले लोगों ने धूप घड़ी की सहायता से सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को दस भागों में विभाजित किया । सुबह-शाम के उजाले की अवधि को मिला कर बारह भाग बनाए । रात की अवधि को कुछ विशेष तारा-समूहों के आधार पर बारह विभाग किए । इस प्रकार दिन-रात की अवधि को चौबीस भागों में विभाजित किया । तब ये विभाग समान नहीं थे । बाद में जल घड़ी के द्वारा चौबीस भागों को समान किया गया । समय विभाजन की यह अवधारणा जब ग्रीस पहुंची तो वहां इसे ‘ओरा’ नाम दिया गया जो लैटिन में ‘होरा’ और अंग्रेज़ी में ‘आवर hour’ बना । होरा संस्कृत का शब्द नहीं है । वराहमिहिर जानते थे कि होरा ग्रीक शब्द है, फिर भी उन्होंने ‘वृहद् जातक’ (1.3) में लिखा कि संस्कृत के अहोरात्र शब्द से अ और त्र को विलोपित कर देने से होरा शब्द बना । लेकिन उन्होंने अपने एक और ग्रंथ ‘वृहद् संहिता’ (2.14) में ग्रीक ज्योतिषियों की प्रशंसा करते हुए उन्हें ऋषितुल्य पूज्य माना है । भारत में वेदांग ज्योतिष काल से दिन-रात की अवधि का विभाजन 60 घटी या नाड़ी ही प्रचलित है । आज भी पंचांगों में घटी-पल में समय को दर्शाया जाता है । घंटा, मिनट और सेकंड का प्रचलन तो 17 वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में शुरू हुआ ।

महीने को कुछ दिनों के समूहों में बांटने की परंपरा भी मेसोपोटामियाई सभ्यता के बेबीलोन और खाल्दिया से आरंभ होती है । खाल्दियनों ने लगभग 2500 ई.पू. आकाश में आसानी से पहचाने जा सकने वाले 5 ग्रहों और सूर्य-चंद्रमा का एक विशेष क्रम निर्धारित किया था । सूर्य से दूरी के आधार पर इन आकाशीय पिंडों, जिसे उस समय के ज्यातिषियों ने ग्रह कहा,  का क्रम इस प्रकार है- शनि, बृहस्पति, मंगल, चंद्र, शुक्र, बुध और सूर्य। यहां दिए गए ग्रहों के नाम ग्रीक नामों के संस्कृत शब्दार्थ हैं । खाल्दियनों ने इन पिंडों को पृथ्वी से आभासित होने वाली इनकी गतियों के आधार पर आरोही क्रम में इस प्रकार रखा- शनि, बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा। उनकी मान्यता थी कि दिन-रात के 24 होरा भागों में प्रत्येक ग्रह का ‘शासन’ होता है । तदनुसार प्रत्येक होरा के लिए उपरोक्त क्रम से एक-एक ग्रह शासक बनाए गए । फिर यह तय किया गया कि सूर्योदय के समय जिस ग्रह की होरा होगी उसी ग्रह के नाम पर पूरे दिन का नाम होगा ।

पहली बार जब यह नियम लागू हुआ तो उस दिन सूर्योदय के समय की होरा को सूर्य द्वारा शासित ‘मान लिया गया’ क्योंकि सूर्य सबसे बड़ा और सर्वाधिक पूज्य ‘ग्रह’ था । 24 होरों के साथ सूर्य से प्रारंभ कर क्रमशः एक-एक ग्रह रखे जाएं तो पच्चीसवां ग्रह चंद्रमा होगा जो अगले दिन सूर्योदय के समय के होरा का शासक या स्वामी होगा और इसलिए उस पूरे दिन का नाम भी । यही क्रम निरंतर रखे जाने पर दिनों के नामों का अग्रलिखित क्रम बनता है- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि । यही 7 दिनों का समूह या सप्ताह बना । इसके समकालीन प्राचीन सभ्यताओं- मिस्र में 10, ग्रीक और रोमनों में 8  दिनों का समूह प्रचलित था । ग्रीक शासकों ने सबसे पहले इस पद्धति को अपनाया ।

अब इस बात की चर्चा कर लें कि यह पद्धति भारत में कब और कैसे आई । 326 ई.पू. ग्रीक के शासक अलेक्ज़ेन्डर ने भारत पर आक्रमण किया । इसी के बाद से भारत और ग्रीक में ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान प्रारंभ हुआ जिसमें ज्योतिषीय ज्ञान भी था । ई की दूसरी शती में उज्जयनी में स्फुजिध्वज नामक राज्याधिकारी ने यवनजातक नामक ग्रंथ संस्कृत में लिखा था । ग्रीस को संस्कृत में यूनान और वहां से संबंधित बातों और निवासियों को यवन कहते हैं । इस यवनजातक ग्रंथ के एक श्लोक (77.9) का अनुवाद यह है- ‘‘यवन ज्योतिषियों ने सप्ताह के विभिन्न दिनों में लोगों के करने लायक जो-जो कार्य बताए हैं उन्हें प्रत्येक होरा के लिए भी लागू मानना चाहिए ।’’ इसी ग्रंथ के साथ भारत में सप्ताह, दिनों के नाम और होरा का प्रवेश हुआ । अगले 2-3 शताब्दियों के बाद दिनों के नाम के साथ अनेक काल्पनिक बातें लेखकों ने लिखनी शुरू कर दीं जिन्हें आज लोग भ्रमवश वैदिक और धार्मिक मान लेते हैं ।

एक बात और-यदि बेबीलोनवासी होरा से दिनों का नामकरण 1-2 दिन पहले या बाद में शुरू किए होते तो आज के दिन का नाम वह नहीं होता जो आज है !

-महेन्द्र वर्मा

ददरिया में विविध ताल-शैलियों का प्रयोग



छत्तीसगढ़ में आज से 40-50 साल पहले तक ददरिया गीत अपने मौलिक स्वरूप में विद्यमान था । इस मौलिक रूप की कुछ विशेषताएं थीं- खेतों में काम करने वाले श्रमिक इसे गाया करते थे । इस गीत के साथ किसी वाद्य-यंत्र का प्रयोग नहीं होता था । दो अवसरों पर यह गीत अधिक सुनाई देता था- जब श्रमिक जेठ के महीने में रात के समय गाड़ा हांकते हुए धान के खेतों में देशी खाद डालने जाते थे । ये तार सप्तक में बहुत ऊंचे सुर में गाते थे । धान के खेतों में रोपा लगाते समय या निंदाई करते समय ददरिया समूह गीत के रूप में गाया जाता था । नाचा की प्रस्तुति में भी प्रसंगवश ददरिया की दो-चार पंक्तियां गाई जाती थीं ।


ददरिया में भले ही वाद्य यंत्रों का उपयोग नहीं होता था लेकिन उसमें सुर और ताल अवश्य होता था । इसकी लय विलंबित होती थी । गाते समय किसी सुर में देर तक ठहराव बार-बार होता था । पुराने समय के ददरिया का एक आदर्श उदाहरण मुझे इंटरनेट में मिला । भारती भाषाओं का सर्वेक्षण करने वाले प्रसिद्ध विद्वान जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के सहयोगियों ने सन् 1917 ई. में रायपुर के बृजलाल यादव के स्वर में एक ददरिया रिकार्ड किया था । 102 साल पुरानी यह प्रस्तुति निस्संदेह मौलिक ददरिया गायन का श्रेष्ठ उदाहरण है । इसमें ददरिया के चार पद हैं जो आज भी गाए जाते हैं । एक पद यह है-

नइ दिखय रूख राई, नइ दिखय गांव,
नइ दिखय लेवइया, काकर संग जांव ।



गाते समय संगी, रे, दोस, जंवारा, लिए जा और रंगरेली- इन अतिरिक्त शब्दों का प्रयोग हुआ है जो ददरिया की एक और मौलिक विशेषता है ।


ददरिया के उक्त उदाहरण में जो सुर प्रयोग में लाए गए हैं वे एक ही सप्तक के भीतर हैं । इसमें राग पीलू की झलक मिलती है । इसके साथ कोई भी वाद्य-यंत्र प्रयुक्त नहीं हुआ है इसलिए गीत किस ताल में है यह तत्काल नहीं पहचाना जा सकता । गीत की लय को ध्यान से सुनने और स्वरों पर बलाघात को गिनने से पता चलता है कि यह कहरवा ताल में गाया गया है । ददरिया नाम के कारण प्रायः यह समझा जाता है कि इसमें दादरा ताल का प्रयाग होता है । लेकिन ऐसा नहीं है, ददरिया में कहरवा का भी प्रयोग होता है । ताल की चर्चा इसलिए क्योंकि ददरिया के लोक-शैली के तालों में जो विशेषता है वह कहीं और नहीं है । तालों के मध्यलय और दु्रत में वादन की शैली मोहक है ।


1965 में निर्मित पहली छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘कहि देबे संदेश’ में एक ददरिया गीत है । इसमें गाने के दौरान किसी ताल-वाद्य का प्रयोग नहीं किया गया है। 1971 में  दूसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म ‘घर द्वार’ में एक ददरिया है- ‘गोंदा फुलगे मोरे राजा ’, इस गीत में कहरवा ताल प्रयुक्त हुआ है । लेकिन इन दोनों गीतों में छत्तीसगढ़ की लोक-अनुभूति अनुपस्थित है । 1971 के आसपास ही आकाशवाणी रायपुर में स्व. शेख हुसैन के ददरिया गीतों की रिकार्डिंग की गई । इनके गाए हुए सभी ददरिया गीत 6 मात्रा के दादरा ताल में है। अपने समय के ये मशहूर गीत थे ।


इसके बाद प्रसिद्ध लोक कलामंच ‘चंदैनी गोंदा’ ने तो ददरिया को खेतों से आमंत्रित कर मंच पर स्थापित कर दिया । स्व. खुमान साव द्वारा संगीतबद्ध किए गए इसके ददरिया गीतों में लय-सुर-ताल का बिल्कुल नया किंतु कर्णप्रिय समन्वय हुआ । पहली बार छत्तीसगढ़ी लोक-तालों का सुंदर प्रयोग उनके गीतों में सुनाई देता है । प्रसिद्ध ददरिया ‘मंगनी म मांगे मया नइ मिले’ इसी तरह का एक नया प्रयोग था जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ । इस गीत में द्रुत कहरवा की एक विशिष्ट लोकशैली का प्रयोग किया गया है जिसे प्रायः देवार कलाकार मांदर में बजाते हैं ।


 ‘चंदैनी गोंदा’ का एक और ददरिया गीत उल्लेखनीय है ।किस्मत बाई देवार की खनकती आवाज़ ने ‘चौंरा म गोंदा रसिया मोर बारी म पताल’ जैसे पारंपरिक ददरिया के एक बहुत कम सुने गए रूप को छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधि गीत बना दिया । इस गीत में प्रयुक्त ताल 16 मात्रा का है जिसे देवार कलाकारों के द्वारा मांदर पर बजाया जाता है । इसे तीनताल की लोकशैली कहा जा सकता है । इस गीत में 8 और 16 मात्रा के 3 अलग-अलग ‘बाज’ का प्रयोग किया गया है । इस ददरिया में राग भैरवी की झलक दिखती है । लक्ष्मण मस्तुरिहा का एक ददरिया गीत ‘बखरी के तूमा नार बरोबर मन झुमे रे’ बहुत लोकप्रिय हुआ था । इस गीत में जिस ताल का प्रयोग किया गया है वह छत्तीसगढ़ के बजगरी समुदाय के द्वारा बजाया जाने वाला 12 मात्रा का एकताल है । गाने के मध्य की धुन में सामान्य दादरा ताल का प्रयोग हुआ है ।


‘सोनहा बिहान’ के कलाकारों, ममता चंद्राकर और मिथिलेश साहू के ददरिया गीत ‘चिरइया ला के गोंटी मारंव’ में 12 मात्रा के देवार शैली के मंदरहा ताल के साथ मध्य के इंटरल्यूड में मध्यद्रुत एकताल की लोक शैली का सुंदर प्रयोग किया गया है । स्व. केदार यादव ने लोकप्रिय ददरिया गीत ‘मोर झूल तरी गेंदा इंजन गाड़ी’ में 12 मात्रा के बजगरी शैली के ताल का प्रयोग किया है । 6 मात्रा वाले दादरा ताल के गीत द्रुत एकताल के साथ गाए जा सकते हैं । केदार यादव स्वयं गाते हुए इस ताल को ख़ूबसूरती से बजाते थे । ममता चंद्राकर द्वारा गाया ददरिया ‘तोर मन कइसे लागे राजा’ बिल्कुल अलग तरह की मौलिक रचना है । इसमें सीमित और पारंपरिक वाद्यों का उपयोग किया गया है । ताल-वाद्य के रूप में डफली का कहरवा ताल में सुंदर प्रयोग इस गीत को विशिष्ट बना देता है ।


ददरिया गीतों की ये ताल-शैलियां बाद के लोक गायकों के लिए प्रेरणादायी बनीं और अब अक्सर इन्हीं लोक-तालों में वर्षों तक ददरिया गीत गाए-बजाए जाते रहे। इन गीतों में पारंपरिक ताल-वाद्यो जैसे, ढोलक, मांदर, तबला, डफली, दफड़ा और निसान तक का उपयोग किया गया है । लेकिन अंत में एक और ददरिया की बात कर ही लें । फ़िल्म दिल्ली 6 में ए. आर. रहमान ने  एक पारंपरिक ददरिया गीत में 4 मात्रा के पश्चिमी ताल का प्रयोग किया है जो आजकल की भाषा में फ़्यूज़न ही कहा जाएगा। आजकल के छत्तीसगढ़ी वीडियो एल्बमों और फ़िल्मों में पारंपरिक वाद्यों के स्थान पर इलेक्ट्र्रानिक ताल-वाद्यों के प्रयोग के कारण ददरिया गीतों की गमक लुप्त होती जा रही है । ऐसे प्रयोगों में छत्तीसगढ़ की माटी की सुगंध नहीं आती।

-महेन्द्र वर्मा
                              
                    


प्राचीन उन्नत सभ्यताओं का ऐसा पतन !



विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में सिंधु घाटी, मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबीलोन, यूनान और सुमेर की सभ्यताएं सबसे अधिक विकसित थीं । 3-4 हज़ार ईस्वी पूर्व में ये सभ्यताएं ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, कला, साहित्य दर्शन और गणित के क्षेत्र में शिखर पर थीं। भारत में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि जैसे गणितज्ञ और कपिल, जैमिनी, व्यास, कणाद, पतंजलि और  गौतम जैसे महान दार्शनिक हुए । यूनान और अरब में यूक्लिड, पाइथोगोरस, उमर खय्याम, अल ख़्वारिज़्मी आदि जैसे गणितज्ञ और सुकरात, अरस्तू, अल ग़ज़ाली, अल मआरी जैसे अनेक दार्शनिक हुए । इन्हीं स्थानों के विद्वानों ने सर्वप्रथम यह प्रदर्शित किया कि मनुष्य एक बौद्धिक प्राणी है । ये सभी स्थान दक्षिण-मध्य एशिया और मध्य-पूर्व में स्थित हैं । लेकिन अब ऐसा प्रतीत होता है कि ये स्थान बौद्धिकता के तिरस्कार के केन्द्र बन गए हैं । ऐसा कहने का कुछ आधार है ।

पिछले 118 वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व भर के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों को नोबल पुरस्कार दिए जाते रहे हैं । इन पुरस्कारों को बौद्धिकता और विद्वता का मापक माना जा सकता है । अब तक के नोबल पुरस्कार विजेताओं की सूची पर ध्यान  दें तो एक चौंकाने वाला परिणाम सामने आता है । दुनिया के जो स्थान 3-4 हज़ार वर्ष पूर्व विद्वानों के गढ़ थे उन स्थानों से नोबल विजेताओं की संख्या उंगलियों में गिने जाने लायक हैं । जबकि दुनिया के उन स्थानों से जहां की प्राचीन सभ्यता का कोई इतिहास नहीं है, अब तक सैकड़ों विद्वान नोबल पुरस्कार पा चुके हैं ।

इसका कारण क्या हो सकता है ? एक बात तो तय है कि जहां अशिक्षा होगी वहां बौद्धिकता और विद्वता का कोई मूल्य नहीं होगा । अशिक्षा का एक और उपउत्पाद है- धार्मिक अनुदारता। इन कथनों को ये आंकड़े सिद्ध करते हैं-

पिछले 118 वर्षों में कुल 935 नोबल पुरस्कार दिए गए हैं, जिनमें सामान्यतया दुनिया के हर प्रमुख धर्म और  संप्रदाय के विद्वान हैं । मुस्लिम धर्म को मानने वालों की संख्या विश्व में दूसरे क्रम में सबसे अधिक है, लगभग 1 अरब 80 करोड़, उस समुदाय के केवल 12 विद्वानों को यह पुरस्कार मिला है । इन 12 पुरस्कारों में भी 7 केवल शांति के लिए है, साहित्य के लिए 2 और विज्ञान के लिए केवल 3 ।

तीसरा सबसे बड़ा धर्म हिंदू है जिसे मानने वालों की संख्या 1 अरब 10 करोड़ है । अब तक इस समुदाय के केवल 7 विद्वानों को ही नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ है । शांति के लिए 1, साहित्य के लिए 1, अर्थशास्त्र के लिए 1 और विज्ञान के लिए 4 । विज्ञान के लिए जिन 4 विद्वानों को यह पुरस्कार मिला है उनमें से 3 विदेशी नागरिकता ले चुके थे ।

विश्व का पहले क्रम का सबसे बड़ा धर्म इसाई धर्म है । इसके अनुयायियों की संख्या लगभग 2 अरब 40 करोड़ है । इस समूह के विद्वान अब तक दिए गए 935 नोबल पुरस्कारों में से कुल 654 पुरस्कार जीत चुके हैं । विश्व में इनकी जनसंख्या केवल 30 प्रतिशत है लेकिन 70 प्रतिशत नोबल पुरस्कार इन्होंने ही प्राप्त किया है ।

इससे भी आश्चर्यजनक एक और तथ्य है । दुनिया में यहूदी धर्म के मानने वालों की संख्या मात्र 1 करोड़ 45 लाख है जो हमारे गोवा प्रदेश की जनसंख्या के बराबर है । किंतु इसके अनुयायियों ने अब तक कुल 198 नोबल पुरस्कार जीता है । यह कुल दिए गए पुरस्कार का 22 प्रतिशत है जबकि इनकी जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का केवल 0.2 प्रतिशत है ।

उक्त आंकड़ों से कुछ निष्कर्ष निकलते हैं । जो समुदाय 118 वर्षां में भी अपनी जनसंख्या के अनुपात में नोबल पुरस्कार प्राप्त नहीं कर सके हैं वे ऐसे समुदाय हैं जो उच्च शिक्षा और शोधकार्यों में पीछे हैं और जो धार्मिक रूप से उदार नहीं हैं । पुरस्कार प्राप्त करने वाले समुदायों में ज्ञान-विज्ञान के प्रति आकर्षण है और वे धर्म के प्रति उदार दृष्टिकोण रखते हैं । इस संदर्भ में जापान एक अच्छा उदाहरण है ।
वहां धार्मिक पाखंड, धार्मिक कट्टरता, रूढ़िवादिता जैसी चीजों का कोई स्थान नहीं है । वे तार्किक ज्ञान पर विश्वास करते हैं । इसीलिए इस छोटे और कम जनसंख्या वाले देश ने अब तक कुल 25 नोबल पुरस्कार प्राप्त किए हैं ।

ऐसा नहीं है कि नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति बिल्कुल भी धार्मिक नहीं होते । 90 प्रतिशत पुरस्कार विजेता किसी सर्वोच्च सत्ता पर विश्वास करते हैं लेकिन वे कट्टर धार्मिक नहीं हैं । उनका धर्म केवल मानवता है । वे सच्चे अर्थों में मानवतावादी होते हैं । वास्तव में उन्होंने जो कार्य किया है वह केवल अपने ही धर्म के लिए नहीं बल्कि समूची मानवता के लिए है ।

जहां से हमने बात शुरू की थी वहीं लौट जाएं । मध्य-पूर्व और दक्षिण-मध्य एशिया की वर्तमान स्थिति पर विचार कीजिए । इतिहास की वे महान बौद्धिक और तार्किक कही जाने वाली सभ्यताएं जिनके ज्ञान-विज्ञान ने बाकी दुनिया को राह दिखाई , आज इसीलिए पीछे हो गईं क्योंकि उनकी परवर्ती पीढ़ियों ने ज्ञान-विज्ञान और धर्म के मूल तत्वों की संकीर्ण व्याख्या की , अशिक्षा और धार्मिक अनुदारता को प्रश्रय दिया । इन्होंने ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे मानवतावादी मंत्रों को भुला दिया ।

-महेन्द्र वर्मा

परंपरागत ज्ञान और आधुनिक विज्ञान




आज से हज़ारों वर्ष पूर्व जब मनुष्य ने प्राकृतिक घटनाओं को समझना प्रारंभ किया तब उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं था । इसलिए उसने अनुमान के आधार पर व्याख्या करने का प्रयास किया । जैसे, सूर्य और चंद्रग्रहण की घटना का कारण यह समझा गया कि इन्हें कोई राक्षस निगल लेता है । यह व्याख्या उनके लिए ‘ज्ञान’ बन गई । प्राचीन धर्म और दर्शन की शुरुआत इसी तरह से हुई और आज भी इन दोनों क्षेत्रों में अनुमान के आधार पर ज्ञान रचने की यही परंपरा जारी है ।


यदि धर्म और दर्शन द्वारा इस तरह संकलित ज्ञान सत्य और शाश्वत होता तो इनकी अनेक शाखाएं-उपशाखाएं नहीं होतीं । ये शाखाएं एक-दूसरे के द्वारा स्थापित ज्ञान को ग़लत सिद्ध करती रहती हैं ।


धर्म और दर्शन की एक और परंपरा है, ये अपनी बातों को स्पष्ट रूप से सरल भाषा में व्यक्त न कर काव्यात्मक भाषा में व्यक्त करते रहे हैं । जब भाषा और तर्क भी हार मानने लगे तब धर्म आस्था का विषय बन गया और उसे ‘अकथ’ कह कर तर्क से दूर रखा जाने लगा । लेकिन परंपरागत दर्शन में कविता की भाषा के समान अस्पष्ट और भावनात्मक तर्क सदैव दिए जाते रहे ।


बीसवीं सदी के जर्मन विचारक हैन्स राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत धर्म और दर्शन की इस अस्पष्ट और काव्यात्मक भाषा की आलोचना की और कहा कि दर्शन के प्रश्नों का उत्तर विज्ञान की भाषा में ही दिए जाने चाहिए । 1930 ई. में उन्होंने ‘वैज्ञानिक दर्शन का उदय’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने परंपरागत दर्शन की समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उनका आधुनिक विज्ञान की भाषा में तर्कसंगत उत्तर प्रस्तुत किया है ।

हैन्स राइख़ेन बाख़ (1891-1953)



हैन्स राइख़ेन बाख़ के उक्त पुस्तक से उद्धरित निम्नांकित विचार मनन करने योग्य हैं -
‘‘सृष्टि की कहानी एक मिथ्या व्याख्या है.....मनोवैज्ञानिक इच्छाओं की पूर्ति को व्याख्या नहीं कहा जा सकता.....परंपरागत  दार्शनिक अवैज्ञानिक भाषा इसलिए बोलता है क्योंकि वह उन प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश करता है जिनसे संबंधित ज्ञान उसके पास उपलब्ध ही नहीं होते....।’’


‘‘...विज्ञान के जिम्मे ऐसा सामाजिक कार्य आ गया है जिसकी पूर्ति पहले धर्म के द्वारा होती थी, वह काम था- अंतिम सुरक्षा प्रदान करने का । विज्ञान में विश्वास ने बड़े पैमाने पर ईश्वर में विश्वास का स्थान ले लिया है......विज्ञान नई संभावनाओं के द्वार खोलता है । संभव है, किसी दिन हमारा परिचय उन भावनाओं से करा दे जिनका हमने पहले कभी अनुभव ही नहीं किया....।’’

‘‘तर्क से संबंधित समस्याएं चित्रमय भाषा से हल नहीं होतीं बल्कि उनके लिए गणितीय व्याख्या जैसी शुद्धता की आवश्यकता होती है.....नया तर्क परंपरागत दर्शन से नहीं बल्कि गणित की धरती से उत्पन्न हुआ है ।’’

‘‘.....उस व्यक्ति को जो सत्य को चाहता है, जब निषेधात्मक रूप में सत्य उपस्थित हो तो निराश नहीं होना चाहिए ।..अप्राप्य की मांग करने की अपेक्षा निषेधात्मक सत्य को जानना श्रेयस्कर है ।’’


अपनी पुस्तक में राइख़ेन बाख़ ने परंपरागत दर्शन की भले ही आलोचना की हो लेकिन इसमें जहां भी वैज्ञानिक और गणितीय दृष्टिकोण लक्षित हुआ है उसकी प्रशंसा भी की है ।


विज्ञान प्रकृति के जितना निकट है, धर्म और दर्शन उससे उतनी ही दूर हैं । परंपरागत दर्शन और धर्म की मान्यताएं मनुष्य को कट्टरतावादी सोच की ओर उन्मुख करती हैं जबकि वैज्ञानिक दर्शन किसी मान्यता को अंतिम सत्य होने का दावा नहीं करता बल्कि उसका एक सत्य किसी और नए सत्य की शोध के लिए संभावनाओं का द्वार खोलता है ।

 
-महेन्द्र वर्मा

धर्म और विज्ञान



प्रकृति ने मनुष्य को स्वाभाविक रूप से तार्किक बुद्धि प्रदान की है । मनुष्य की यह क्षमता लाखों वर्षों की विकास यात्रा के दौरान विकसित हुई है । लेकिन सभी मनुष्यों में तर्कबुद्धि समान नहीं होती । जिनके पास इसकी कमी थी स्वाभाविक रूप से उनमें आस्थाबुद्धि विकसित हो गई ।

तर्कशील ने विज्ञान को अपनाया और आस्थावान ने धर्म को ।

विज्ञान प्रकृति की विशेषताओं का अध्ययन-मनन करता है, उस प्रकृति का जो स्वयंभू है, उन विशेषताओं का जो शाश्वत यथार्थ हैं । धर्म मनुष्य की मनोजन्य अवधारणाओं का चिंतन-मनन करता है , उन अवधारणाओं का जिसे न तो सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्ध।

पृथ्वी पर जब मनुष्य नहीं थे तब भी प्रकृति ऐसी ही थी, उसकी विशेषताएं ऐसी ही थीं, तब भी तारों में हाइड्रोजन का विखंडन होता था, पिंडों में गुरुत्वाकर्षण था, पेड़-पौधे ऑक्सीजन छोड़ते थे, यानी विज्ञान तो था लेकिन तब धर्म नहीं था । धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण नहीं है ।

धर्म प्रकृति का स्वाभाविक गुण भले नहीं है लेकिन धर्म के प्रारंभिक रूप मे प्रकृति की ही पूजा की जाती थी । धर्म का यह स्वरूप तार्किक रूप से भी यथेष्ट था किंतु बाद में कल्पनाजन्य विरूपित तर्क वाले लोगों ने धर्म की दिशा ही बदल दी । विज्ञान का प्रारंभिक रूप जैसा था वैसा ही आज भी है । लाखों वर्ष पहले आदिम मनुष्य ने जिस तरीके से पहली बार आग जलाई थी उसी तरीके से सामान्यतः आज भी जलाई जाती है- घर्षण से ।

विज्ञान एक है, धर्म अनेक । इस समय दुनिया में कबीलाई धर्मों सहित लगभग आठ हज़ार प्रकार के छोटे-बड़े धर्म प्रचलित हैं । यानी, आठ हज़ार परमात्मा हैं । उनके मानने वाले कहते हैं- हमारा परमात्मा ही सत्य है, औरों का नहीं । सभी आठ हजार परमात्माएं एक साथ सही भी और ग़लत भी कैसे हो सकते हैं ?

विज्ञान में संप्रदाय नहीं होते जबकि एक ही धर्म अनेक संप्रदायों में विभाजित है । विज्ञान एक विशाल वृक्ष की तरह है जिसकी अनेक शाखाएं हैं लेकिन तना एक ही है- तर्क । धर्म के अलग-अलग हज़ारों  वृक्ष हैं जिनकी शाखाएं कभी-कभी टूट कर अलग वृक्ष भी खड़ा कर लेती हैं- निजार्थ की आस्था ।

धर्म को यह कहने की ज़रूरत होती है- ‘मन को एकाग्र करो, ध्यान करो, ‘सत्य’ का दर्शन होगा’ । ऐसा इसलिए क्योंकि अनुयायी का मन एकाग्र नहीं होता । लेकिन प्रकृति के गुणों पर शोध करने वाले विज्ञानी को मन को एकाग्र करने का ज़रा भी प्रयास करना नहीं पड़ता । वह स्वभाव से ही एकाग्रचित्त होता है और इसीलिए वह प्रकृति के किसी सत्य का ‘दर्शन’ कर लेता है, भले ही लक्ष्यप्राप्ति में उसे वर्षों लग जाएं किंतु उसका ध्यान विचलित नहीं होता ।

कहा जाता है कि हर धर्म का लक्ष्य मानव और मानवता का कल्याण है । धर्म द्धारा किए गए मानव कल्याण की बातें किस्से-कहानियों में भले हों, यथार्थ जीवन में कोई उदाहरण नहीं मिलता । किंतु विज्ञान ने वास्तव में कल्याण किया है । आज से 70-80 साल पहले तक दुनिया भर के लाखों लोग चेचक के कारण मारे जाते थे । तब इसे दैवी आपदा माना जाता था । विज्ञान ने पूरी पृथ्वी से चेचक का उन्मूलन कर मानवता का हित किया ।

धर्म द्वारा प्रतिवर्ष लाखों लीटर दूध और रक्त अर्पित करने के बावजूद मानवता आज भी संकट में है । विज्ञान ने केवल ‘दो बूंद’ से करोड़ों लोगों को निःशक्त होने से बचा लिया ।

विज्ञान जो बातें बताता है, पूरी दुनिया उसे उसी रूप में अपना लेती है, अपने ढंग से अर्थ में परिवर्तन नहीं करता । जैसे, जब विज्ञान कहता है कि समान ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति आवश्यकता होने पर रक्त का परस्पर आदान-प्रदान कर सकते हैं, तो हर देश, हर जाति, हर धर्म के लोग इसे स्वीकार करते हैं, यह नहीं कहते कि मुझे अपने ही धर्म, जाति या वर्ण के व्यक्ति का रक्त चाहिए । धर्म  की  मान्यताओं  की  स्वीकार्यता  ऐसी  नहीं  होती ।

धर्म की बातों का अर्थ व्यक्तिनिष्ठ होता है, इसीलिए एक ही बात के कई अर्थ लगाए जाते हैं, अलग-अलग व्याख्या की जाती है, जबकि विज्ञान की बातों का अर्थ वस्तुनिष्ठ होता है, उनका अर्थ देश, जाति या धर्म के अनुसार नहीं बदलता ।

घर्मान्धता, धार्मिक कट्टरता, धर्मभीरु, धार्मिक पाखंड, धर्मिक उन्माद जैसे शब्द धर्म से ही निकले हैं । विज्ञान की दुनिया में ऐसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं है । किसी  विज्ञानवेत्ता को कट्टर वैज्ञानिक या विज्ञानांध नहीं कहा जाता ।

धर्म अपनी बात मनवाने के लिए आक्रामक भी हो जाता है औ कभी अपनी बात को मान्यता दिलाने के लिए विज्ञान से गवाही भी दिलवाता है । विज्ञान को इसकी आवश्यकता नहीं ।

धर्म कहता है, मैंने सब कुछ जान लिया है विज्ञान कहता है, मैं अभी बहुत कम जान पाया हूं । वह सदैव जिज्ञासु होता है । विज्ञान अहंकार नहीं करता । 

धर्म ‘हारे को हरिनाम’ है, विज्ञान ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ है ।

किसी धर्म के सौ-हज़ार पन्नों के ग्रंथ से बहुत अधिक विराट है प्रकृति का ग्रंथ जिसे प्रकृति ने स्वयं लिखा है, विज्ञान इसे ही पढ़ता और समझता है ।

-महेन्द्र वर्मा







भविष्य के संकटों का तारणहार विज्ञान ही है



दुनिया भर के वैज्ञानिक बार-बार यह चेतावनी देते रहे हैं कि निकट भविष्य में पृथ्वी पर जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं- शुद्ध वायु, जल और भोजन के अभाव का संकट अवश्यंभावी है । कुछ देशों में इनका अभाव अभी से दिखाई दे रहा है । प्रकृति ने इन बुनियादी आवश्यकताओं की सतत उपलब्धता के लिए स्वचालित व्यवस्था की थी किंतु मनुष्य ने स्वार्थवश इस व्यवस्था को विकृत किया । प्राकृतिक व्यवस्था के विकृतीकरण को नियंत्रित रखने का काम राजनीतिक सत्ता का है किंतु वे इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दे रहे, उल्टे वे वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग कर रहे हैं ।

विज्ञान मनुष्य की इस दुश्चेष्टा पर नियंत्रण तो नहीं कर सकता किंतु वह भविष्य के इस संकट से उबरने का उपाय अवश्य खोज सकता है । इसके लिए वैज्ञानिक शोध संस्थाओं को पर्याप्त धन और कार्य करने की स्वतंत्रता चाहिए । साथ ही जन-मानस में विज्ञान के प्रति रुचि और विश्वास जगाने के लिए विज्ञान शिक्षा को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है । समस्या यह है कि दुनिया भर की सरकारें वैज्ञानिक शोध संस्थाओं  और उच्च शिक्षा संस्थाओं को पर्याप्त आर्थिक सहायता और अवसर उपलब्ध नहीं करा रहे हैं ।

इन्हीं समस्याओं के प्रति सत्ता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए 2017 में भारत सहित दुनिया भर के एक लाख से अधिक वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों, शिक्षकों, वैज्ञानिक कार्यकर्ताओं, और वैज्ञानिक सोच के समर्थकों ने विज्ञान और वैज्ञानिक   दृष्टिकोण की रक्षा के लिए दुनिया भर में 600 से अधिक शहरों में ‘मार्च फॉर साइंस’ जैसा महत्वपूर्ण आयोजन किया । अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह प्रयास इसलिए शुरू किया क्योंकि उनकी सरकार वैज्ञानिक साक्ष्यों की अनदेखी कर पेरिस समझौते से हटने वाली थी । अधिकांश देशों के वैज्ञानिकों की प्रतिक्रिया ने संकेत दिया कि लगभग हर जगह विज्ञान पर हमला हो रहा है । राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा वैज्ञानिक सबूतों की अनदेखी करने वाली नीतियां बनाई जा रही हैं और वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए वित्तीय सहायता को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं ।

‘मार्च फॉर साइंस’ का आयोजन पूरी दुनिया में अब प्रतिवर्ष होता है। इस बार यह आयोजन 4 मई, 2019 को भारत सहित विश्व भर में सम्पन्न हुआ । भारत में आम चुनाव के कारण विभिन्न संस्थाओं के वैज्ञानिकों को ‘मार्च फॉर साइंस’ की अनुमति नहीं मिली इसलिए मार्च में भाग लेने के बजाय भारत भर के वैज्ञानिकों ने विभिन्न शहरों में सेमिनार और सम्मेलन आयोजित किए।  वैज्ञानिकों ने 9 अगस्त को एक भारतीय मार्च आयोजित करने की योजना बनाई है। पूरे राष्ट्र में आयोजित सम्मेलनों और सेमिनारों में भाग लेने वाले वैज्ञानिकों ने जोर देकर कहा कि विज्ञान एक सशक्त और उन्नत समाज का आधार है। हाल के वर्षों में सरकार वैज्ञानिक खोजों को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं दिखा रही है और पृथ्वी की चिंताजनक स्थिति के संबंध में तैयार किए गए वैज्ञानिक आंकड़ों की अनदेखी कर रही है।

वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व के देश औसत रूप से शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 6% से अधिक और वैज्ञानिक अनुसंधान पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3 % खर्च करते हैं । भारत में ये आंकडे़ क्रमश 3 % और 0.85% हैं । नतीजतन, देश की आबादी का एक बड़ा तबका आजादी के 72 साल बाद भी अनपढ़ या अर्धसाक्षर बना हुआ है । हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय बुनियादी ढांचे, शिक्षण और गैरशिक्षण कर्मचारियों की भारी कमी से जूझ रहे हैं । अनुसंधान करने के लिए  सीएसआईआर और डीएसटी जैसी विज्ञान फंडिंग एजेंसियां तीव्र आर्थिक संकट से जूझ रही हैं । वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि शिक्षा पर जी.डी.पी. का 10 % और वैज्ञानिक शोधों के लिए 3 % राशि का प्रावधान रखा जाना चाहिए ।

उन्होंने इस बात पर भी  चिंता व्यक्त की कि प्राकृतिक संसाधनों का ‘अधिक लाभ के लिए दोहन’ हानिकारक प्रवृत्ति है । ये संसाधन देश-राज्य-धरती  की जरूरतों के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों से असंवैधानिक तथ्यों का विज्ञान के रूप में प्रचार किया गया जो वास्तविक विज्ञान को नुकसान पहुंचा रहा है। विज्ञान को कमजोर करने के लिए निरंतर कुप्रयास किए जा रहे हैं । मीडिया द्वारा अवैज्ञानिक विचारों और अंधविश्वासों को इस तरह से प्रचारित किया जा रहा है कि लोग उस पर विश्वास करने लगते हैं। मिथक, पौराणिक कथाएं और भारतीय संस्कृति के बारे में विचित्र तथ्य विज्ञान के रूप में प्रचारित कर देश की प्राचीन संस्कृति को ही विकृत किया जा रहा है। इस प्रवृत्ति का विरोध करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क के अनुसार सभी नागरिकों का कर्तव्य है ।

केवल विज्ञान ही जानता और समझता है कि पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, किस तरह वह जीवित रहती है और कैसे उसकी मृत्यु हो सकती है । इसलिए विज्ञान को बचाएं, विज्ञान को समझें और पृथ्वी को सुरक्षित रखें । पृथ्वी सुरक्षित नहीं होगी तो कोई देश कैसे सुरक्षित रह सकता है ?

-महेन्द्र वर्मा

वैदिक गणित और विद्यालयीन पाठ्यक्रम

(मेरे पिछले पोस्ट का दूसरा भाग, पहला भाग यहां देखें)


दिसंबर 2016, संसद का शीतकालीन सत्र । सदन में भारत शासन से पूछे गए दो दो प्रश्न और संबंधित ‘मिनिस्टर’ द्वारा दिए गए उनके उत्तर-
प्र.1.  क्या यह सच है कि वैदिक गणित परंपरागत विधि से अधिक तीव्र गति से गणितीय प्रश्न हल करने में सक्षम है ?
उ. वैदिक गणित में शीघ्र हल करने के लिए कुछ विधियां दी गई हैं, किंतु ये विधियां गणित में सभी जगह लागू नहीं होतीं ।
पं. 2. क्या सरकार वैदिक गणित को विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में लागू करने के संबंध में विचार कर रही है ?
उ. सरकार इस तरह के किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं कर रही  है ।
.......................

इस तरह का प्रस्ताव एक न्यास द्वारा शासन के समक्ष प्रस्तुत किया गया था । एन.सी.ई.आर.टी. ने इस पर काम भी शुरू कर दिया था । यह न्यास  सन् 1992 से इस प्रयास में लगा था कि वैदिक गणित देश भर के स्कूलों में पढ़ाया जाए । इसी न्यास के प्रस्ताव पर कुछ राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में वैदिक गणित को सम्मिलित कर लिया गया है ।

उक्त प्रस्ताव को केन्द्र शासन निरस्त नहीं करता यदि देश के जागरूक वैज्ञानिक और गणितज्ञों ने इस की आलोचना नहीं की होती। इन सब का कहना है कि जिसे वैदिक गणित कहा जा रहा है वह गणित नहीं है बल्कि परंपरागत गणित के कुछ प्रारंभिक प्रश्नों के शीघ्र उत्तर बताने की मौखिक विधियां हैं । लेकिन सीखने वाले को यह नहीं बताया जाता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है जबकि गणित सीखने का अर्थ यह होता है कि उत्तर प्राप्त करने की प्रक्रिया में हर क्यों का जवाब भी मालूम हो ।

वैदिक गणित के संबंध में सबसे पहले प्राचीन भारतीय गणित और खगोल विज्ञान पर अनेक पुस्तकों के लेखक डॉ.के.एस.शुक्ल का एक आलोचनात्मक लेख Mathematical Education  पत्रिका के जनवरी 1989 अंक में Vedic Mathematics-The illusive title of Swamijis book शीर्षक से प्रकाशित हुआ । उनके अनुसार ‘वैदिक गणित’ शीर्षक भ्रम उत्पन्न करने वाला है क्योंकि इसकी विषय वस्तु वैदिक नहीं है ।

1993 से 2007 के मध्य टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के डॉ. एस.जी.दानी ने Vedic Mathematics-Myths and Reality सहित कई लेख लिखे ।  एक लेख में उन्होंने लिखा है- ‘‘वैदिक गणित को पढ़ाए जाने से कहीं ऐसा न हो कि हमारे देश का बौद्धिक और शैक्षिक जीवन विकृत हो जाए, आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा और इतिहास की प्रवृत्ति ही दूषित हो जाए ।

प्रसिद्ध खगोलभौतिक विज्ञानी प्रो. जयंत विष्णु नारलीकर की एक पुस्तक 1993 में प्रकाशित हुई- The Scientific Edge । इस में भारत के पिछले 3000 वर्षों के विज्ञान और गणित के गौरवपूर्ण अतीत का विस्तृत वर्णन किया गया है ।  इस पुस्तक में उन्होंने आजकल प्रचलित वैदिक गणित के संबंध में भी विस्तार से लिखा है । प्रो.. नारलीकर इसे न तो वैदिक मानते हैं और न ही गणित । वे लिखते हैं- ‘‘वास्तविक गणित केवल संख्याओं का परिकलन नहीं है बल्कि तर्क और विचारों का परस्पर ऐसा  संबंध है जो सरल सिद्धांतों से प्रारंभ हो कर एक गहन निष्कर्ष तक पहुंचता है ।’’

यही कारण है कि बोधायन (ई.पू. 8वीं श.) द्वारा बताई गई समकोण त्रिभुज संबंधी विशेषता को ‘गणित’ नहीं माना गया क्योंकि उन्होंने इस की उपपत्ति नहीं दी और पायथेगोरस (ई.पू. 5वीं श.) को इसका श्रेय इसलिए दिया गया क्योंकि उसने उपपत्ति भी लिखी । प्रमेय का अर्थ ही है, ‘जिसे प्रमाणित किया जाए’ ।

बहुत से लोगों ने वैदिक गणित के समर्थन में कई लेख प्रकाशित करवाया है । इस पर प्रो. नारलीकर लिखते हैं-‘‘उन्हें गणित की समझ नहीं है । आगे वे एक महत्वपूर्ण बात लिखते हैं- ‘‘स्कूली पाठ्यक्रम में वैदिक गणित को सम्मिलित करना गणित के उस वास्तविक और सार्थक स्वरूप से ध्यान भटकाना होगा जिसे वास्तव में पढ़ाए जाने की आवश्यकता है ।’’

आई.आई.टी. चेन्नई में गणित की प्रोफेसर डॉ.(सुश्री) वसंत कांतसामी, जिनकी गणित पर 116 शोध-पुस्तकें लिखी हैं, ने वैदिक गणित पर शोध अध्ययन किया है । यह शोध 220 पृष्ठों के एक पुस्तक Vedic Mathematics -‘Vedic’ or‘Mathematics’:A Fuzzy & Neutrosophic Analysis  शीर्षक से 2006 में प्रकाशित हुई है। इन्होंने वैदिक गणित के संबंध में छात्रों, अध्यापकों, पालकों और उच्च शिक्षित व्यक्तियों के विचारों का एक नई गणितीय विधि से विश्लेषण किया है । इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि 90 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने वैदिक गणित को स्कूलों में अध्ययन-अध्यापन के लिए लाभदायक नहीं माना है ।

इनके अतिरिक्त और भी कई गणितज्ञों एवं वैज्ञानिकों ने वैदिक गणित को पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के प्रयास की आलोचना की है । उनके अनुसार वैदिक गणित 
में केवल ‘शार्टकट्स’ हैं जो प्रारंभिक कक्षाओं के कुछ ही परिकलनों में लागू होते हैं । उच्च गणित में इनका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं है ।

 इन सब के बावज़ूद यह न्यायालय का प्रकरण बन गया ।

सुप्रीम कोर्ट में स्कूली पाट्यक्रम के संबंध में शासन के विरुद्ध एक अपील दर्ज की गई थी । इस प्रकरण के संदर्भ में कोर्ट द्वारा 12 सितंबर, 2002 को दिए गए निर्णय में यह तथ्य भी है- ‘‘वैदिक गणित को पाठ्यक्रम का भाग नहीं बनाया गया है बल्कि इसे गणना सहायक सामग्री के रूप में उपयोग करने हेतु सुझाव दिया गया है । गणित शिक्षण के दौरान शिक्षक इसका उपयोग करने अथवा न करने के लिए स्वतंत्र है ।’’

इसी संदर्भ में एन.सी.ई.आर.टी. में गणित विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. हुकुम सिंह ने दिसंबर, 2016 में यह विचार व्यक्त किया था- ‘‘वैदिक गणित पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं होना चाहिए, यह निर्णय प्रसिद्ध गणितज्ञों से प्राप्त सुझावों के आधार पर लिया गया था ।’’

उक्त तथ्यों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि विद्यालयों में वैदिक गणित नहीं पढ़ाया जाना चाहिए ।  कई राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में यह अभी भी सम्मिलित है, पढ़ाने की अनिवार्यता सहित ।

-महेन्द्र वर्मा







‘वैदिक गणित’ क्या सचमुच वैदिक है






जब मैं ज़िला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में कार्यरत था तब सेवारत शिक्षकों और प्रशिक्षु शिक्षकों को वैदिक गणित विषय पर प्रशिक्षण देने का अवसर प्राप्त हुआ था । हमें एक पुस्तक दी गई थी-‘वैदिक गणित’ । पुस्तक के शीर्षक से ऐसा ध्वनित होता है कि इस में जिस गणित का वर्णन है वह वेदों में है । कक्षा में प्रशिक्षण देने के पूर्व मैंने उसका अध्ययन किया । मुझे कुछ संदेह हुआ कि क्या यह सचमुच वैदिक है ?

और फिर मैंने अपने स्तर पर इस संदर्भ में खोजबीन करना आरंभ किया । इस प्रक्रिया में मुझे जो जानकारी मिली वह अप्रत्याशित नहीं थी ।

इस विषय की मूल पुस्तक Vedic Mathematics शीर्षक से 1965 में प्रकाशित हुई जिसके लेखक स्व. स्वामी श्री भारतीकृष्ण तीर्थ जी महाराज हैं जिसमें 16 ‘सूत्र’ दिए गए हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन स्वामी जी के स्वर्गारोहण के पश्चात  हुआ था । विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला ‘वैदिक गणित’ इसी पुस्तक पर आधारित है । वर्तमान में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के अतिरिक्त कई राज्यों में स्कूली विद्यार्थियों को ‘वैदिक गणित‘ पढ़ाया जा रहा है लेकिन सर्वप्रथम इस विषय का शिक्षण उत्तरप्रदेश के विद्यालयों में सन् 1992 में प्रारंभ हुआ ।

1993 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च के गणितज्ञ डॉ. एस.जी.दानी का अंग्रेज़ी में एक लेख फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। अपने विस्तृत लेख में एक स्थान पर वे लिखते हैं - ‘‘स्वामी जी की पुस्तक में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वैदिक गणित कहा जाए । यहां तक कि इस में परवर्ती काल की भारतीय गणितीय सिद्धांतों और प्रक्रियाओं की समृद्ध परंपरा का भी वर्णन नहीं है ।’’ डॉ. दानी की इस टिप्पणी ने मुझे मूल पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित किया ।

मैंने मूलतः अंग्रेज़ी में लिखित  Vedic Mathematics का अध्ययन-मनन प्रारंभ किया । स्वामी जी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं - ‘‘हम यह जान कर आश्चर्यचकित हुए कि अथर्ववेद के परिशिष्ट में उल्लेखित सूत्रों की सहायता से गणित के कठिन प्रश्नों को बहुत आसानी से हल किया जा सकता है ।’’ किंतु इसी पुस्तक में स्वामी जी की एक शिष्या श्रीमती मंजुला त्रिवेदी अपने वक्तव्य में लिखती हैं - ‘‘ये सूत्र अथर्ववेद के किसी परिशिष्ट में नहीं हैं, वास्तव में ये सूत्र अथर्ववेद में  यत्र-तत्र बिखरी हुई सामग्री से  स्वामी जी के द्वारा सहजबोध से पुनर्सृजित किए गए हैं ।’’

श्री वी. एस. अग्रवाल, जो इस पुस्तक के संपादक हैं, अपने संपादकीय लेख में इस से भिन्न बात लिखते हैं-‘‘स्वामी जी की यह कृति अपने आप में एक नया परिशिष्ट माने जाने का अधिकार रखती है और इसीलिए आश्चर्य नहीं कि यहां दिए गए सूत्र वेदों के किसी भी ज्ञात परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं होते ।’’
उपर्युक्त तीनों बातों में कोई सामंजस्य नहीं है ।

पुस्तक के संपादक ने अपने संपादकीय में जिन विद्वानों के प्रति आभार व्यक्त किया है उनमें डॉ. ब्रजमोहन का भी नाम है जो उस समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गणित विभाग के अध्यक्ष थे । डॉ. ब्रजमाहन ने संपादक के आग्रह पर ‘वैदिक गणित’ की पाण्डुलिपि की गणनाओं की सत्यता की जांच की थी । मैंने डॉ. ब्रजमोहन की 1965 में प्रकाशित पुस्तक ‘गणित का इतिहास’ में इस का संदर्भ खोजना शुरू किया ।

अपनी पुस्तक की भूमिका में डॉ. ब्रजमोहन ने स्वामी जी के वैदिक सूत्रों के संबंध में यह लिखा है- ‘‘स्वामी जी ने अपने व्याख्यानों और व्यक्तिगत वार्ता में अनेक गणितीय सूत्रों की चर्चा की थी । स्वामी जी ने इन सूत्रों का यह अभिदेश दिया था : अथर्ववेद, परिशिष्ट 1 । मुझे अथर्ववेद के जितने भी संस्करण काशी के पुस्तकालयों में मिल सके,  मैंने सब छान मारे । मुझे उपरिलिखित सूत्र कहीं नहीं मिले । मैंने  स्वामी जी को इस विषय में तीन पत्र लिखे । मुझे कोई उत्तर नहीं मिला । तत्पश्चात मैं वेदों के उद्भट विद्वानों से मिला जैसे, पं. गिरधर शर्मा चतुर्वेदी, और पंचगंगा घाट काशी के पं. रामचंद्र भट्ट । उन्होंने बताया कि उपरिलिखित सूत्रों की भाषा ही वैदिक संस्कृत से मेल नहीं खाती अतः ये वैदिक सूत्र नहीं हो सकते ।.....हम उक्त सूत्रों का वास्तविक अभिदेश जानने के लिए उत्सुक हैं । किंतु जब तक यथार्थ अभिदेश न मिल जाए तब तक हम इतनी अप्रमाणित बात अपनी पुस्तक में नहीं दे सकते ।’’

अस्तु, ‘वैदिक गणित’ के संपादक ने डॉ. ब्रजमोहन के उक्त जिज्ञासा का समाधान संपादकीय में यह लिखकर कर दिया था कि ये सूत्र अथर्ववेद के किसी भी परिशिष्ट में उपलब्ध नहीं हैं ।

‘वैदिक गणित’ के वैदिक न होने के संबंध में सन् 1993 से 2000 तक कई गणितज्ञों और वैज्ञानिकों के लेख अंग्रेज़ी अख़बारों में प्रकाशित हुए । इन के प्रत्युत्तर में सन् 2000 में वार्षिक शोध पत्रिका ‘संबोधि’ में संपादक डॉ. एन.एम.कंसारा ने  Vedic Sources of Vedic Mathematics शीर्षक से 30 पृष्ठों का एक लेख लिखा । किंतु इस लेख में वे ‘वैदिक गणित’ को वैदिक सिद्ध नहीं कर सके और लेख के अंत में उन्होंने निष्कर्ष लिखा कि ये सूत्र वेदों में एक स्थान पर नहीं है बल्कि यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं । श्री कंसारा इस ‘यत्र-तत्र’ का एक भी संदर्भ नहीं दे पाए ।

अब यह निश्चित हो गया कि ‘वैदिक गणित’ के किसी भी अंश का वैदिक साहित्य में कोई संदर्भ नहीं है । अब मैंने ‘यत्र-तत्र’ को ध्यान में रखते हुए पांचवी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक के मध्यकालीन भारतीय गणितज्ञों के प्राचीन ग्रंथों में इसका संदर्भ खोजना प्रारंभ किया ।

अपने अध्ययन के दौरान मुझे कुछ संदर्भ मिले । ‘वैदिक गणित’ में एक सूत्र है- ‘ऊर्ध्व तिर्यग्भ्याम्’, इस सूत्र का पुस्तक में व्यापक प्रयोग हुआ है । इस सूत्र में जिस एल्गोरिद्म का प्रयोग हुआ है वह महान भारतीय गणितज्ञ महावीराचार्य (9वीं शताब्दी ई).की प्रसिद्ध पुस्तक ‘गणित सार संग्रह’ (2.31) में है ।
स्वामी जी का एक उपसूत्र ‘यावदूनम्’ का एल्गोरिद्म ब्रह्मगुप्त (7 वीं श,) के ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धांत’ (12.55,64) में तथा भास्कराचार्य द्वितीय की  प्रसिद्ध पुस्तक ‘लीलावती’ (सू. 13.9) में है । बोधायन के शुल्व सूत्र के प्रसिद्ध प्रमेय, जिसे अब पायथोगोरस का प्रमेय कहा जाता है, की जो उपपत्ति ‘वैदिक गणित’ में दी गई है वह वास्तव में भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा दी गई उपपत्ति है ।

इतना अवश्य है कि स्वामी जी ने अपनी पुस्तक में गणितीय नियमों को ‘ट्रिक्स’ और ‘शार्टकट्स’ में परिवर्तित किया है ।
मेरे संदेह का समाधान हो चुका है । आपको भी इस लेख के शीर्षक-प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया होगा ।

-महेन्द्र वर्मा

झूठ का सच



यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति यदा-कदा अनेक कारणों से झूठ बोलता है किंतु जब यह किसी व्यक्ति के लिए आदत या लत बन जाती है तो समाज में वह निंदा का पात्र बन जाता है । कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता कि कोई उसे झूठ बोलकर धोखा दे । आदतन झूठा वह आदमी होता हे जो पहले भी झूठ बोलता था, अभी भी झूठ बोल रहा है और आगे भी झूठ बोलेगा ।

यदि कोई ऐसी बात कहता है जिसके बारे में बोलने वाले को भी विश्वास नहीं होता कि यह सच है फिर भी इस इरादे से बोलता है कि सुनने वाले उस बात को सच मान लें, झूठ बोलने का यही तात्पर्य है । स्पष्ट है कि झूठ में बेइमानी और धोखा दोनों शामिल हैं ।


चूंकि ‘झूठ बोलना’ मानव व्यवहार से संबंधित है इसलिए मनावैज्ञानिकों ने इस विषय पर भी पर्याप्त अध्ययन किया है । झूठ के संबंध में पहले जो चिंतन था वह नैतिकता और धार्मिकता पर आधारित था और उपदेशपरक था । लेकिन हाल के वर्षों में मनोवैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की है कि मनुष्य झूठ बोलता क्यों है और कौन-सी चीज उसे झूठ बोलने के लिए प्रेरित करती है।

झूठ बोलने के संबंध में सबसे पहले व्यवस्थित रूप से अध्ययन कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के समाज मनोविज्ञानी बेला डे पाउलो और उसके साथियों ने दो दशक पहले प्रारंभ किया था । पाउलो ने अपनी पुस्तक The Psychology of Lying में झूठ बोलने के कारणों का उल्लेख किया है ।  A  National Geographic  पत्रिका के जून 2017 के अंक में इस विषय पर कवर स्टोरी प्रकाशित की थी । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लोग अलग-अलग कारणों से झूठ बोलते हैं -
 1. अपनी गलती और अपराध को छिपाने के लिए, 2. स्वयं को इच्छित मुकाम में प्रतिष्ठित करने के लिए, 3. दूसरों को भ्रमित कर प्रभावित करने के लिए, 4. व्यक्तिगत लाभ के लिए, 5. सच्चाई को उपेक्षित करने के लिए 6. कुछ लोगों को नुकसान पहुंचाने के लिए, 7. मज़ाक करने के  लिए, 8. अन्य कारणों से ।

American Journal of Forensic Psychiatry  में प्रकाशित एक लेख और टेक्सास यूनीवर्सिटी की मनावैज्ञानिक जैकलीन इवान्स और उनके सहयोगियों के अनुसार झूठ बोलने वालों के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं -
1.उनकी सोच अस्थिर होती है, 2. स्वयं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हैं या छिपाते हैं, 3.‘क्यों’ का उत्तर देने से बचते हैं, 4. उत्तर देने के पूर्व सवाल को दुहराते हैं, 5. बोलते समय ‘पिच’ में असाधारण परिवर्तन होता रहता है,  6.ऐसा प्रदर्शित करते हैं जैसे वे बहुत परिश्रम करते हैं, 5. उनके कथन निरर्थक और विरोधाभासी होते हैं, 7. वे चिंतित और तनावग्रस्त रहते हैं, 6. उनमें हीन भावना होती है ।

मनोविज्ञानी शेली टेलर के अनुसार, झूठ बोलने वाले आत्ममुग्ध होते हैं । भाषा पैटर्न पर शोध करने वाले मनोविज्ञानी डायना बेरी के अनुसार झूठ बोलने और लिखने वाले प्रायः अपनी बातों में ‘प्रथम पुरुष’ का प्रयोग करते हैं । डे पाउलो ने अपने शोध में पाया कि ऐसे लोग अक्सर विवादित रहते हैं । हार्वर्ड में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ. ग्राम्ज़ो के अनुसार झूठ बोलना मूल रूप से स्वयं को एक लक्ष्य की ओर स्वयं को प्रोजेक्ट करने और अपनी इच्छाओं को पोषित करने की कवायद है ।

Nature Neuroscience  में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि झूठ बोलते समय व्यक्ति के मस्तिष्क का ‘प्रोत्साहन केन्द्र’ सक्रिय हो जाता है । इससे प्रेरित होकर वह अपने व्यवहार में निरंतर झूठ बोलने या धोखा देने का पैटर्न जारी रखता है । टेक्सास विश्वविद्यालय की विभागीय पत्रिका Personality and Social Psychology  की एक रिपोर्ट के अनुसार झूठे लोग जोड़-तोड़ करने वाले और ‘मेकियावेलियन’ होते हैं । मनोविज्ञान में ‘मेकियावेलियन’ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया जाता है जो स्वयं की इच्छा और लक्ष्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ धोखा, छल-कपट और हिंसा तक का व्यवहार करता है ।

चिकित्सा मनोविज्ञान में Pseudologia Fantastica मनुष्य की ऐसी असामान्य मनःस्थिति को कहा जाता है जब व्यक्ति झूठ बोलने का आदी हो या बाध्य हो । इसी तरह की एक और स्थिति को Mitomanía  कहते हैं जिसमें व्यक्ति की अतिशयोक्तिपूर्ण झूठ बोलने की असामान्य प्रवृत्ति होती है । मनोचिकित्सकों के अनुसार ये मानसिक रोग कुण्ठा और हीनभावनाग्रस्त व्यक्ति को होने की अधिक संभावना होती है। ऐसे लोग स्वयं की झूठी प्रतिष्ठा के लिए चतुराई से इस तरह बार-बार झूठ बोलते हैं कि लोग उसका विश्वास करें ।

लगभग 200 वर्ष पूर्व आयरलैंड के प्रसिद्ध साहित्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने  Essay on the Art of Political Lying   में एक विचित्र बात लिखी है- ‘‘ जिस प्रकार एक बड़ा लेखक अपने पाठकों को नापसंद करता है उसी प्रकार एक बड़ा झूठा अपने ही विश्वासियों को नापसंद करता है ।’’

-महेन्द्र वर्मा

सच क्या है


आज से तीन-चार लाख वर्ष पूर्व, जब मनुष्य अपने विकास की प्रारंभिक अवस्था में था, तब किसी समय एक घटना घटित हुई । इस घटना की प्रतिक्रिया दो रूपों में व्यक्त हुई ।

उस घटना को पहले जान लें -

जंगल में दो मनुष्य भोजन की तलाश में जा रहे थे । उन्होंने देखा कि कुछ दूरी पर एक मनुष्य कंदमूल खोज रहा था तभी झाड़ियों में छिपे एक शेर ने उस पर आक्रमण कर दिया और उसे मार डाला । दोनों मनुष्य भयभीत हो गए । वे तत्काल अपनी गुफा में लौट आए ।

चूंकि उनमें अन्य प्राणियों की तुलना में कुछ अधिक सोचने की क्षमता विकसित हो गई थी इसलिए उन दोनों के मन में भयजनित सोच की एक प्रक्रिया शुरू हुई कि शेर किसी दिन उन पर भी आक्रमण कर देगा और उन्हें खा जाएगा । वे सोचने लगे कि शेर की भयकारक शक्ति से बचाव कैसे किया जाए । आत्मरक्षा की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उनमें थी ।

उन दोनों की सोचने की दिशा अलग-अलग थी । एक ने सोचा, शेर किसी अदृश्य शक्ति द्वारा प्रेरित है । यदि उस शक्ति को किसी तरह प्रसन्न कर दिया जाए तो उसके द्वारा प्रेरित वह शेर मुझ पर आक्रमण नहीं करेगा । उस मनुष्य ने अदृश्य शक्ति को प्रसन्न करने के लिए मन ही मन एक ‘प्रार्थना’ बनाई । अगले दिन कुछ कंदमूल लेकर वह एक स्थान पर गया, कंदमूल उस अदृश्य को समर्पित करते हुए प्रार्थना की कि आप इस भयानक शेर से मेरी रक्षा करें । वह निश्चिंत हो गया कि शेर अब मुझ पर आक्रमण नहीं करेगा । मनुष्य के मन में कुछ शांति की अनुभूति हुई ।

लेकिन दूसरा मनुष्य कुछ अलग सोच रहा था । वह शेर को ही पराजित करने का उपाय सोच रहा था । जंगल में घूमते समय उसे अनुभव हुआ था कि जब शरीर पर कांटा चुभता है तो कष्ट होता है । फिसल कर गिर जाएं तो नुकीले पत्थरों से चोट लग जाती है । इसी अनुभव से प्रेरित होकर उसने सोचा कि यदि शेर पर भी नुकीले पत्थर से वार किया जाए तो शेर भयभीत हो सकता है । अपने इस विचार पर उसने ‘प्रयोग’ किया । लकड़ी के  सीघे टुकड़े के एक छोर पर उसने एक नुकीला पत्थर लताओं से बांध दिया । उसे एक पेड़ की तरफ जोर से फेंका । वह यह देखकर संतुष्ट हुआ कि पत्थर का टुकड़ा पेड़ के तने में घंस गया है ।

दोनों अगले दिन जंगल में जा रहे थे । वह शेर फिर दिखा । शेर ने उन दोनों को देख लिया और उनकी तरफ तेजी से दौड़ा । पहला मनुष्य आंख बंद कर ‘प्रार्थना’ करने लगा । दूसरे ने अपना स्वनिर्मित साधन शेर की ओर फेंका । शेर को चोट लगी । वह डरकर भाग गया । पहले मनुष्य ने आंखें खोलीं, देखा, शेर वहां नहीं था । अदृश्य शक्ति के प्रति उसके मन में ‘आस्था’ उत्पन्न हुई । उसे विश्वास हुआ कि उसकी ‘अदृश्य शक्ति से प्रार्थना’ के कारण ही शेर डर गया । लेकिन सत्य क्या है, ये दूसरा मनुष्य ही जानता था जिसे अपनी ‘तार्किक शक्ति’ पर विश्वास था ।


विज्ञान और धर्म का ‘रोपण’ आदिम मनुष्यों के द्वारा एक ही समय में हुआ ।

पहले मनुष्य ने जिस पौधे का रोपण किया उसके वंशजों ने उसे सिंचित किया, बड़ा किया । लेकिन पांच हजार वर्ष पूर्व उस वृक्ष की कलमें काट-काट कर लोग अपने-अपने क्षेत्र में लगाने लगे और उसे भिन्न-भिन्न नाम भी देने लगे।  । ‘प्रार्थनाएं‘ भी अलग-अलग बन गईं और अलग-अलग ‘कंदमूल’ भी ।

दूसरे मनुष्य ने जो पौधा रोपा उसे भी उसके वंशजों ने सिंचित किया । लेकिन उसकी कलमें काट कर किसी ने अलग पौधा नहीं उगाया । आज भी संसार के सभी लोग उसी आदिम वृक्ष की छांव में एक साथ खड़े हैं ।
धर्म भेदभाव करता है, विज्ञान नहीं ।

उस मनुष्य ने जो ‘प्रार्थना’ की वह कौन-सी थी, आज कोई नहीं जानता । लेकिन दूसरे मनुष्य ने जो साधन बनाया वह वास्तव में आज के यांत्रिक भौतिकी के छः मूलभूत सरल मशीनों में से दो के प्रयोग की शुरुआत थी जिनको 
विज्ञान का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है ।

सत्य की ‘कलमें’ नहीं लगाई जा सकतीं ।

-महेन्द्र वर्मा

धूप, चांदनी, सीप, सितारे




सच्चाई की बात करो तो, जलते हैं कुछ लोग,
जाने कैसी-कैसी बातें, करते हैं कुछ लोग।

धूप, चांदनी, सीप, सितारे, सौगातें हर सिम्त,
फिर भी अपना दामन ख़ाली, रखते हैं कुछ लोग।

उसके आँगन फूल बहुत है, मेरे आँगन धूल,
तक़दीरों का रोना रोते रहते हैं कुछ लोग।

इस बस्ती से शायद कोई, विदा हुई है हीर,
उलझे-उलझे, खोए-खोए, दिखते हैं कुछ लोग।

ख़ुशियाँ लुटा रहे जीवन भर, लेकिन अपने पास,
कुछ आँसू, कुछ रंज बचाकर, रखते हैं कुछ लोग।

इतना ही कहना था मेरा, बनो आदमी नेक,
हैराँ हूँ , यह सुनते ही क्यूँ , हँसते हैं कुछ लोग।

जुल्म ज़माने भर का जिसने, सहन किया चुपचाप,
उसको ही मुज़रिम ठहराने लगते हैं कुछ लोग।


                                                                -महेंद्र वर्मा

भविष्यकथन - एक दृष्टि









आजकल टेलीविज़न के चैनलों में भविष्यफल या भाग्य बताने वाले कार्यक्रमों की बाढ़ आई हुई है । स्क्रीन पर विचित्र वेषभूषा में राशिफल या लोगों की समस्याओं के समाधान बताते ये लोग भविष्यवक्ता कहे जाते हैं । क्या ये सचमुच भविष्य की घटनाओं को पहले से जान लेते हैं ? क्या इनके पास सचमुच कोई ऐसी विद्या है जिससे ये लोगों के भविष्य को जानकर उसमें आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए उपाय भी बता सकें ?

इन प्रश्नों के उत्तर मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव में निहित हैं।

अपने भविष्य के बारे में जानने की इच्छा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।  वह यह देखता आया है कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सुख और दुख, शांति और अशांति जैसी सकारात्मक और नकारात्मक स्थितियां अनिवार्य रूप से आती जाती रहती हैं । किंतु वह सुख की चाह की अपेक्षा इस बात की कामना अधिक करता है कि उसके जीवन में दुख न आए । उसके अवचेतन मन में भविष्य में आ सकने वाले दुख और अशांति के प्रति भय और चिंता बनी रहती है । यही भय उसे यह जानने के लिए प्रवृत्त करता है कि उसका भविष्य कैसा होगा, सुख-शांति की स्थितियां अधिक होंगी या दुख-अशांति की ।

हज़ारों साल पहले से मनुष्य पशु-पक्षी की आवाजों के साथ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संबंध जोड़ने लगे थे । फिर जैसे-जैसे उसकी समझ, साथ ही नासमझी भी, बढ़ती गई वैसे-वैसे भविष्य जानने के नए-नए तरीके भी ईजाद होने लगे । आज पूरी दुनिया में भविष्य जानने के सैकड़ों तरीके प्रचलन में हैं । भारत में ही भविष्य बताने के 150 से अधिक विधियां प्रचलित हैं । जन्म कुंडली, हस्तरेखा, रमल, टैरो कार्ड, क्रिस्टल बॉल, अंक ज्योतिष, स्वप्न, मुखाकृति आदि से लेकर तोता, बैल, उल्लू, गधा आदि के माध्यम से भी भविष्यफल बताए जाते हैं ।

भविष्यफल बताने के ये तरीके तब और फलने-फूलने लगे जब भविष्यवक्ताओं ने अशुभ फलों को दूर करने या कम करने के उपाय भी बताना शुरू किया । हज़ारों साल पहले टोटेम के रूप में शुरू हुई इस परम्परा को बाद में भविष्यवक्ताओं ने शास्त्र कहा और अब वे इसे विज्ञान कहने लगे हैं । लेकिन वैज्ञानिकों ने इस ‘विद्या’ को कभी विज्ञान मानने लायक नहीं समझा क्योंकि यह विज्ञान है ही नहीं ।

भविष्यकथन विज्ञान न होने के बावजूद लोगों को क्यों कुछ भविष्यफल बिल्कुल सही प्रतीत होते हैं । इसका कारण है -भविष्य कथन की भाषा । इसकी भाषा कुछ इस प्रकार की होती है कि पढ़ने-सुनने वाला  उस कथन के अर्थों की  संगति स्वयं के साथ  आसानी से स्थापित कर लेता है । कुछ उदाहरण देखिए - आपका व्यक्तित्व आकर्षक है/आप अपनी ज़िंदगी अपने अंदाज़ में जीना चाहते हैं/व्यापार में सावधानी बरतें/बाधाएं आएंगी किंतु प्रयास करेंगे तो सफलता निश्चित है/अमुक अवधि में आपको अकस्मात धनलाभ होगा/व्यय पर नियंत्रण रखें/किसी परिजन के बीमार होने के कारण आप चिंतित रहेंगे/इस महीने व्यय की अधिकता रहेगी, आदि ।

ये ऐसे कथन हैं जिन्हें दुनिया का कोई भी व्यक्ति पढ़ेगा या सुनेगा तो उसे लगेगा कि ये उसके बारे में बिल्कुल सही कहा जा रहा है । आप में से जो भविष्यफल पढ़ने में रुचि रखते हैं वे कभी सभी बारह राशियों का भविष्यफल पढ़ कर देखें, आपको लगेगा कि सभी कथन आप पर भी लागू हो सकते हैं । भविष्यवक्ताओं द्वारा जानबूझ कर ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है ।

कुछ भविष्यकथन बिल्कुल सही होते देखे गए हैं । इसका कारण है संभाव्यता, अर्थात किसी घटना के घटित होने की संभावना । यदि किसी भविष्यवक्ता ने अपने 100 ग्राहकों को यह बताया कि अगले वर्ष आपके विवाह का योग है तो इस स्थिति में प्रत्येक के लिए केवल दो संभावनाएं हैं - विवाह होगा या नहीं होगा, इनमें से एक सही होगा ही । अर्थात 2 संभावनाओं में से 1 निश्चित ही घटित होगा । यानी 100 में से 50 या 50 प्रतिशत । इसी संभाव्यता के कारण कुछ भविष्यकथन सही होते पाए गए हैं । लेकिन इसमें ज्योतिषी के ज्ञान की कोई भूमिका नहीं है । साधारण शब्दों में ये तीर-तुक्का वाली बात है ।

यदि कोई भविष्यफल नकारात्मक हो तो उसके निवारण के लिए कई प्रकार के उपाय भविष्यवक्ताओं के द्वारा बताए जाते हैं । जो लोग उपाय करते हैं उनमें से कुछ को सफलता मिल जाती है, इसके पीछे भी संभाव्यता और संयोग का सिद्धांत लागू होता है । एक कारण और है- उपाय करने के बाद लोग आश्वस्त हो जाते हैं, उनका आत्मविश्वास और आत्मबल बढ़ जाता है । फलस्वरूप वे कार्य की सफलता या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अधिक प्रयास  करते हैं और कुछ को सफलता मिल भी जाती है । इस सफलता में उपाय की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती बल्कि व्यक्ति द्वारा किया गया प्रयास ही मुख्य कारक होता है ।

स्वामी विवेकानंद ने कुछ सोचकर ही ये कहा होगा - ‘‘फलित ज्योतिष को  महत्व देना  अंधविश्वास है, इसने मनुष्यों को बहुत हानि पहुंचाई है (The Complete Works of Swami Vivekananda/Volume 8/Notes Of Class Talks And Lectures/Man The Maker Of His Destiny ) ।’’

-महेन्द्र वर्मा

समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की दुर्दशा






आम तौर पर यह समझा जाता है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संबंध केवल वैज्ञानिकों से है,  ऐसा बिल्कुल नहीं है । वास्तव में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जीवन जीने का एक तरीका है ( सोचने की एक व्यक्तिगत और सामाजिक प्रक्रिया ) जो वैज्ञानिक विधि का उपयोग करता है और जिसके परिणामस्वरूप, प्रश्न पूछना, वास्तविकता का अवलोकन, परीक्षण, विश्लेषण, परिकल्पना, समीक्षा और निष्कर्ष तय करना शामिल होता है । “वैज्ञानिक दृष्टिकोण“ एक ऐसे दृष्टिकोण का वर्णन करता है जिसमें तर्क का उपयोग शामिल है। चर्चा, तर्क और विश्लेषण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्वपूर्ण भाग हैं। निष्पक्षता, समानता और लोकतंत्र के तत्व इसमें समाहित हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सत्य और नए ज्ञान की खोज करने, परीक्षण करने, परीक्षण के बिना कुछ भी स्वीकार करने से इनकार करने, नए साक्ष्य के सामने पिछले निष्कर्षों को बदलने,  पूर्व-अनुमानित सिद्धांत को नहीं बल्कि तार्किक तथ्य को स्वीकार करने और मष्तिष्क को अनुशासित करने के लिए आवश्यक है । यह केवल विज्ञान के लिए ही नहीं बल्कि जीवन के लिए और इसकी कई समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है ।

इसीलिए हमारे संविधान में भी ( भाग 4क, मूल कर्तव्य, 51क ) उल्लेखित है - ‘‘भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे ।’’ यह संविधान के उसी अनुच्छेद में उल्लेखित है जिसमें संविधान का पालन करने, उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करने की बात कही गई है ।

अब प्रश्न यह है कि क्या हम ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ संदर्भ में संविधान का पालन कर रहे हैं ?

इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करें कि इस संबंध मे हम आज क्या कर रहे हैं-
   

जब विज्ञान की प्रगति होने लगी, दुनिया भर के वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार और खोज करने लगे तो हमारे देश में कुछ लोगों ने यह कहना शुरू किया कि अमुक खोज या आविष्कार का वर्णन तो हमारे प्राचीन ग्रंथों में पहले से ही है । कुछ ने कहा कि हमारे प्राचीन ग्रंथों को पढ़कर ही वैज्ञानिक खोज करते हैं और अपना नाम दे देते हैं । आजकल यह प्रवृत्ति कुछ अधिक दिखाई दे रही है । मीडिया के सभी साधनों में इस तरह की चर्चाएं आम बात हो गई है।

अभी हाल ही में सोशल मीडिया में एक लेखक-पत्रकार ने एक पोस्ट में लिखा - ‘‘काश, स्कूली पाठ्यक्रम में वेद-शिक्षा पर ज़ोर दिया जाता तो समझ में आता कि दुनिया की प्रगति का आधार वेद है ।’’आगे उन्होंने फिर लिखा - ‘‘आज दुनिया जितनी विकसित नज़र आ रही है उसका आधार वेद है ।’’

एक प्रसिद्ध वक्ता ( इनका निधन हो चुका है, इनके भाषणों के वीडियो इंटरनेट पर मौज़ूद हैं ) ने कहा है- ‘‘सम्राट हर्षवर्धन पहले वैज्ञानिक था, बाद में राजा हुआ । इस वैज्ञानिक राजा ने कृत्रिम बर्फ़ बनाने की तकनीक का आविष्कार किया ।’’ वक्ता के अनुसार, ‘‘संस्कृत कवि बाणभट्ट के ‘हर्षचरित’ में कृत्रिम बर्फ़ बनाने की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन है ।’’
उक्त वक्ता का यह कथन नितांत असत्य है। हर्षचरित में इस तरह का कोई उल्लेख नहीं है । हर्ष वैज्ञानिक नहीं थे और न ही उसने कृत्रिम बर्फ बनाई ।

तथाकथित लेखक और  पत्रकार ही नहीं, हमारे देश के कुछ नीति-नियामक भी इस संबंध में ऐसी बातें कहते रहे हैं, जो लोगों के बीच खूब चर्चित हुए । वैज्ञानिक खोजों के संदर्भ में इनके कुछ कथन देखिए-

"भारतीय ऋषि अपनी योगविद्या के द्वारा दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेते थे, इसमें कोई संदेह नहीं कि टेलीविज़न के आविष्कार का संबंध इससे है/डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक रूप से गलत है । हमारे पूर्वजों सहित किसी ने भी मौखिक या लिखित रूप से यह नहीं कहा कि उन्होंने बंदर को आदमी के रूप में बदलते देखा है/गाय ऑक्सीजन छोड़ती है/महर्षि कणाद ने अपने समय में एक परमाणु परीक्षण किया था/ज्योतिष सबसे बड़ा विज्ञान है, हमें इसे विज्ञान से भी ज्यादा प्रोत्साहित करना चाहिए/महाभारत कहता है कि कर्ण अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुआ था, इसका अर्थ यह है कि उस समय जेनेटिक साइंस मौज़ूद था/सकारात्मक चिंतन के द्वारा बीजों की क्षमता को बढ़ाना- यौगिक खेती के पीछे यही अवधारणा है/गाय के गोबर और गोमूत्र से कैंसर की चिकित्सा की जा सकती है ।"

इन बातों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण और संविधान में प्रावधान के संदर्भ में विचार करें तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि इस तरह के विचार अवैज्ञानिक हैं, समाज हितकारी नहीं हैं और संविधान की भावना का उल्लंघन है ।
समाज का कोई जिम्मेदार व्यक्ति जब ऐसी सोच को प्रचारित करता है तो एक आम व्यक्ति तो उसका अनुकरण करेगा ही । इस तरह के विचारों के अलावा और भी बहुत से ऐसे अंधविश्वास हैं जिसे मीडिया प्रश्रय दे रहा है जो समाज को पांच हजार साल पीछे ले जाने की कोशिश कर रहा है । यह समाज के हर वर्ग के लिए धीमा जहर है जो घातक है ।

वास्तव में जिन भारतीय वैज्ञानिकों और गणितज्ञों ने अपनी खोजों से विश्व-समुदाय को महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिन पर हम गर्व करना चाहिए,  उनकी चर्चा प्रायः नहीं होती कि वे कौन थे , उन्होंने कौन से आविष्कार किये, उनके आविष्कार का क्या महत्व है, उनका समाज के प्रति क्या दृष्टिकोण था आदि । यह एक अलग आलेख का विषय है ।

यदि हम एक स्वस्थ समाज चाहते हैं तो हमें अवैज्ञानिक प्रवृत्ति से छुटकारा पाना ही होगा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तथ्यों को समझना होगा क्योंकि यह हमारा संवैधानिक और लोकतांत्रिक  कर्तव्य है और इसलिए मानवीय भी।

-महेन्द्र वर्मा