सूफी संत दीन दरवेश के जन्मकाल के संबंध में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिलती। एक मत के अनुसार इनका जन्म विक्रम संवत 1810 में उदयपुर के निकट गुड़वी या कैलाशपुरी नामक ग्राम में हुआ था। दूसरे मत के अनुसार इनका जन्म गुजरात के डभोड़ा नामक ग्राम में वि.सं. 1867 में हुआ था।
अपने गुरु अतीत बालनाथ से दीक्षित होने के पूर्व ये अनेक हिंदू तथा मुस्लिम विद्वानों से मिल चुके थे और प्रसिद्ध तीर्थस्थलों की यात्रा कर चुके थे। यही कारण है कि इनके काव्य में सूफीवाद तथा वेदांत दर्शन के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायों की विचारधारा का प्रभाव परिलक्षित होता है।
कहते हैं कि दीन दरवेश ने अपने हृदय के पावन उद्गारों को व्यक्त करते हुए सवा लाख कुंडलियों की रचना कर ली थी किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ अप्राप्य हैं। इनकी कुंडलियों का एक लघु संग्रह वि.सं. 2008 में गुजराती लिपि में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ था। इनके काव्य के प्रमुख विषय माया, ईश्वर प्रेम, सहज जीवन, विश्वप्रेम, परोपकार आदि हैं।
संवत 1910 में चंबल नदी में स्नान करते समय डूब जाने से इनका देहावसान हुआ था।
प्रस्तुत है, संत दीन दरवेश की 3 कुंडलियां-
1. माया माया करत है, खाया खर्च्या नाहिं, आया जैसा जाएगा, ज्यूँ बादल की छाँहिं। ज्यूँ बादल की छाँहि, जायगा आया जैसा, जान्या नहिं जगदीस, प्रीत कर जोड़ा पैसा। कहत दीन दरवेश, नहीं है अम्मर काया। खाया खर्च्या नाहिं, करत है माया माया।
2. बंदा कहता मैं करूँ, करणहार करतार, तेरा कहा सो होय नहिं, होसी होवणहार। होसी होवणहार, बोझ नर बृथा उठावे, जो बिधि लिखा लिलार, तुरत वैसा फल पावे। कहत दीन दरवेश, हुकुम से पान हलंदा, करणहार करतार, तुसी क्या करसी बंदा।
3. सुंदर काया छीन की, मानो क्षणभंगूर, देखत ही उड़ जायगा, ज्यूँ उडि़ जात कपूर। ज्यूँ उडि़ जात कपूर, यही तन दुर्लभ जाना, मुक्ति पदारथ काज, देव नरतनहिं बखाना। कहत दीन दरवेश, संत दरस जिन पाया, क्षणभंगुर संसार, सुफल भइ सुंदर काया।
उस दिन आईने में मेरा प्रतिबिंब कुछ ज्यादा ही अपना-सा लगा मैंने उससे कहा- तुम ही हो मेरे सुख-दुख के साथी मेरे अंतरंग मित्र ! प्रतिबिंब के उत्तर ने मुझे अवाक् कर दिया उसने कहा- तुम भ्रम में हो मैं ही तो हूँ तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु भी !
दो
इंसान को इंसान ही रहने दो न क्यूँ उकसाते हो उसे बनने के लिए भगवान या शैतान अरे, धर्म ! अरी, राजनीति !
पूजा से स्तोत्र करोड़ गुना श्रेष्ठ है, स्तोत्र से जप करोड़ गुना श्रेष्ठ है, जप से करोड़ गुना श्रेष्ठ गान है। गान से बढ़कर उपासना का अन्य कोई साधन नहीं है।
पूजा कोटिगुणं स्तोत्रं, स्तोत्रात्कोटिगुणो जपः।
जपात्कोटिगुणं गानं, गानात्परतरं नाहिं।।
स्वमुक्ति और जनसामान्य में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करना भक्तिकाल के संतों का प्रमुख लक्ष्य था। मीरा, सूर, तुलसी, कबीर, रैदास, चैतन्य महाप्रभु, गुरु नानकदेव आदि संतों ने अपने विचारों को काव्य का रूप देकर संगीत के माध्यम से सजाया, संवारा एवं जनसामान्य के कल्याणार्थ उसका प्रचार-प्रसार किया। भक्ति मार्ग पर चलते समय संगीत इनके लिए ईश्वरोपासना का श्रेष्ठतम साधन था।
भक्ति का प्रचार करने वाले संतों ने रस एवं भाव को आधार बना कर शास्त्रीय संगीत की सहायता से उसके धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्वरूप का संवर्धन किया। इनके द्वारा रचित भक्तिकाव्य- गीत, भजन, कीर्तन और पद- के प्रारंभ में विभिन्न रागों, यथा-सारंग, काफी, आसावरी, कल्याण, कान्हड़ा, मल्हार, बसंत आदि का उल्लेख मिलता है।
भक्तिगायन की प्रक्रिया शास्त्रीय रीति से सुनियोजित होती थी। नित्यक्रम में राग भैरव व गांधार आदि से प्रारंभ होकर बिलावल, तोड़ी, आसावरी आदि से गुजरते हुए पूर्वी, कल्याण आदि के सहारे सायंकाल तक पहुंचती थी। अंत में शयनकाल में विहाग राग की स्वरावलियों का प्रयोग होता था।
प्रस्तुत है, अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन के स्वर में तुलसीदास जी कृत गणेश वंदना जो राग मारवा में निबद्ध है -