धरणि धारण कर रही, चुनरी हरी बरसात में,
साजती शृंगार सोलह, बावरी बरसात में।
रोक ली है राह काले, बादलों ने किरण की,
पीत मुख वह झाँकती, सहमी-डरी बरसात में,
याद जो आई किसी की, मन हुआ है तरबतर,
तन भिगो देती छलकती, गागरी बरसात में।
एक तो बूँदें हृदय में, सूचिका सी चुभ रहीं,
क्यों किसी ने छेड़ दी फिर, बाँसुरी बरसात में।
क्रोध से बौरा गए, होंगे नदी-नाले सभी,
सोचते ही आ रही है, झुरझुरी बरसात में।
ऊपले गीले हुए, जलता नहीं चूल्हा सखी,
किंतु तन-मन क्यों सुलगता, इस मरी बरसात में।
-महेंद्र वर्मा