ठिठके-से तारों की ऊँघती लड़ी,
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,
झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी
संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,
सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
-महेन्द्र वर्मा
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
होनी के हाथों में जकड़न-सी आई
सूरज की किरणों को ठंडक क्यों भाई,
झींगुर को फाँस रही नन्ही मकड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
पश्चिम के माथे पर सुकवा की बिंदी,
आलिंगन को आतुर गंगा कालिंदी
संध्या नक्षत्रों की खोलती कड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
वर्तुल में घूमता है सप्तर्षि मन,
चंदा की जुगनू से कैसी अनबन,
सर्पिल नीहारिका में दृष्टि जा गड़ी।
पथराई लगती है सृष्टि की घड़ी।
-महेन्द्र वर्मा