सहमी-सी है झील शिकारे बहुत हुए,
और उधर तट पर मछुवारे बहुत हुए ।
चाँद सरीखा कुछ तो टाँगो टहनी पर,
जलते-बुझते जुगनू तारे बहुत हुए ।
चींटी के पग नेउर को भी सुनता हूँ,,
ढोल मँजीरे औ’जयकारे बहुत हुए ।
आओ अब मतलब की बातें भी कर लें,
जुमले वादे भाषण नारे बहुत हुए ।
कुदरत यूँ ही ख़फ़ा नहीं होती हमसे,
समझाने के लिए इशारे बहुत हुए ।
-महेन्द्र वर्मा