(श्रीनिवास रामानुजन् की सौवीं
पुण्यतिथि पर विशेष)
“प्रतिभा और योग्यता प्रायः विषम परिथितियों में ही विकसित होती हैं । रामानुजन्
हजारों सूत्रों, सिद्धांतों और विवरणों
एक ऐसा खजाना छोड़ गए हैं जो दुनिया के सबसे बड़े हीरे से भी ज्यादा मूल्यवान है ।’’
यह विचार अमेरिका के इमोरी विश्वविद्यालय के जापानी मूल के प्रोफेसर केन ओनो ने एक
साक्षात्कार में प्रसिद्ध भारतीय़ गणितज्ञ श्रीनिवास
रामानुजन् के संबंध में व्यक्त किया था । गणित की दुनिया में भारत का नाम प्रतिष्ठित
करने वाले रामानुजन् की पारिवारिक पृष्ठभूमि हर प्रकार से साधारण थी किंतु उसकी जन्मजात
गणितीय प्रतिभा विलक्षण थी ।
गणित के संदर्भ में वे स्वशिक्षित
थे । जब वे 12 वर्ष के थे एस.एल.लोनी की
प्रसिद्ध पुस्तक ‘त्रिकोणमिति’ के अतिरिक्त उच्च गणित की कुछ और पुस्तकों को पढ़ कर
उसके सारे प्रश्नों को हल कर लिया था और स्वयं नए गणितीय सूत्रों की रचना शुरू कर दी
थी । वे स्लेट पर प्रश्न हल करते । स्लेट में लिखे हुए को बार-बार साफ करने के कारण
उनकी कुहनी खुरदुरी और काली हो गई थी । गणितज्ञ कार की पुस्तक ‘सिनाप्सिस ऑफ प्योर
मैथमेटिक्स’ ने रामानुजन् की शक्तियों को और सुदृढ़ किया जो उसे कुंभकोनम के महाविद्यालय
से मिली थी ।
रामानुजन् की रुचि गणित के
अलावा किसी अन्य विषय में नहीं थी । इसी कारण वे 12वीं की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए। फलस्वरूप उन्हें विश्वविद्यालय
में प्रवेश नहीं मिला । वे चाहते थे कि उनके गणितीय कार्यों के आधार पर उन्हें कोई
छोटी-सी नौकरी दिला दे । इसी उद्देश्य से रामानुजन् ने अपने सूत्रों को सबसे पहले 1910 में वी. रामास्वामी अय्यर को दिखाया जो ‘इंडियन
मैथमेटिकल सोसायटी’ के संस्थापक थे । उसके बाद वे पी.वी. शेषु अय्यर, नेल्लोर के कलेक्टर दीवान बहादुर आर. रामचंद्र राव,
मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के अध्यक्ष सर फ्रांसिस स्प्रिंग
और मि. ग्रिफिथ, भारत की वेधशालाओं
के निदेशक डॉ. जी.टी. वाकर आदि से मिले । इन्होंने रामानुजन् के कार्यों की सराहना
की लेकिन उन्हें केवल क्लर्क की नौकरी ही मिल सकी। 1903 से 1914 के मध्य कैम्ब्रिज
जाने से पहले तक दो रजिस्टरों के 400 पृष्ठों में वे अपने सूत्रों और सिद्धांतों के बारे में लिख चुके थे । उनका प्रथम
शोध पत्र ‘जर्नल ऑफ इंडियन मैथमेटिकल सोसायटी’ में 1911 में प्रकाशित हुआ था । रामानुजन् को सुझाव दिया गया कि उन्हें
इंग्लैंड जाना चाहिए क्योंकि उनके गणित को इंग्लैंड के गणितज्ञ ही महत्व दे सकते हैं
।
मित्रों के कहने पर रामानुजन्
ने कैम्ब्रिज के प्रोफेसर जी.एच. हार्डी को पत्र लिखा । पहले दो पत्रों का कोई उत्तर
नहीं मिला। 16 जनवरी, 1913 को लिखे गए तीसरे पत्र के बाद हार्डी ने रामानुजन्
को कैम्ब्रिज आमंत्रित किया किंतु परिवार और बिरादरी वालों ने उनके समुद्र यात्रा करने
पर आपत्ति व्यक्त की और जाति से बहिष्कृत करने की धमकी दी। 1914 में कैम्ब्रिज के गणित के प्राध्यापक ई.एच. नेबिल
भारत आए । डॉ. हार्डी ने नेबिल को कह दिया था कि वे रामानुजन् से मिलें और उन्हें अपने
साथ कैम्ब्रिज ले आएं । नेविल ने मद्रास वि.वि. के अधिकारियों को रामानुजन् को छात्रवृत्ति
देने हेतु एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘‘श्री रामानुजन् की प्रतिभा का संसार
के समक्ष उद्घाटन गणित संसार में हम लोगों के समय की सर्वोकृष्ट घटना होगी । उनका नाम
भी गणित के इतिहास में महान और सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञों में लिखा जाएगा ।’’ तब वि.वि.
ने रामानुजन् को वार्षिक छात्रवृत्ति स्वीकृत की । उसी राशि को लेकर 26 वर्षीय रामानुजन् मि. नेविल के साथ 17 मार्च, 1914 को लंदन के लिए रवाना
हुए ।
यहाँ से रामानुजन् के जीवन
में एक नए युग का आरंभ हुआ और इसमें डॉ. हार्डी की बड़ी भूमिका थी । उनके गणितीय शोध
से इंग्लैंड के गणितज्ञ बहुत प्रभावित हुए । वे 6 वर्ष वहाँ रहे । इस अवधि में रामानुजन् ने हार्डी के साथ मिलकर
21 शोधपत्र प्रकाशित किए । जी.
एच. हार्डी ने लिखा हैं- ‘‘यह अत्यंत विस्मयजनक
प्रतीत होता है कि श्रीनिवास रामानुजन् ने इतनी छोटी अवस्था में इतने महत्वपूर्ण और
कठिन प्रश्नों को सिद्ध कर दिया है । इन्हीं प्रश्नों को हल करने में यूरोप के बड़े
से बड़े गणितज्ञों को सौ वर्ष से अधिक लग गए और उनमें से बहुत से तो आज भी हल नहीं किए
जा सके हैं । मैं उनके जैसे किसी और गणितज्ञ से नहीं मिला हूं, रामानुजन् की तुलना केवल जैकोबी या आयलर से की जा
सकती है ।’’
जून, 1914 में उनको कैम्ब्रिज में अध्ययन हेतु प्रवेश दिया
गया था । 16 मार्च, 1916 को उनके द्वारा किए गए एक विशेष शोधकार्य के आधार
पर उन्हें बी.ए. की उपाधि प्रदान की गई । 28 फरवरी, 1918 को ‘रायल सोसायटी’
के सदस्य नामित किए गए । रायल सोसायटी के पूरे इतिहास में इतने कम उम्र का कोई सदस्य नहीं हुआ । इसके बाद
2 मई, 1918 को ट्रिनिटी कालेज का सदस्य बनने वाले वे पहले
भारतीय बने । उन्हें 6 वर्षों के लिए 250 पाउंड वार्षिक की फेलोशिप राशि प्रदान की गई जिसका
लाभ लेना उनके भाग्य में नहीं था । अस्वस्थ होने के कारण 27 मार्च, 1919 को वे भारत वापस
आ गए । रामानुजन् के भारत लौटने पर प्रो. हार्डी ने कहा था- ‘‘रामानुजन् इतने महान
और प्रतिष्ठित गणितज्ञ हो कर भारत लौटेंगे जितना आज तक कोई भारतीय नहीं हुआ । मुझे
आशा है कि भारत इन्हें अपनी अमूल्य संपत्ति समझ कर इनका उचित सम्मान करेगा ।’’ उनके
लिए मद्रास वि. वि. में प्राचार्य का विशेष पद सृजित किया गया किंतु अधिक समय तक इस
पद पर कार्य नहीं कर सके । उनका रोग असाध्य हो चुका था । 26 अप्रेल, 1920 को लगभग 4 हजार गणितीय सूत्रों
के रूप में अपनी बौद्धिक संपत्ति छोड़ कर अनंत को जानने वाला रामानुजन् स्वयं अनंत की
ओर चले गए । प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ ने उनके निधन पर जो लेख प्रकाशित किया
था, उस का यह अंश रामानुजन् के
कार्यों की श्रेष्ठता को व्यक्त करता है- ‘‘इस समय से 20 वर्ष पश्चात जब रामानुजन् के कार्यों पर शोध कार्य पूरे हो
जाएंगे तब उनका कार्य आज की अपेक्षा और अधिक महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक प्रतीत होगा
।’’
रामानुजन् का कार्य क्षेत्र मूल रूप से शुद्ध गणित था । संख्या सिद्धांत
और अनंत श्रेणियों पर उन्होंने अति महत्वपूर्ण और मौलिक सूत्र प्रस्तुत किए । उनके
द्वारा संख्या 1729 के कुछ विशिष्ट गुण
बताए जाने के कारण इसे ‘रामानुजन् संख्या’ कहा जाता है । रामानुजन् ने संख्या 139 का एक जादुई वर्ग बनाया जिसमें उनकी जन्म तिथि
की संख्याएं 22,12,18 और 87 का प्रयोग किया गया था। उन्होंने जादुई वर्गों
को हल करने का एक सूत्र भी बनाया ।
रामानुजन् के अधिकांश प्रमेय उच्च गणित से संबंधित
हैं जो आज कम्प्यूटर विज्ञान, इंजीनियरिंग,
भौतिकी और गणित के विविध क्षेत्रों में उपयोगी हैं
। अमेरिका के इमोरी वि.वि. के प्रोफेसर केन ओनो कहते है- ‘‘ब्लैक होल संबंधी एक समस्या
को हमने रामानुजन् के अंतिम दिनों के सूत्रों से ही हल किया जबकि 1920 में ब्लैक होल के बारे में वैज्ञानिकों को कोई
जानकारी नहीं थी ।’’ प्रकृति के गुणों और रहस्यों को समझने में गणित की महत्वपूर्ण
भूमिका होती है । रामानुजन् के निधन के बाद से ही उनके कार्यों का गणितज्ञों द्वारा
निरंतर विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है । उनके कुछ अनुमानों और कथनों ने अध्ययन के नए
क्षेत्रों का सृजन किया है । दुनिया भर के गणितज्ञ और वैज्ञानिक 100 सालों के बाद भी उनके कार्यों पर शोध कर रहे हैं
। गणितज्ञ फ्रीमैन डायसन ने ठीक ही कहा था- ‘‘रामानुजन् के उद्यान से जो बीज हवा में
बिखरे हैं वे अब पूरी दुनिया में अंकुरित होने लगे हैं ।’’
उनके सभी प्रकाशित 21 शोध पत्रों का संग्रह 355 पृष्ठों के ग्रंथ के रूप में उनके निधन के 7 साल बाद 1927 में ‘द कलेक्टेड पेपर्स’ नाम से कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
से प्रकाशित हुआ । उन्होंने अपने जीवन काल में गणित के 3884 प्रमेयों का सृजन किया । 1985 में उनके मूल नोट बुक्स ‘रामानुजन् नोट बुक्स’ शीर्षक से 5 खंडों में प्रकाशित हुआ । उनका एक पुराना रजिस्टर
जिसमें वे प्रमेयों और सूत्रों को लिखा करते थे, 1976 में अचानक ट्रिनिटी कालेज के पुस्तकालय में मिला जिसे रामानुजन्
की ‘द लॉस्ट बुक’ के नाम से जाना गया । यह
पुस्तक उनकी जन्म शताब्दी वर्ष 1987 में प्रकाशित हुआ
। रामानुजन् के हस्तलिखित 3 नोटबुक मद्रास वि.वि.
के पुस्तकालय में हैं । उनके द्वारा लिखे गए कुछ पत्र राष्ट्रीय अभिलेखागार में है
और कुछ अन्य दस्तावेज कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज के पुस्तकालय में है ।
रामानुजन् की जीवनी से संबंधित
पुस्तकों में राबर्ट कैनिगेल लिखित ‘द मैन हू नो इन्फिनिटी’, ‘द इंडियन क्लर्क’ और ‘द फर्स्ट वन’ प्रमुख हैं ।
उनके नाम पर 3 जर्नल भी प्रकाशित हो रहे
हैं ।
विदेशों में उन पर बहुत से
नाटक भी मंचित हुए हैं जिनमें ‘द ओपेरा-रामानुजन्, पार्टीशन’, ‘फर्स्ट क्लास मैन’
और ‘ए डिस्अपीयरिंग नंबर’ उल्लेखनीय हैं । उनके जीवन पर देश-विदेश में कई डाक्यूमेंटरी
फिल्में बनीं । दो फीचर फिल्में भी बनीं- 1914 में ‘रामानुजन’ और 2015 में ‘द मैन हू नो इन्फिनिटी’। भारत सरकार ने वर्ष 1962,
2011, 2012 और 2016 में रामानुजन् की स्मृति में डाक टिकिट जारी किए
। उनकी 125 वीं जयंती पर वर्ष 2012 को ‘राष्ट्रीय गणित वर्ष’ घोषित किया गया था जबकि
उनकी जन्मतिथि 22 दिसंबर को ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ घोषित किया गया है । लेकिन अब समय है कि हम प्रसिद्ध वैज्ञानिक
पद्मविभूषण रोदम नरसिम्हा के इस गूढ़ कथन पर भी ध्यान दें- ‘‘भारतीय विश्वविद्यालयों
में अभी भी रामानुजन् को प्रवेश नहीं मिला है !’’
एक महान बौद्धिक व्यक्तित्व
होने के बावजूद रामानुजन् का स्वभाव अत्यंत सरल था । वे आस्तिक थे किंतु रूढ़ियों और
कुरीतियों को स्वीकार नहीं करते थे । उनकी धारणा थी कि जात-पाँत और छुआछूत के नियम
ईश्वरीय नहीं हैं और इनका पालन करना भी अनिवार्य नहीं है । रामानुजन् का जीवन अल्प
समय का रहा, लगभग 33 वर्ष, किंतु उनकी कीर्ति दुनिया भर के गणितज्ञों और वैज्ञानिकों की स्मृति में चिरकाल
तक स्पंदित होती रहेगी ।
-महेन्द्र वर्मा