क्या जीवन भी है सतरंगी



झरने की बूंदों पर घुलती, किरणें देखा करते हैं,
क्या जीवन भी है सतरंगी, अक्सर सोचा करते हैं।


कभी कभी ग़म अनुवादित हो ढल जाते हैं आंसू में,
मोती बनकर जो पलकों से, टप टप टपका करते हैं।


मित्र बहुत हैं अपनेपन से, गले लगाने वाले भी,
इनमें से कुछ लोग बगल में, छुरी छुपाया करते हैं।


बादल की करतूतें देखो, हद है दीवानेपन की,
जहां समंदर वहीं गरजकर, अक्सर बरसा करते हैं।


मंदिर मस्जिद बनवा देंगे इनकी कमी नहीं पर ये,
भूखे-बेबस-लाचारों को, देख किनारा करते हैं।


तेरा मालिक तुझ में ही है, दिल में झांक जरा देखो,
नादां हैं वो जो  ऊपर की, ओर निहारा करते हैं।


तरुवर नदिया पंछी तितली, धूप हवा की सीखों से,
लोग समझ जाएंगे इक दिन, ऐसी आशा करते हैं।

                    - महेन्द्र वर्मा

स्वामी रामानंद




रामभक्ति के आचार्य स्वामी रामानंद का जन्म विक्रम संवत 1356 में हुआ।
इनके पिता का नाम पुण्यसदन तथा माता का नाम सुशीला देवी था। रामानंद ने स्वामी राघवानंद से दीक्षा ली। गुरु से उन्हें विशिष्टाद्वैत के सिद्धांतों के साथ साथ समस्त शास्त्रों और तत्वज्ञान की भी शिक्षा मिली। रामानंद स्वामी का केन्द्रीय मठ वाराणसी में पंचगंगा घाट पर आज भी विद्यमान है। उन्होंने भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा करके शास्त्रार्थ में विपक्षियों को परास्त किया और अपने मत का प्रचार किया। उनके प्रयत्न से ही देश भर में राम नाम की महिमा फैली। उन्होंने भक्ति आंदोलन में उत्तर और दक्षिण को जोड़ने के लिए एक पुल का काम किया। 
तीर्थयात्रा से लौटने के पश्चात गुरुभाइयों से मतभेद के कारण गुरु राघवानंद ने उन्हें नया सम्प्रदाय चलाने का परामर्श दिया। इस प्रकार रामानंद सम्प्रदाय का आरंभ हुआ। इस सम्प्रदाय का नाम श्री सम्प्रदाय या बैरागी सम्प्रदाय भी है। रामानंद ने उदार भक्ति का मार्ग दिखाया। उनके यहां भक्ति के द्वार सबके लिए खुले थे। कर्मकांड का महत्व इनके यहां बहुत कम था। स्वामी रामानंद के शिष्यों में अनंतानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास तथा पीपा जैसे संत भी सम्मिलित हैं। 
उनकी रचनाओं में कुछ संस्कृत की भी बताई जाती है। केवल दो का अभी तक हिंदी पदो ंके रूप में होना स्वीकार किया जाता है। इनमें से गुरुग्रंथ साहिब में केवल एक ही संग्रहीत है। प्रस्तुत है स्वामी रामानंद का एक पद-

कत जाइयो रे घर लागो रंगु,
मेरा चित न चलै मन भयो पंगु।
एक दिवस मन भयो उमंग,
घसि चोवा चंदन बहु सुगंध।
पूजन चाली ब्रह्म की ठाईं,
ब्रह्म बताइ गुरु मन ही माहिं।
जहं जाइए तहं जल पषान,
तू पूरि रहो है सब समान।
बेद पुरान सब देखे जोई,
उहां जाइ तउ इहां न होई।
सतगुरु मैं बलिहारी तोर।
रामानंद र्साइं रमत ब्रह्म,
गुरु सबद काटे कोटि करम।

भावार्थ-
कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, परमतत्व की वास्तविक स्थिति का आनंद घर में ही प्राप्त हो गया। किंतु मेरा चित्त और मन नहीं मानता। एक दिन उमंग में चंदन आदि लगाकर पूजा के लिए मैं ईश्वर के स्थान पर गया किंतु गुरु ने बताया कि वह ब्रह्म तो मन में ही है। जल, थल सभी जगह वह परमतत्व समान रूप से उपस्थित है। सभी शास्त्रों को विचारपूर्वक देखने से ज्ञात हुआ कि वह तो यहीं, मन में है। हे सतगुरु, आपने मेरी सारी विकलता और भ्रम को दूर किया। ब्रह्म में रमण करने वाले गुरु के उपदेश से सारे कर्मों का विनाश हो जाता है।

अब दीवाली आई






जगमग हर घर-द्वार  कि अब दीवाली आई,
पुलकित  है  संसार  कि  अब  दीवाली आई।


दुनिया के  कोने-कोने  में  दीप  जले हैं, 
डरता है अंधियार कि अब दीवाली आई।


गीत प्यार के गीत मिलन के गीत ख़ुशी के, 
गाओ  मेरे   यार   कि  अब   दीवाली  आई।


जी भर जी लो गले लगालो सबको हंसकर,
जीवन के  दिन  चार  कि अब दीवाली आई।


दुनिया से  अब  द्वेष  मिटाकर ही दम लेंगे,
दिल में रहे बस प्यार कि अब दीवाली आई।


सुख समृद्धि स्वास्थ्य संपदा मिले सभी को,
यही  कामना   चार  कि   अब दीवाली आई।


धरती  सागर  जंगल सरिता गगन पवन पर,
हो सबका  अधिकार कि  अब  दीवाली आई।


खुद  भी  जियो   और   दूसरों को जीने दो,
जीवन  का यह सार कि अब  दीवाली  आई।


मेहनत से धन खूब कमाओ भ्रष्ट बनो मत,
लक्ष्मी  कहे  पुकार   कि  अब  दीवाली आई।


जीवन के इस महा समर में दुआ करें हम,
हो न किसी की हार कि अब दीवाली आई।


अक्षत  रोली  और  मिठाई  ले  आया  हूं,
स्वीकारो  उपहार  कि अब दीवाली  आई।

दीपावली की अशेष शुभकामनाओं के साथ...

                                       -महेन्द्र वर्मा

संत सुंदरदास

सावधान क्यूं न होई



संत सुंदरदास, संत दादू दयाल के योग्यतम शिष्यों में से एक थे। इनका जन्म जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी दौसा नगर में विक्रम संवत 1653 की चैत्र सुदी 9 को हुआ था। इनके जन्म स्थान का खंडहर आज भी विद्यमान है। इनके पिता का नाम परमानंद तथा माता का नाम सती था। दादू जी की संवत 1658 में दौसा यात्रा के दौरान इनके पिता ने इन्हें दादू जी के चरणों में डाल दिया था। तभी से ये निरंतर दादू जी के सान्निध्य में रहते थे। दादू जी ने सुंदरदास को विद्योपार्जन के लिए काशी भेजा जहां 14 वर्षों तक इन्होंने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। अनेक वर्षों तक योगाभ्यास भी किया। आपने संपूर्ण भारत का भ्रमण करते हुए काव्य सृजन किया। 
संत सुंदरदास ने कुल 42 ग्रंथों की रचना की जिनका संग्रह सुंदर ग्रंथावली के नाम से प्रकाशित हो चुका है। इनके दो बड़े ग्रंथ ज्ञान समुद्र और सुंदर विलास हैं। जिनमें से प्रथम में मुख्यतया नवधाभक्ति, अष्टांग योग, सांख्य और अद्वैत मत का पांडित्यपूर्ण विवेचन है तथा द्वितीय में 563 छदों द्वारा अन्य विषयों का प्रतिपादन हुआ है। दार्शनिक विषयों का समावेश होते हुए भी इनके ग्रंथों में भाषा एकाधिकार एवं काव्य कौशल के कारण सहज रोचकता है। इनका देहावसान विक्रम संत 1746 में सांगानेर में हुआ।
प्रस्तुत है संत सुंदरदास जी की एक रचना-

बार बार कह्यो तोहि, सावधान क्यूं न होइ,
ममता की मोट काहे, सिर को धरतु है।
मेरो धन मेरो धाम, मेरो सुत मेरी बाम,
मेरे पसु मेरे गाम, भूल्यो ही फिरतु है।
तू तो भयो बावरो, बिकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंधकूप गेह, तामे तू परतु है।
सुंदर कहत तोहि, नेकहु न आवे लाज,
काज को बिगार कै, अकाज क्यों करतु है।

भावार्थ-तुझे बार-बार समझाया गया किंतु तू सावधान क्यों नहीं होता। मोह-माया का बोझ अपने सिर पर ढो रहा है। मेरा धन, मेरा महल, मेरा पुत्र, मेरी पत्नी, मेरे पशु, मेरा गांव कहते हुए भ्रम में पड़ा हुआ है। तू बावला हो गया है, तेरी बुद्धि नष्ट हो चुकी है जो इस प्रकार संसार रूपी अंधेरे कुंए में गिर गया है। मोह-माया के बंधन को त्याग, इस कार्य को बिगाड़ कर अकार्य क्यों कर रहा है ?

संत पीपा जी

जो खोजै सो पावै




राजस्थान में गागरोनगढ़ का गढ़ झालावाड़ से कुछ दूरी पर है। यहां एक शूरवीर शक्तिशाली राजा हुए जिनका नाम था, प्रतापराय। विक्रम संवत 1380 में इनका जन्म हुआ। ये 52 गढ़ों के एकछत्र शासक थे। फिरोजशाह तुगलक की सेना को पराजित करने वाले प्रतापी राजा प्रतापराय इतना सब होते हुए भी भक्ति एवं साधना के लिए कुछ समय निकालकर परमात्मा का ध्यान व स्मरण करते रहते थे। इसे वह परमात्मा की कृपा मानते और संतों की सेवा के लिए तथा प्रजा की भलाई के लिए सदैव दत्तचित्त रहते।
स्वामी रामानंद से उन्होंने गुरुदीक्षा ली। एक बार स्वामी रामानंद संत कबीर, संत रैदास तथा अन्य कई शिष्यों के साथ गागरोन आए। राजा प्रताप राय ने उनका भव्य स्वागत किया। गुरु रामानंद ने अपने शिष्य राजा प्रतापराय को यहीं मंत्र देकर उपदेश दिया -‘‘हे शिष्य, तू लोक हित के लिए प्रेम रस ‘पी‘ और दूसरों को भी ‘पा‘ अर्थात पिला।‘‘ बस इसी उपदेश के दो अक्षरों ‘पी‘ और ‘पा‘ को जोड़कर राजा प्रताप राय ने अपने जीवन का मुक्ति सूत्र बना लिया और अपना नाम ही ‘पीपा‘ रख लिया। उसके बाद वे संत पीपा के नाम से विख्यात हो गए। इनकी वाणियों की दो हस्तलिखित प्रतियां द्वारिका के एक मठ में उपलब्ध हैं।
गुरुग्रंथ साहिब में संकलित संत पीपा जी के निम्नलिखित पद में उनके दार्शनिक विचारों का परिचय मिलता है-

काया देवा काया देवल, काया जंगम जाती।
काया धूप दीप नइबेदा, काया पूजा पाती।
काया के बहुखंड खोजते, नवनिधि तामें पाई। 
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो, राम जी की दुहाई।
जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे, जो खोजे सो पावे।
पीपा प्रणवै परम तत्त है, सतगुरु होय लखावै।

भावार्थ-
इस देह के भीतर ही सच्चा देवता स्थित है। इस देह में ही हरि और उसका मंदिर है। यह देह ही चेतन यात्री है। यह देह ही धूप दीप प्रसाद हैं तथा यही फूल और पत्ते हैं। जिस नौ निधि को विभिन्न स्थानों पर खोजते हैं वह भी इसी देह में है। आववागमन से परे अविनाशी तत्व भी इसी देह में है। जो समस्त ब्रह्मांड में है वह सब इस देह में भी है। सतगुरु की कृपा से उस परम तत्व के दर्शन हो सकते हैं।

संत दरिया साहेब

दुनिया भरम भूल बौराई




                    मारवाड़ प्रदेश के जैतारन गांव में संत दरिया साहेब का जन्म संवत 1733 में हुआ था। इनके समसामयिक एक अन्य संत दरिया भी थे जो दरिया साहेब बिहार वाले के नाम से प्रसिद्ध हैं। यहां आज हम दरिया साहेब मारवाड़ वाले की चर्चा कर रहे हैं। अपने पिता का देहांत हो जाने के कारण ये परगना मेड़ता के रैनगांव में अपने मामा के यहां रहने लगे थे। इन्होंने संवत 1769 में बीकानेर प्रांत के खियानसर गांव के संत प्रेम जी से दीक्षा ग्रहण की थी। 
                    संत दरिया साहेब के अनुयायी इन्हें संत दादूदयाल का अवतार मानते हैं। इनकी वाणियों की संख्या एक हजार कही जाती है। इनकी रचनाओं का एक छोटा सा संग्रह प्रकाशित हुआ है जिससे इनकी विशेषताओं का कुछ पता चलता हे। इनके पदों एवं साखियों के अंतर्गत इनकी साधना संबंधी गहरे अनुभवों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। इनका हृदय बहुत ही कोमल और स्वच्छ था। इनकी भाषा पर इनके प्रांत की बोलियों का अधिक प्रभाव नहीं है। अपने पदों में अनेक स्थानों पर इन्होंने स्त्रियों की महत्ता व्यक्त की है।
प्रस्तुत है, संत दरिया साहेब मारवाड़ वाले का एक पद-

संतो क्या गृहस्थ क्या त्यागी।
जेहि देखूं तेहि बाहर भीतर, घट-घट माया लागी।
माटी की भीत पवन का खंबा, गुन अवगुन से छाया।
पांच तत्त आकार मिलाकर, सहजैं गिरह बनाया।
मन भयो पिता मनस भइ माई, सुख-दुख दोनों भाई।
आसा तृस्ना बहनें मिलकर, गृह की सौज बनाई।
मोह भयो पुरुष कुबुद्धि भइ धरनी, पांचो लड़का जाया।
प्रकृति अनंत कुटुंबी मिलकर, कलहल बहुत मचाया।
लड़कों के संग लड़की जाई, ताका नाम अधीरी।
बन में बैठी घर घर डोलै, स्वारथ संग खपी री।
पाप पुण्य दोउ पार पड़ोसी, अनंत बासना नाती।
राग द्वेष का बंधन लागा, गिरह बना उतपाती।
कोइ गृह मांड़ि गिरह में बैठा, बैरागी बन बासा।
जन दरिया इक राम भजन बिन,घट घट में घर बासा।

गुरु तेग बहादुर

जगत में झूठी देखी प्रीत


सिक्ख धर्म के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर छठवें गुरु हरगोविंद जी के पुत्र थे। उनका जन्म 1 अप्रेल 1621 ई. को अमृतसर में हुआ था। पिता की देख-रेख में उन्हें अस्त्र-शस्त्र संचालन के साथ-साथ ज्ञान-ध्यान की भी शिक्षा मिली। दसवें गुरु गोविंद सिंह इन्हीं के पुत्र थे। आठवें गुरु हरिकृश्ण जी के ज्योतिर्लीन होने के बाद गुरु तेग बहादुर 43 वर्ष  की अवस्था में गुरुगद्दी पर विराजित हुए। उन्होंने विभिन्न धार्मिक स्थानों की यात्राएं की और आनंदपुर नामक नगर बसाया। औरंगजेब के अत्याचारों से सताए हुए कश्मीरी पंडितों ने यहीं आकर उनसे धर्म की रक्षा की याचना की थी। 1665 ई. में वे धर्म प्रचार और तीर्थ यात्रा पर निकले। 
औरंगजेब कश्मीरी हिंदुओं को बलात् मुसलमान बनाने लगा था। गुरु तेग बहादुर ने इसका विरोध किया तो औरंगजेब ने उन्हें  और उनके शिष्यों को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। गुरु तेग बहादुर  धर्म परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए और अपने शिष्यों के साथ 1675 ई. में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। जिस स्थान पर गुरु तेगबहादुर ने अपना बलिदान दिया वह स्थान अब शीशगंज गुरुद्वारा के नाम से प्रसिद्ध है। जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ, वह गुरुद्वारा रकाबगंज है।
गुरु तेगबहादुर का हृदय कोमल व क्षमाशील था। उन्होंने बहुत से पदों एवं साखियों की रचना की थी जो आदिग्रंथ में महला 9 के अंतर्गत संग्रहीत हैं। उनके प्रत्येक पद में उनकी रहनी की स्पष्ट छाप लक्षित होती है और उनके शब्द गहरी अनुभूति के रंग में रंगे हुए हैं। उनकी रचनाओं में पंजाबी की अपेक्षा ब्रज भाषा का अधिक प्रयोग हुआ है। उनकी बहुत सी रचनाओं के अंत में ‘नानक‘ शब्द का प्रयोग होने के कारण भ्रमवश उन्हें गुरु नानक देव की रचनाएं समझ ली जाती हैं।
प्रस्तुत है गुरु तेग बहादुर जी का एक प्रसिद्ध पद-


जगत में झूठी देखी प्रीति।
अपने सुख ही सों सब लागे, क्या दारा क्या मीत।
मेरो मेरो सबै कहत हैं, हित सों बांधेउ चीत।
अंत काल संगी नहिं कोउ, यह अचरज है रीत।
मन मूरख अजहूं नहिं समझत, सिख दे हारेउ नीत।
नानक भव जल पार परै जब, गावै प्रभु के गीत।