प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफिलों में अब जरा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।
मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
-महेन्द्र वर्मा
नाकामी को ढंकते क्यूं हो,
नए बहाने गढ़ते क्यूं हो ?
रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?
तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ?
भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?
पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?
कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?
नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?
-महेन्द्र वर्मा
लम्हा एक पुराना ढूंढ,
फिर खोया अफ़साना ढूंढ।
वे गलियां वे घर वे लोग,
गुज़रा हुआ ज़माना ढूंढ।
भला मिलेगा क्या गुलाब से,
बरगद एक सयाना ढूंढ।
लोग बदल से गए यहां के,
कोई और ठिकाना ढूंढ।
कुदरत में है तरह तरह के,
सुंदर एक तराना ढूंढ।
दिल की गहराई जो नापे,
ऐसा इक पैमाना ढूंढ।
प्रेम वहीं कोने पर बैठा,
दिल को ज़रा दुबारा ढूंढ।
जिस पर तेरा नाम लिखा हो,
ऐसा कोई दाना ढूंढ।
- महेन्द्र वर्मा