नवगीत

अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।


प्रात स्नान कर दिनकर निकला,
छुपा क्षणिक आनन को दिखला,

संध्या के आंचल में लाली
वीर बहूटी दहके।
अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।


दुख श्यामल घन-सा अंधियारा,
इंद्रधनुष-सा सुख उजियारा,


जीवन की हरियाली बन कर
हरा-हरा तृण महके।
अम्बर के नैना भर आए
नीर झरे रह-रह के।

                                       -महेंद्र वर्मा

संत नागरीदास


राजपाट छोड़कर सन्यास ग्रहण करने वाली विभूतियों में संत नागरी दास जी का नाम अग्रगण्य है। आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व राजस्थान के किशनगढ़ राज्य के राजा सावंतसिंह ने वैराग्य ग्रहण कर शेष जीवन ईश्वरभक्ति और काव्य सृजन में व्यतीत किया था। 
इनका जन्म वि. सं. 1756, पौष कृष्ण 13 को हुआ था। गुरु श्री वृंदावनदेवाचार्य से इन्होंने दीक्षा प्राप्त की। गुरु की प्रेरणा से वि. सं. 1780 में संत नागरी दास जी ने सर्वप्रथम मनोरथ मंजरी नामक ग्रंथ की रचना की। इसके पश्चात आने वाले वर्षों में उन्होंने अनेक काव्यग्रंथों की रचना की, जिनमें से प्रमुख ये हैं- रसिक रत्नावली, विहार चंद्रिका, निकुंज विलास, ब्रजयात्रा, भक्तिसार, पारायणविधिप्रकाश, कलिवैराग्यलहरी, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजबैकुंठतुला, भक्तिमगदीपिका, फागविहार, युगलभक्तिविनोद, बालविनोदन, वनविनोद, सुजनानंद, तीर्थानंद और वनजनप्रशंसा। इन सभी ग्रंथों का संकलन ‘नागर समुच्चय‘ नाम से प्रकाशित हो चुका है।
संत नागरी दास जी ने वि. सं. 1821 में वृंदावन में मुक्ति प्राप्त की।

प्रस्तुत हैं, संत नागरी दास जी के कुछ नीतिपरक दोहे-

जहां कलह तहं सुख नहीं, कलह सुखनि कौ सूल,
सबै कलह इक राज में, राज कलह कौ मूल।


दिन बीतत दुख दुंद में, चार पहर उत्पात,
बिपती मरि जाते सबै, जो होती नहिं रात।


मेरी मेरी करत क्यों, है यह जिमी सराय,
कइ यक डेरा करि गए, कई किए कनि आय।


द्रुम दौं लागैं जात खग, आवैं जब फल होय,
संपत के साथी सबै, बिपता के नहिं कोय।


नीको हू लागत बुरा, बिन औसर जो होय,
प्रात भई फीकी लगै, ज्यों दीपक की लोय।


शत्रु कहत शीतल वचन, मत जानौ अनुकूल,
जैसे मास बिसाख में, शीत रोग कौ मूल।


काठ काठ सब एक से, सब काहू दरसात,
अनिल मिलै जब अगर कौ, तब गुन जान्यो जात।

दोहे


दुनिया अद्भुत ग्रंथ है, पढ़िये जीवन माहिं,
एक पृष्ठ भर बांचते, जो घर छोड़त नाहिं।


दुर्जन साथ न कीजिए, यद्यपि विद्यावान,
सर्प भले ही मणि रखे, विषधर ही पहचान।


पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्ति में, लगते वर्ष अनेक,
पर कलंक की क्या कहें, लगता है पल एक।


प्रसन्नता को जानिए, जैसे चंदन छाप,
दूसर माथ लगाइए, उंगली महके आप।


पुष्पगंध विसरण करे, चले पवन जिस छोर,
किंतु कीर्ति गुणवान की, फैले चारों ओर।


प्रेम भाव को मानिए, सर्वश्रेष्ठ वरदान,
जीवन सुरभित हो उठे, गूंजे सुखकर गान।


व्यथा सिखाती है हमें, सीख उसे पहचान,
ग्रंथों में भी न मिले, ऐसा अनुपम ज्ञान।

                                                                    -महेन्द्र वर्मा