गीतिका : बरसात में



धरणि धारण कर रही, चुनरी हरी बरसात में,

साजती शृंगार सोलह, बावरी बरसात में।



रोक ली है राह काले, बादलों ने किरण की,

पीत मुख वह झाँकती, सहमी-डरी बरसात में,



याद जो आई किसी की, मन हुआ है तरबतर,

तन भिगो देती छलकती, गागरी बरसात में।



एक तो बूँदें हृदय में, सूचिका सी चुभ रहीं,

क्यों किसी ने छेड़ दी फिर, बाँसुरी बरसात में।



क्रोध से बौरा गए, होंगे नदी-नाले सभी,

सोचते ही आ रही है, झुरझुरी बरसात में।



ऊपले गीले हुए, जलता नहीं चूल्हा सखी,

किंतु तन-मन क्यों सुलगता, इस मरी बरसात में


                                     
                                                                   -महेंद्र वर्मा

मैं भी इक संतूर रहा हूं।


दिल ही हूं मजबूर रहा हूं,
इसीलिए मशहूर रहा हूं।


चलता आया उसी लीक पर,
दुनिया का दस्तूर रहा हूं।


नए दौर में सच्चाई का,
चेहरा हूं, बेनूर रहा हूं।


वो नज़दीक बहुत हैं मेरे,
जिनसे अब तक दूर रहा हूं।


चोट लगी तो फूल झरे हैं,
मैं भी इक संतूर रहा हूं।


कहते हैं सब कभी किसी की,
आंखों का मैं नूर रहा हूं।


अब मुझको आना न जाना,
मैं तो बस मग़्फ़ूर रहा हूं।

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संतूर-  एक वाद्ययंत्र
मग़्फ़ूर-जिसे मोक्ष प्राप्त हो गया हो



                                          -महेंद्र वर्मा

सबसे उत्तम मित्र


ग्रंथ श्रेष्ठ गुरु जानिए , हमसे कुछ नहिं लेत,
बिना क्रोध बिन दंड के, उत्तम विद्या देत।


संगति उनकी कीजिए, जिनका हृदय पवित्र,
कभी-कभी एकांत भी सबसे उत्तम मित्र।


मन-भीतर के मैल को, धोना चाहे कोय,
नीर नयन-जल से उचित, वस्तु न दूजा कोय।


मन की चंचल वृत्ति से, बिगड़े सारे काज,
जिनका मन एकाग्र है, उनके सिर पर ताज।


करुणा के भीतर निहित, शीतल अग्नि सुधर्म,
क्रूर व्यक्ति का हृदय भी, कर देती है नर्म।


गुण से मिले महानता, ऊंचे पद से नाहिं,
भला शिखर पर बैठ कर, काग गरुड़ बन जाहि ?


मनुज सभ्यता में नहीं, उनके लिए निवास, 
जो हर क्षण दिखता रहे, खिन्न निराश उदास।


                                                                                     -महेंद्र वर्मा