कहाँ तुम चले गए / 10.10.2011



दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है



कलाकार
ईश्वर की सबसे प्यारी संतान होता है।
हे ईश्वर !
तुम जब भी अपनी बनाई दुनिया के
तमाम दंद-फंद से
कुछ पलों के लिए अलग होकर
अकेले होना चाहते  होगे,
अपने आत्म के सबसे करीब बेठना चाहते होगे,
मुझे यकीन है, 
उस समय तुम जगजीत सिंह को सुनते होगे।
हे ईश्वर ! 
अपनी आत्मा पर लगी हुई हर खुरच को
तुम जगजीत की आवाज के मखमल से
पोंछा करते होगे। 
मुझे यकीन है !

                                                                      -गीत चतुर्वेदी




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 दुनिया थोड़ी भली लगेगी



बज़्मे-ज़ीस्त सजाकर देख,
क़ुदरत के संग गा कर देख।


घर आएगा नसीब तेरा,
अपना पता लिखाकर देख।


रब तो तेरे दिल में ही है, 
सर को ज़रा झुका कर देख।


जानोगे हमदर्द कौन है,
कोई साज बजा कर देख।


क़ुदरत नेमत बाँट रही है,
दामन तो फैला कर देख।


दिल के ज़ख़्म कहाँ भरते हैं,
आँसू चार बहा कर देख।


दुनिया थोड़ी भली लगेगी,
ख़ामोशी अपना कर देख।

                                        -महेंद्र वर्मा

देहि सिवा बर मोहि इहै


 गुरु गोविंदसिंह जी विरचित सुविख्यात ग्रंथ ‘श्री दसम ग्रंथ‘ एक अद्वितीय आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य है। इस ग्रंथ में गुरु जी ने लगभग 150 प्रकार के वार्णिक और मात्रिक छंदों में भारतीय धर्म के ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक पात्रों के जीवन-वृत्तों की जहाँ एक ओर पुनर्रचना की है, वहीं देवी चंडी के प्रसंगों एवं चैबीस अवतारों के माध्यम से लोगों में धर्म-युद्ध का उत्साह भी भरा है।

 ‘जापु‘, ‘अकाल उसतति‘, ‘तैंतीस सवैये‘ आदि रचनाएँ आध्यात्मिक विकास एवं मानसिक उत्थान के मार्ग में आने वाले अवरोधों और उनके निराकरण का मार्ग प्रस्तुत करते हुए प्रेम को भगवद्प्राप्ति का सबल साधन मानती हैं।

‘चंडी चरित‘, ‘चंडी दी वार‘ स्त्री शक्ति को स्थापित करते हुए समाज में स्त्री को उचित सम्मान दिलाने का संकेत करती हैं।

प्रस्तुत है, ‘श्री दसम ग्रंथ‘ के अंतर्गत ‘चंडी चरित्र उकति बिलास‘ से उद्धरित आदिशक्ति देवी शिवा की अर्चना-

देहि सिवा बर मोहि इहै, सुभ करमन ते कबहूँ न टरौं।
न डरौं अरि सों जब जाई लरौं, निसचै करि आपनि जीत करौं।।
अरु सिखहों आपने ही मन को, इह लालच हउ गुन तउ उचरौं।
जब आव की अउध निदान बनै, अति ही रन में तब जूझ मरौं।।

अर्थ- हे परम पुरुष की कल्याणकारी शक्ति ! मुझे यह वरदान दो कि मैं शुभ कर्म करने में न हिचकिचाऊँ। रणक्षेत्र में शत्रु से कभी न डरूँ और निश्चयपूर्वक युद्ध को अवश्य जीतूँ। अपने मन को शिक्षा देने के बहाने मैं हमेशा ही तुम्हारा गुणानुवाद करता रहूँ तथा जब मेरा अंतिम समय आ जाए तो मैं युद्धस्थल में धर्म की रक्षा करते हुए प्राणों का त्याग करूँ।

दोहे : गूँजे तार सितार


कभी सुनाती लोरियाँ, कभी मचातीं शोर,
जीवन सागर साधता, इन लहरों का जोर।


कटुक वचन अरु क्रोध में, चोली दामन संग,
एक बढ़े दूसर बढ़े, दोनों का इक रंग।


साथ न दे जो कष्ट में, दुश्मन उसकों जान,
दूरी उससे उचित है, मन में लो यह ठान।


 द्वेषी मानुष आपनो, कहे न मन की बात,
केवल पर के हृदय में, पहुँचाए आघात।


ज्यों मिजरब की चोट से, गूँजे तार सितार,
तैसे नेहाघात से, हृदय ध्वनित सुविचार।


जो मनुष्य कर ना सके, नारी का सम्मान,
दया क्षमा अरु नेह का, नहीं पात्र वह जान।


मान प्रतिष्ठा के लिए, धन आवश्यक नाहिं,
सद्गुण ही पर्याप्त है, गुनिजन कहि-कहि जाहिं।


                                                                            -महेंद्र वर्मा