हर तरफ


वायदों की बड़ी बोलियाँ हर तरफ,
भीड़ में बज रही तालियाँ हर तरफ।

गौरैयों की चीं-चीं कहीं खो गई,
घोसलों में जहर थैलियाँ हर तरफ।

वो गया था अमन बाँटने शहर में,
पर मिलीं ढेर-सी गालियाँ हर तरफ।

भूख से मर रहे हैं मगर फिंक रहीं
व्यंजनों से भरी थालियाँ हर तरफ।

मन का पंछी उड़े 
भी तो कैसे उड़े,
बाँधता है कोई जालियाँ हर तरफ।

एक ही पेड़ से सब उगी हैं मगर,
द्वेष की फैलती डालियाँ हर तरफ।

विचारों की आँधी करो कुछ जतन,
गिरे क्रांति की बिजलियाँ हर तरफ।

                                                                -महेन्द्र वर्मा

बस इतनी सी बात



जल से काया शुद्ध हो, सत्य करे मन शुद्ध,
ज्ञान शुद्ध हो तर्क से, कहते सभी प्रबुद्ध।

धरती मेरा गाँव है, मानव मेरा मीत,
सारा जग परिवार है, गाएँ सब मिल गीत।


ज्ञानी होते हैं सदा, शांत-धीर-गंभीर,
जहाँ नदी में गहनता, जल अति थिर अरु धीर।
 

जीवन क्या है जानिए, ना शह है ना मात,
मरण टले कुछ देर तक, बस इतनी सी बात।

कभी-कभी अविवेक से, हो जाता अन्याय,
अंतर की आवाज से, होता सच्चा न्याय।

तीन व्यक्तियों का सदा, करिए नित सम्मान,
मात-पिता-गुरु पूज्य हैं, सब से बड़े महान।


यों समझें अज्ञान को, जैसे मन की रात,
जिसमें न तो चाँद है, न तारे मुसकात।

                           
                                                                         -महेन्द्र वर्मा

धूप-हवा-जल-धरती-अंबर



किसे कहोगे बुरा-भला है,
हर दिल में तो वही ख़ुदा है।

खोजो उस दाने को तुम भी,
जिस पर तेरा नाम लिखा है।

शायद रोया बहुत देर तक,
उसका चेहरा निखर गया है।

ख़ून भले ही अलग-अलग हो,
आँसू सबका एक बहा है।

उसने दी है मुझे दुआएँ,
सब कुछ भला-भला लगता है।

गीत प्रकृति का कभी न गाया,
इतने दिन तक व्यर्थ जिया है।

धूप-हवा-जल-धरती-अंबर,
सबके जी में यही बसा है।
                                                     


                                               -महेन्द्र वर्मा