हम भारत के लोग

आज से पचास  हज़ार वर्ष पूर्व जब  न तो आज के समान जातियाँ थीं, न संगठित धर्मों का अस्तित्व था, न कोई देश था न कोई राज्य, तब कबीलाई समाज का अस्तित्व था और उनमें आदिकालीन लोकधर्मों की विविध परंपराओं का प्रचलन था तब ये कबीले भोजन और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास करते रहते थे। इस प्रवास के दौरान एक मानव समुदाय दूसरे मानव समुदाय से मिलता रहा, उनमें सामाजिक संबंध होते रहे, फलस्वरूप नए-नए मानव वंशों या नस्लों का जन्म होता रहा । यह प्रक्रिया पिछले 50-60 हज़ार वर्षों से आज तक जारी है । यही कारण है कि आज दुनिया भर में सैकड़ों प्रकार के मानव वंश हैं, हज़ारों प्रकार की जातियाँ हैं । समाज में जाति और धर्म के आधार पर मनुष्यों के विभाजन की परंपरा पिछले 4-5 हज़ार वर्षों में ही निर्मित और प्रचलित हुई है। हम में से किसी के लिए भी निश्चयपूर्वक और प्रमाण सहित यह बता पाना मुश्किल है कि आज से 5 हज़ार वर्ष पूर्व के हमारे हमारे पूर्वज किस जाति या धर्म के थे, किस मानव-समूह या नस्ल के थे और पृथ्वी के किस भाग के निवासी थे ।

मानव के विकास और उसके प्रवास संबंधी तथ्यों का अध्ययन भूगर्भशास्त्र, पुरातत्व और भाषाशास्त्र के अलावा अब विज्ञान या अनुवांशिकी की सहायता से भी किया जाता है । यह अध्ययन पुरातात्विक खुदाई से प्राप्त हजारों वर्ष पुराने मानव कंकालों और आज के मनुष्यों के डी.एन.ए.के विश्लेषण से किया जाता है । इससे प्राप्त परिणाम विश्वसनीय होते हैं । इसके अतिरिक्त मानव-समूहों के प्रवासन और उनमें अंतर्संबंधन के स्पष्ट प्रमाण तो ऐतिहासिक दस्तावेजों में उपलब्ध हैं । इस लेख में प्रारंभ से लेकर आज तक की इसी अध्ययन-प्रक्रिया का, विशेष तौर पर भारत के संदर्भ में, संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है । 

लगभग 30 लाख वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर अफ्रीका महाद्वीप के पूर्वी भाग में मनुष्य नामक प्राणी का विकास हो चुका था । यहीं से पूरी दुनिया में मानव जाति प्रवासित हुई । करीब 17 लाख वर्ष पहले अफ्रीका से इन आदि मानवों का पहला समूह मध्य एशिया पहुंचा । 2 लाख वर्ष पहले अफ्रीका से मानव समूह का दूसरा प्रवासन एशिया और आस्ट्रेलिया तक हुआ । अंडमान-निकोबार के आदिवासी इसी समूह के लोग हैं जिनका जीवन आज भी उसी रूप में हैं । दोनों समूहों के प्रवासन में 15 लाख वर्षों का लंबा अंतराल है । तब तक अफ्रीका से मध्य एशिया गए समूह के लोगों के रंग-रूप में भौगोलिक परिस्थितियों के कारण काफी परिवर्तन आ चुका था । इन दोनों समूहों में अंतर्संबंध के फलस्वरूप रक्त सम्मिश्रण हुआं । 70 हज़ार साल पहले मिश्रित समूह वाले ये लोग दक्षिण एशिया, यूरोप और आस्ट्रेलिया पहुँचे । अमेरिका महाद्वीप में मनुष्यों की आबादी लगभग 20 हज़ार साल पहले पहुँची । 

भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक 4 बड़े मानव समूहों का आगमन हुआ है । पहला समूह 65 हज़ार साल पहले मध्य एशिया से आया जो अफ्रीका के दो प्रवासीं समूहों का मिश्रण था । इन्हें ‘प्रथम भारतीय’ कहा गया । भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की जीन संरचना में इस समूह का लगभग 60 प्रतिशत अवदान है । ये कौन सी भाषा बोलते थे, यह अज्ञात है । एक दूसरा समूह 10 हज़ार साल पहले ईरान के जग्रोस क्षेत्र से भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में आया । इस क्षेत्र में कृषिकार्य पहले से प्रचलित था । प्रवासी ईरानी लोग अपने साथ गेहूँ और बाजरे के बीज लाए थे फलस्वरूप इस क्षेत्र में गेहूँ और बाजरे की खेती भी की जाने लगी । इन दोनों समूहों ने सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता की नींव रखी । इनके द्वारा प्रयुक्त भाषा के संबंध में अभी तक कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है, संभवतः द्रविड़ भाषाओं का प्रारंभिक रूप प्रचलित हो । राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल के जीनोम विश्लेषण से यह अनुमान लगाया जा सकता है । 

2 वर्ष पूर्व  हरियाणा के राखीगढ़ी में उत्खनन से प्राप्त हड़प्पा कालीन मानव कंकाल के डी.एन.ए. परीक्षण की रिपोर्ट विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई । इस रिपोर्ट के अनुसार प्राप्त कंकाल के जीन्स दक्षिण भारतीय लोगों के जीन्स से मेल खाते हैं, उत्तर भारतीय लोगों से नहीं । निष्कर्ष यह निकला कि दक्षिण भारतीय लोग ही हड़प्पा सभ्यता के वासी थे । द्रविड़ भाषाओं का विकास इन्हीं लोगों ने किया था । इस रिपोर्ट से दो और निष्कर्ष निकलते हैं, या तो उस समय दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारत सहित संपूर्ण भारत में निवास करते थे या केवल उत्तर भारत में निवास करते थे और हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद किसी कारण से दक्षिण भारत की ओर प्रवास कर गए । यद्यपि इस संबंध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं

भारतीय उपमहाद्वीप क्षेत्र में तीसरा प्रवास 5-6 हज़ार साल पहले दक्षिण-पूर्व एशिया से हुआ था । यह समूह भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के निवासी बने । यही लोग बर्मा, थाईलैंड, वियतनाम आदि दक्षिण एशियाई देशों में भी गए । पुरातात्विक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत सहित इन क्षेत्रों में धान की खेती इन्हीं प्रवासियों ने प्रारंभ की । इन्होंने ही दक्षिण-पूर्व एशिया में एस्ट्रोएशियाटिक भाषाओं को प्रचलित किया । चौथा प्रवासन 4 हज़ार वर्ष पहले मध्य एशिया के स्टेपी क्षेत्र के पशुपालकों का हुआ । ये भारोपीय भाषा बोलते थे । इनका एक दूसरा समूह यूरोप की ओर गया और भारोपीय भाषाओं के क्षेत्र का विस्तार किया । विशेषज्ञों के अनुसार वैदिक सभ्यता की नींव इसी समूह ने रखी । इन्हीं लोगों ने प्रकृति की विभिन्न शक्तियों और साधनों की पूजा करने की प्रथा प्रारंभ की जिसका उल्लेख वैदिक ऋचाओं में है । इन चारों प्रवासन से जो लोग भारतीय उपमहाद्वीप में आए उनमें सामाजिक अंतर्संबंध हुआ जिसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में विविध भाषाएँ और संस्कृतियाँ विकसित हुईं लेकिन इस समय तक भी भारत में जाति प्रथा का आरंभ नहीं हुआ था । 

अन्य स्थानों से भारतीय भूमि पर बाद में कोई बड़ा प्रवासन नहीं हुआ किंतु पिछले 2 हज़ार सालों में समय-समय पर अन्य क्षेत्र के लोगों के समूह यहां आते रहे हैं जिनमें से कुछ लौट गए जबकि कुछ यहीं के निवासी बन गए । ये समूह आक्रमणकारी के रूप में आए और वर्षों तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन भी करते रहे। ऐसे आक्रमणकारियों में मुख्य ये हैं- हूण, यवन, शक, कुषाण, पठान, सैयद, लोदी, मुगल, अंग्रेज। पिछले दो हज़ार सालों तक इन विदेशियों ने भारत की संस्कृति को कुछ सीमा तक प्रभावित किया । यवन, शक, कुषाण और मुस्लिम लोग तो भारत में ही रह गए । उस समय बहुत से भारतीय मुस्लिम हो गए थे । इन से जो पीढ़ियाँ आगे बढ़ीं वे मिश्रित जीन्स के कहे जाएंगे । यवन, शक और कुषाणों ने भारतीय संस्कृति को अपना लिया था और यहीं के वासी हो गए थे, उनकी पीढ़ियों का भी विस्तार हुआ है किंतु आज उनके वंशज कौन हैं, यह जानना असंभव है । इन के अतिरिक्त पिछले 200 सालों में पारसी और यहूदी लोग भी यहाँ आए और यहीं के हो कर रह गए । प्रसिद्द इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार मानते हैं- ''ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि आज जो लोग आर्य भाषाएँ बोलते हैं वे सब आर्यों की संतान हैं और जो द्रविड़ भाषाएँ बोलते हैं वे द्रविड़ों की ही संतति हैं,  नहीं, दोनों नृवंशों में परस्पर सम्मिश्रण खूब हुआ है ''

 जातियों का सम्मिश्रण या संकरण के संबंध में पुराणों और स्मृति ग्रंथों में अनेक विवरण हैं । मनुस्मृति के अध्याय 10 में अम्बष्ठ, वैदेह, मागध, उग्र, पारसव आदि 50 और महाभारत में 150 से अधिक संकर जातियों का उल्लेख है । महाभारत , वनपर्व, अध्याय 180 श्लोक 31 में नहुष के द्वारा जाति के संबंध में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर कहते हैं- ''हे महासर्प ! हे महा बुद्धिमान ! मेरी मति के अनुसार जगत के जितने मनुष्य हैं, सब ही में वर्णसंकर हैं । इस से उनकी जाति की परीक्षा करना कठिन है ।''

 प्रसिद्ध विद्वान डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी पुस्तक  'हिन्दू देव परिवार का विकास' की भूमिका में लिखा है- "आज से कई हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों के पाँव में जैसे शनि ने अड्डा जमा लिया था, एक देश छोड़ कर दूसरे देश में जाना साधारण सी बात हो गई थी। आज तो देशांतर यात्रा पर कई प्रतिबन्ध होते हैं ।प्राचीनकाल में कोई रोक-टोक नहीं थी ।दृढ़ संकल्प और बाहु  में बल होना चाहिए था । जो जहाँ चाहे जा कर बस जाए ।इस प्रकार निरंतर चलते रहने का परिणाम यह हुआ कि यदि कभी उपजातियां थीं भी तो वे सब मिलजुल गईं । आज मनुष्य मात्र संकर है, कोई शुद्ध उपजाति नहीं है ।" महाकवि रामधारीसिंह दिनकर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखते हैं - "भारतीय संस्कृति भी इस देश में आकर बसने वाली अनेक जातियों- नीग्रो, औष्ट्रिक, आर्य, द्रविड़, मंगोल, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हुण, तुर्क आदि- की संस्कृतियों के मेल से तैयार हुई है और अब यह पता लगाना बहुत मुश्किल है उनके भीतर किस जाति की संस्कृति का कितना अंश है ।"

इस विवेचना से निष्कर्ष यह निकलता है कि 30 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका से बाहर निकल कर पूरी दुनिया को आबाद करने वाले आदिमानवों के वंशजों के बीच ही हज़ारों सालों के अंतरालों में अनेक बार रक्तसंबंध हुआ है । यह प्रकृति के अस्तित्व और विकास का स्वाभाविक सिद्धांत है । जाति और धर्म का लबादा ओढ़ लेने से किसी के जीनोम की संरचना नहीं बदलती । वास्तव में पूरी मानव जाति अफ्रीकी आदिमानव का ही परिवार है इसलिए पूरी दुनिया के मनुष्य एक ही परिवार के हैं । हमारे किसी पूर्वज ने यही सच लिखा भी है-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ (महोपनिषद 6.71) । 

-महेन्द्र वर्मा

अधिक मास - चांद्रवर्ष और सौरवर्ष में तालमेल




कुँवार या आश्विन का महीना शुरू हो गया है। इसके समाप्त होने के बाद इस वर्ष कुँवार का महीना दुहराया जाएगा तब उसके बाद कार्तिक का महीना आएगा। दो कुँवार होने के कारण वर्तमान वर्ष अर्थात विक्रम संवत् 2077 तेरह महीनों का है। तेरह महीने का वर्ष होना कोई दैवी या अलौकिक घटना नहीं है बल्कि प्राचीन भारतीय गणितज्ञों द्वारा स्थापित एक व्यवस्था है ताकि सौर मास और चांद्र मास साथ-साथ चलें । इस अतिरिक्त तेरहवें मास को अधिक मास, अधिमास, खर मास, लौंद मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं।

अधिमास होने की घटना दुर्लभ नहीं है, औसतन प्रत्येक 32-33 महीनों के पश्चात एक अधिमास का होना अनिवार्य है। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि विश्व की किसी अन्य कैलेण्डर पद्धति में 13 महीने का वर्ष नहीं होता। भारतीय कैलेण्डर में किसी वर्ष 13 महीने निर्धारित किए जाने की लगभग चार हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा खगोलीय घटनाओं के प्रति विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण तथा गणितीय गणना पर आधारित है।

अधिमास का सबसे प्राचीन उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है, जिसका रचनाकाल 2500 ई. पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद (1.25.8) में तेरहवें मास का वर्णन इस प्रकार आया है-‘‘जो व्रतालंबन कर अपने-अपने फलोत्पादक बारह महीनों को जानते हैं और उत्पन्न होने वाले तेरहवें मास को भी जानते हैं...।‘‘ वाजसनेयी संहिता (22.30) में इसे मलिम्लुच्च तथा संसर्प कहा गया है किंतु (22.31) में इसके लिए अंहसस्पति शब्द का प्रयोग हुआ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.1) में तेरहवें महीने का नाम महस्वान दिया गया है। इसी ग्रंथ (3.8.3) में अधिमास को संवत्सर रूपी ऋषभ का विष्टप यानी पूंछ कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण (3.1) में अधिमास का वर्णन इस प्रकार है - ‘‘...उन्होंने उस सोम को तेरहवें मास से मोल लिया था इसलिए निंद्य है...।‘‘ नारद संहिता में अधिमास को संसर्प कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी वर्ष में तेरहवें मास को सम्मिलित किए जाने की परंपरा वैदिक युग या उसके पूर्व से ही चली आ रही है।

अधिक मास होने का सारा रहस्य चांद्रवर्ष और सौरवर्ष के कालमान में तालमेल स्थापित किए जाने में निहित है। पूर्णिमा से अगली पूर्णिमा या अमावस्या से अगली अमावस्या तक के समय को चांद्रमास कहते हैं। सूर्य एक राशि (रविमार्ग का बारहवाँ भाग यानी 30 अंश की परिधि) पर जितने समय तक रहता है वह सौरमास कहलाता है। 12 चांद्रमासों के वर्ष को चांद्रवर्ष और 12 सौर मासों के वर्ष को सौरवर्ष कहते हैं। इन दोनों वर्षमानों की अवधि समान नहीं है। एक सौरवर्ष की अवधि लगभग 365 दिन 6 घंटे होती है जबकि एक चांद्रवर्ष की अवधि लगभग 354 दिन 9 घंटे होती है। अर्थात चांद्रवर्ष सौरवर्ष से लगभग 11 दिन छोटा होता है। दो वर्ष में यह अंतर 22 दिनों का और औसत रूप से 32-33 महीनों में लगभग 29 दिन अर्थात एक चांद्रमास के बराबर हो जाता है। इस तरह 19 सौर वर्षों में 7 अधिमास होते हैं । इस उपाय से चांद्रवर्ष का सौरवर्ष या ऋतुओं के साथ तालमेल स्थापित कर दिया जाता है ताकि दोनों लगभग साथ-साथ चलें। यदि ऐसा न किया जाए तो भारतीय त्योहारों के साथ ऋतुओं का संबंध गड़बड़ा जाएगा । उदाहरण के लिए, दीपावली त्योहार जो शीत ऋतु के आरंभ में होता है वह कभी गर्मी में और कभी बरसात में होने लगेगा ।

किसी चांद्रवर्ष के किस मास को अधिमास निश्चित किया जाए, इसके निर्धारण के लिए प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों ने कुछ गणितीय और वैज्ञानिक आधार निश्चित किए हैं तथा चांद्रमास को सुपरिभाषित किया है। इसे समझने के लिए कुछ प्रारंभिक तथ्यों को ध्यान में रखना होगा -

1. चांद्रमासों का नामकरण दो प्रकार से प्रचलित है। पूर्णिमा से पूर्णिमा तक की अवधि पूर्णिमांत मास और अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को अमांत मास कहते हैं। अधिमास निर्धारित करने के लिए केवल अमांत मास पर ही विचार किया जाता है।
2. सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण को संक्रांति कहते हैं।
3. कुछ स्थितियों को छोड़ कर सौर मासों की अवधि चांद्र मासों से अधिक होती है जिसके कारण एक सौर मास के बीच में दो अमावस्याएँ हो सकती हैं ।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर अधिमास को निम्न दो प्रकार से परिभाषित किया गया है -
क. जब किसी चांद्रमास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती तो वह मास अधिमास होता है।
ख. जब किसी सौरमास में दो अमावस्याएँ घटित हों तब दो अमावस्याओं से प्रारंभ होने वाले चांद्रमासों का एक ही नाम होगा। इनमें से पहले मास को अधिमास और दूसरे को निज या शुद्ध मास कहा जाता है।

इस वर्ष होने वाले दो कुँवार को उदाहरण के रूप में लें -
सूर्य की कन्या संक्रांति 16 सितंबर को और तुला संक्रांति 17 अक्टूबर को है। इन तारीखों के मध्य 17 सितंबर की अमावस्या से 16 अक्टूबर की अमावस्या तक की अवधि के चांद्रमास में सूर्य की कोई संक्रांति नहीं है। इसलिए यह चांद्रमास अधिमास होगा।

पुनः, सूर्य की सिंह राशि में रहने की अवधि, 16 सितंबर से 17 अक्टूबर के मध्य दो अमावस्याएँ, क्रमशः 17 सितंबर और 16 अक्टूबर को घटित हो रही हैं। अतः इन अमावस्याओं को समाप्त होने वाले दोनों चांद्रमासों का नाम कुँवार होगा। इनमें से एक को प्रथम आश्विन तथा दूसरे को द्वितीय आश्विन कहा जाएगा। किंतु पूर्णिमांत मास के अनुसार इन दो आश्विन मासों के 4 पक्ष में से प्रथम कृष्ण पक्ष और अंतिम दूसरे शुक्ल पक्ष को शुद्ध आश्विन मास कहा जाएगा और बीच के दूसरे और तीसरे पक्ष से जो महीना बनेगा वह अधिक आश्विन मास कहा जाएगा । इस अधिक मास में परंपरा के अनुसार व्रत-त्योहार नहीं होते इसीलिए बीच के अधिक मास के दो पक्षों में कोई व्रत त्योहार नहीं है । पितृपक्ष शुद्ध मास के प्रथम पखवारे में और नवरात्रि अंतिम पखवारे में है । इस बार इन दानों पर्वां में एक माह का अंतर है ।
 
भारतीय काल गणना पद्धति में अधिमास की व्यवस्था प्राचीन भारतीय खगोल शास्त्रियों के ज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करता है । किंतु यह व्यवस्था भी पूर्णतः त्रुटिहीन नहीं है । यदि इसमें संशोधन न किया गया तो छब्बीस हज़ार वर्षों की अवधि में धीरे-धीरे त्योहारों और ऋतुओं का साथ छूटने लगेगा ।
 
- महेन्द्र वर्मा 



जा जा रे अपने मंदिरवा-पं. जसराज


 

                                                       पं. जसराज (28 जनवरी, 1930-17 अगस्त, 2020)

 

संगीत मार्तण्ड पंडित जसराज को अपने जीवन काल में एक ऐसा सम्मान मिला जो भारतीय संगीत के किसी भी साधक को नहीं मिला । 11 नवंबर, 2006 को अंतरराष्ट्रीय खगोलिकी संगठन ने मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच खोजे गए एक नवीन लघुग्रह का नाम पं. जसराज के नाम पर रखा । यह भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए भी गौरव की बात है ।
 

मेवाती घराने की पाँचवी पीढ़ी के संगीत-नक्षत्र पं. जसराज हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन संगीत के पुरुष कलाकारों में स्वर्णमानक माने जाते हैं, उसी तरह, जैसे महिला कलाकारों में किशोरी अमोनकर । संगीत उनकी पारिवारिक विरासत है । पं. जसराज के पिता पं. मोतीराम तत्कालीन कश्मीर राज्य के दरबारी गायक थे । इनके दो भाई पं. प्रतापनारायण और पं. मणिराम भी शास्त्रीय गायक थे । प्रारंभ में पं. जसराज ने तबले की शिक्षा प्राप्त की । वे अपने भाई पं. मणिराम के साथ कार्यक्रमों में तबला संगत करते । उस दौर में वे पं. रविशंकर, पं. कुमार गंधर्व जैसे बड़े कलाकारों के साथ तबला संगत किया करते थे । किंतु गायन के प्रति तीव्र ललक ने उन्हें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का शीर्षस्थ गायक बना दिया । पं. जसराज ने गायन की शिक्षा अपने बड़े भाई पं. मणिराम, महाराज जयवंत सिंह वाघेला और मेवाती घराने के उस्ताद गुलाम कादिर खान से प्राप्त की ।
 

अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था- ‘‘मेरे स्कूल के रास्ते में एक रेस्तराँ था जहां ग्रामोफोन में संगीत के रिकॉर्ड बजते रहते थे । मैं स्कूल न जा कर वहीं फुटपाथ पर बेगम अख्तर के गीतों को सुनता रहता था । एक दिन शिक्षक ने मेरे बारे में मेरी माँ से पूछा कि क्या वह अस्वस्थ है, बहुत दिनों से स्कूल नहीं आ रहा है ! घर वालों ने मुझे बहुत डाँटा था । मुझे पढ़ाई में कोई रुचि नहीं थी, केवल संगीत से लगाव था ।’’
पं. जसराज का प्रथम सार्वजनिक कार्यक्रम 1952 में नेपाल के तत्कालीन महाराजा त्रिभुवन वीर विक्रम ने आयोजित करवाया था । गायन के प्रारंभिक 6-7 वर्षों में वे अपने भाई पं. मणिराम के साथ युगलबंदी ही प्रस्तुत करते थे । साणंद के महाराज जयवंतसिंह की एक बंदिश ‘माता कालिका महारानी जगज्जननी भवानी’ को उन्होंने राग अड़ाना में निबद्ध कर प्रस्तुत किया था जो बहुत लोकप्रिय है । सन् 1959 में अहमदाबाद में उनके जुगलबंदी गायन को श्रोताओं ने इतना सराहा कि प्रातः तक इन्हीं दोनों भाइयों का गायन होता रहा ।
 

पद्मविभूषण पं. जसराज के गायन को उनका स्वर-लालित्य और स्वर-गांभीर्य अन्य शास्त्रीय गायकों के गायन से विशिष्ट बनाता है । उनके विलंबित खयाल गायन में सुरों की गहराई और द्रुत में तानों की सपष्टता एवं सजीवता अनुपम है । तीनों सप्तकों में स्वरों का निर्दोष प्रदर्शन उनकी गायकी की विशिष्टता है । आकर्षक मुरकियाँ और गंभीर गमक उनके गायन की प्रवीणता का परिचय देती हैं । खयाल गायन के पश्चात प्रस्तुत किए गए उनके भजनों में झलकती सात्विकता अन्यत्र दुर्लभ है । उनके अनेक शिष्यों में पं. संजीव अभ्यंकर, रतन मोहन शर्मा और विदुषी कला रामनाथ ने विशेष ख्याति अर्जित की है ।
 

भारतीय शास्त्रीय गायकी को संपूर्ण शुद्धता के साथ प्रस्तुत करने के लिए पं. जसराज सदैव याद किए जाएंगे । सन् 1987 में एक कार्यक्रम में वे राग तोड़ी प्रस्तुत कर रहे थे । तभी एक हिरण अचानक श्रोताओं के पीछे आकर खड़ा हो गया और मंच की ओर मुँह किए 5 मिनट तक खड़ा रहा । उल्लेखनीय है कि राग तोड़ी का संबंध हिरण से है । 16 वीं शताब्दी में आगरा के एक गायन कार्यक्रम में प्रसिद्ध गायक तानसेन और बैजू बावरा ने राग तोड़ी गाया था । कहा जाता है कि हिरणों का एक झुंड उनके सामने आकर खड़ा हो गया था । भारतीय शास्त्रीय संगीत के संदर्भ में यह माना जाता है कि यदि राग को शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाए तो वह प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है ।
 

सन् 1994 में इसी प्रकार के एक और प्रसंग के संबंध में पंडित जी ने एक साक्षात्कार में बताया था कि गुजरात के एक कार्यक्रम में राग मल्हार गाने के बाद वर्षा होने लगी थी । ऐसा ही राजस्थान और दिल्ली के कार्यक्रमों में पूर्णिमा की रात को घटित हुआ था जहाँ कार्यक्रम के पहले वर्षा का कोई संकेत नहीं था । उन्होंने कहा था- ‘‘इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं थी बल्कि संगीत का प्रभाव था । यदि आप भीतर से गाते हैं तो आप ब्रह्माण्ड को आकर्षित करते हैं और यही शास्त्रीय संगीत की सुंदरता है ।’’ इतने गुणी और महान कलाकार होने और देश-विदेश में प्रसिद्धि और सम्मान पाने के बावजूद उनमें लेशमात्र भी अहंभाव नहीं था । उनका कहना था- ‘‘यदि मैं कहूँ कि मैंने कुछ हासिल किया है तो इसका अर्थ है कि मेरा जीवन रुक गया है । मैंने कुछ हासिल नहीं किया है । मैं तो बस संगीत के प्रवाह में बहते रहना चाहता हूं ।’’
 

पं. जसराज की गाई अनेक रचनाओं में से कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ- राग भैरव में ‘अब न मोहे समझाओ कान्ह तुम’, राग मधुमद सारंग में ‘रसिकनी राधा पलना झूले’, राग दरबारी में ‘जय जय श्री दुर्गे’, भीमपलासी में ‘जा जा रे अपने मंदरवा’, राग मेघ में ‘मन मेरे सुहाई बरखा ऋतु आई’, भैरव में ‘मेरो अल्ला मेहरबान’ आदि ।
 

भले ही उनका शरीर अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनके मधुर स्वरों से सजी गायकी युगों तक आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करती रहेगी ।

उनके गायन को सुनना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी -

प्रस्तुत है, पंडित जसराज की एक प्रसिद्ध रचना - 

जा जा रे अपने मंदिरवा,राग भीमपलासी , छोटा ख्याल , मध्य-द्रुत तीन ताल


 


-महेन्द्र वर्मा