आरम्भ

अपने इस ब्लाग पर मैं आरम्भ में हिंदी साहित्य के कुछ प्राचीन महाकवियों की रचनाओं को पोस्ट करूंगा। यदा कदा मैं अपनी रचनाओं को भी सम्मिलित करूंगा। आज प्रस्तुत है संत कवि कबीर की एक रचना-

तलफै बिन बालम मोर जिया।
दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया, तलफ तलफ के भोर किया।
तन-मन मोर रहट अस डोले, सून सेज पर जनम छिया।
नैन चकित भए पंथ न सूझै, सोइ बेदरदी सुध न लिया।
कहत कबीर सुनो भइ साधो, हरी पीर दुख जोर किया।

7 comments:

girish pankaj said...

AAPKA PRAYAS SARAHANEEY HAI. MADHYYUG KE KAVIYO KO PARHANA-PARHAANA ZAROOREE HAI.

Kailash Sharma said...

सराहनीय प्रयास......कबीर की बहुत सुन्दर रचना से परिचय कराना प्रशंशनीय....आभार...

महेन्‍द्र वर्मा said...

आदरणीय गिरीश जी और कैलाश शर्मा जी ,उत्साहवर्घन के लिए आभार।

राजभाषा हिंदी said...

संग्रहणीय। बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
कहानी ऐसे बनी– 5, छोड़ झार मुझे डूबन दे !, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें

राजभाषा हिंदी said...

word verification ह्टा दें। इससे देवनगरी में टिप्पणि करने वालों को असुविधा होती है।

रंजू भाटिया said...

सराहनीय प्रयास....

Ashtabhuja Pandey said...

बहुत सुंदर, धन्यवाद आपको ।

डीजे चुनरिया प्रेम रस इस रचना को भी लाइए