अमीर खुसरो

गोरी सोवत सेज पर



                दिल्ली के आसपास बोली जाने वाली भाषा को सबसे पहले हिंदवी नाम देने वाले प्रसिद्ध सूफी कवि अमीर खुसरो का जन्म सन 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के पटियाली कस्बे में हुआ था। इनके पिता का नाम सैफुद्दीन मुहम्मद तथा माता का नाम दौलत नाज़ था। खुसरो का नाना हिंदू था जिसने  बाद में मुस्लिम धर्म अपना लिया था। सात वर्ष की उम्र में खुसरो के पिता का देहांत हो गया था। प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया से खुसरो ने दीक्षा ली थी।
                खुसरो 20 वर्ष की उम्र में एक कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। वह गयासुद्दीन तुगलक के दरबारी कवि थे। उसके बाद छह वर्षों तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में रहे। अलाउद्दीन ने जब चित्तौड़गढ़ के राजा रत्नसेन की रानी को पाना चाहा तो पद्मिनी ने जौहर कर प्राणोत्सर्ग कर दिया। इस घटना का कविहृदय खुसरो पर गंभीर प्रभाव पड़ा। वे हिंद की संस्कृति से और अधिक जुड़ गए। उन्होंने माना कि हिंदवासियों के दिल में रहने के लिए हिंदवी सीखनी होगी। 
                अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे एक महान सूफी संत, कवि, राजनीतिज्ञ, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीतज्ञ, गायक, ज्योतिषी,तथा योद्धा भी थे। इन्हें तबला का आविष्कारक माना जाता है। खयाल और कव्वाली गायन शैली खुसरो की ही देन है। इनके लिखे दोहे, मुरकियां तथा पहेलियां प्रसिद्ध हैं। खुसरो की लिखी 99 पुस्तकों का उल्लेख है जिनमें से केवल 22 प्राप्य हैं। हिंदी में लिखी 3 पुस्तकों में से केवल खालिकबारी ही उपलब्ध है।
                जब खुसरो के गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया का निधन हुआ तब खुसरो को वैराग्य हो गया। वे अपने गुरु की समाधि के निकट कभी न उठने का निश्चय करके बैठ गए। वहीं उन्होंने सन् 1325 ई. में यह अंतिम दोहा कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए-
                गोरी सोवत सेज पर, मुख पर डारे केस,
                चल खुसरो घर आपनो, रैन भई चहुं देस।

प्रस्तुत है खुसरो की एक प्रसिद्ध रचना-

                काहे को ब्याहे बिदेस,
                अरे लखिया बाबुल मोरे,
                काहे को ब्याहे बिदेस।
                भइया को दिए बाबुल महल दुमहले,
                हमको दिए परदेस।
                हम तो बाबुल तोरे खूंटे की गइया,
                जित हांके तित जइहें।
                हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियां,
                घर घर मांगे है जइहैं।
                कोठे तले से जो पलकिया निकली,
                बीरन भए खाए पछाड़।
                तारों भरी मैंने  गुड़िया जो छोड़ी,
                छूटा सहेली का साथ।
                डोली का परदा उठा के जो देखा,
                आया पिया का देस।

14 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर आलेख!

Yashwant R. B. Mathur said...

Ameer Khusro ke jeevan vritt aur unki is rachna ko padhvaane ke liye bahut bahut dhanyvad.

M VERMA said...

बढिया प्रस्तुति .. अमीर खुसरो की सुन्दर जानकारी

Shikha Kaushik said...

gyanvardhak lekh.uttam pad-chayan

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक पोस्ट..यह जान कर बहुत अच्छा लगा कि इतना प्रसिद्द गाना खुसरो द्वारा लिखा हुआ था..आभार

Dr Xitija Singh said...

bahut sunder aur gyanvardhak prastuti mahendra ji...

महेन्‍द्र वर्मा said...

आप सबके प्रति आभार।

मनोज कुमार said...

खुस्रो साहब के बारे में इतनी जानकारी मेरे लिए नई थी। और रचना ने तो सोने में सुहागा का काम किया है। आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

महेंद्र जी आपका बहुत बहुत आभार..... यह गीत मुझे बेहद पसंद है... पर आज पूरा पढ़ा है... बहुत
अच्छा लगा.... एक बार फिर धन्यवाद आपका .....

ZEAL said...

सुन्दर जानकारी के लिए आभार।

vijai Rajbali Mathur said...

Manyavar ,
Ameer Khusro ke bare me cource me jo padha thaa vah aparyapt thaa ; usme isse kafi gyan-vridhi hui hai .Ameer-Khusro ke Jyotishi hone ki jan kar behad khushi hui hai .

Amit Chandra said...

khusro sahab ke bare me itni adhik jankari dene ke liye tahe dil se sukriya

Asha Joglekar said...

Ameer khusaro ke bare men itana jan kar achca laga. "Kahe ko byahee bides", suna to bahut bar tha par wah Khusaro jee kee rachna hai ye aapse pata chala. Blog jagat humen kitana kuch de raha hai. Is sunder prastuti ke liye aabhar.

BCP said...

Bahut hi Sundar....