वैष्णव जन तो तेने कहिए
गुजरात के प्रसिद्ध भक्त कवि संत नरसी मेहता का जन्म सौराष्ट्र् के पूर्वी भाग के तलाजा गांव में सन् 1414 ई. को हुआ। इनके पिता का नाम कृष्णदास था। ये बचपन से ही भक्तिभाव में लीन रहते थे। उनका सारा व्यक्तित्व ही भक्तिभाव से ओत-प्रोत था। इनका विवाह माणिक बेन से हुआ। इनके पुत्र का नाम श्यामल तथा कन्या का नाम कुंवर था।
नरसी मेहता मध्यकालीन गुजराती साहित्य के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय संतकवि माने जाते हैं। इनकी रचनाओं में हारमाला, श्रृंगारमाला, सामलशाह का विवाह, रामसहस्रपदी, चातुरी, सुदामा चरित, हुंडी और भामेरू विशेष महत्वपूर्ण है। श्रृंगारमाला के 740 पदों में श्रीकृष्ण के प्रति माधुर्य भावना व्यक्त की गई है। उन्होंने प्रभातियां नाम से प्रातःकालीन गाए जाने वाले भक्तिगान रचे हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हुए। उनके संबंध में गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैया लाल मुंशी ने लिखा है-‘‘भले ही उनमें मीरा की कोमलता, सूर की गहनता, और तुलसी का पांडित्य नहीं है किंतु उन्होंने अपने युग की निर्जीव परंपराओं को तोड़ा है। नरसी भक्त, कवि और आर्य संस्कृति के मूर्तरूप हैं। गुजराती साहित्य में अद्वितीय हैं और न जाने कितने परवर्ती भक्त कवियों के प्रेरणास्रोत। नरसी गुजराती काव्य के सिरमौर है।‘‘
सन् 1480 में एक दिन नरसी मेहता ने अपने अंतरंग भक्तों को पास बुलाया और बोले मेरे तिरोधान का निर्दिष्ट लग्न समागत है। तुम सभी इस अंतिम समय में मेरे साथ मिल कर गाओ। अपने द्वारा रचित एक पद का गायन सुनते सुनते भावावेश में संतप्रवर ने इस धराधाम को सर्वदा के लिए त्याग दिया।
प्रस्तुत है भक्त नरसी मेहता द्वारा रचित एक लोकप्रिय पद जो गांधीजी को भी प्रिय था-
वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आए रे।
सकल लोक मा सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे,
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन धन जननी तेरी रे।
समदृष्टि ने तृष्ना त्यागी, परस्त्री जेने मात रे,
जिव्हा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापै नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जिन मन मा रे,
राम नाम सूं ताली लागी, सकल तीरथ तेना मन मा रे।
वणलोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,
भणे नरसैयो तेनुं दरशन करना, कुल एकोत्तरे तारे रे।
गुजरात के प्रसिद्ध भक्त कवि संत नरसी मेहता का जन्म सौराष्ट्र् के पूर्वी भाग के तलाजा गांव में सन् 1414 ई. को हुआ। इनके पिता का नाम कृष्णदास था। ये बचपन से ही भक्तिभाव में लीन रहते थे। उनका सारा व्यक्तित्व ही भक्तिभाव से ओत-प्रोत था। इनका विवाह माणिक बेन से हुआ। इनके पुत्र का नाम श्यामल तथा कन्या का नाम कुंवर था।
नरसी मेहता मध्यकालीन गुजराती साहित्य के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय संतकवि माने जाते हैं। इनकी रचनाओं में हारमाला, श्रृंगारमाला, सामलशाह का विवाह, रामसहस्रपदी, चातुरी, सुदामा चरित, हुंडी और भामेरू विशेष महत्वपूर्ण है। श्रृंगारमाला के 740 पदों में श्रीकृष्ण के प्रति माधुर्य भावना व्यक्त की गई है। उन्होंने प्रभातियां नाम से प्रातःकालीन गाए जाने वाले भक्तिगान रचे हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हुए। उनके संबंध में गुजराती के प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैया लाल मुंशी ने लिखा है-‘‘भले ही उनमें मीरा की कोमलता, सूर की गहनता, और तुलसी का पांडित्य नहीं है किंतु उन्होंने अपने युग की निर्जीव परंपराओं को तोड़ा है। नरसी भक्त, कवि और आर्य संस्कृति के मूर्तरूप हैं। गुजराती साहित्य में अद्वितीय हैं और न जाने कितने परवर्ती भक्त कवियों के प्रेरणास्रोत। नरसी गुजराती काव्य के सिरमौर है।‘‘
सन् 1480 में एक दिन नरसी मेहता ने अपने अंतरंग भक्तों को पास बुलाया और बोले मेरे तिरोधान का निर्दिष्ट लग्न समागत है। तुम सभी इस अंतिम समय में मेरे साथ मिल कर गाओ। अपने द्वारा रचित एक पद का गायन सुनते सुनते भावावेश में संतप्रवर ने इस धराधाम को सर्वदा के लिए त्याग दिया।
प्रस्तुत है भक्त नरसी मेहता द्वारा रचित एक लोकप्रिय पद जो गांधीजी को भी प्रिय था-
वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आए रे।
सकल लोक मा सहुने वंदे, निंदा न करे केनी रे,
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन धन जननी तेरी रे।
समदृष्टि ने तृष्ना त्यागी, परस्त्री जेने मात रे,
जिव्हा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापै नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जिन मन मा रे,
राम नाम सूं ताली लागी, सकल तीरथ तेना मन मा रे।
वणलोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे,
भणे नरसैयो तेनुं दरशन करना, कुल एकोत्तरे तारे रे।
11 comments:
तथ्यगत जानकारी के साथ पदावलि प्रस्तुत करने के आपकी इस प्रस्तुति से काफ़ी ज्ञान वृद्धि हुई।
narsi mehta ji ke is pad ko mahatma gadhi ji ne apni prathnaon me sammilit kar jan-jan tak paucha diya tha.aaj yaha ise padkar hrdy pavan ho gaya.dhayvad
अच्छी जानकारी दी..... गांधीजी के इस प्रिय भजन के रचियता को जानकर लगा....
achha laga narsinh maheta ko janna.
पोस्ट शब्दसः तो नहीं समझ पा रहा हूँ, लेकिन भावों को जरुर समझ रहा हूँ. अओका संकलन बहुत अच्छा लगा.
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वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आए रे।
सुकून देने वाली पंक्तियाँ !
आभार।
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bahut gyanwardhak prastuti ....
sach mein sukoon dene waali pantiyaan ...
shubhkaamnein ..
नरसी मेहता इसके रचयिता हैं यह आज पता चला. वैष्णवजन की परिभाषा द्रष्टव्य है. आभार.
मै जड़बुद्धि इनके बारे में अधिक नहीं जानता परन्तु विकिपीडिया के अनुसार वेह नरसी मेहता ना होकर डरसी मेहता थे जो मातृभूमि को छोड़कर मोक्ष की कामना लिए मंगोलिया भाग गए जब विदेशी आक्रांता (जो मुस्लिम समुदाय से तालुक रखते थे) भारत/गुजरात की भूमि का खून चूस रहे थे, मैं जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी में विश्वास रखता हूँ और मानता हूँ की परंपरागत भक्तो भी इसमें विश्वास रखते थे. यदि विकिपीडिया के पास गलत जानकारी है तो कृपया सुधार करे, क्योंकि यदि वे मंगोलिया भाग गए तो क्षमा करे मैं उन्हें सम्मान नहीं दे सकता, मेरे लिए वे सिर्फ कवी थे भक्त नहीं.
नीलम जी,
नरसी मेहता मंगोलिया नहीं गए थे, बल्कि मंगरोल गए थे जो राजस्थान के बारां जिले का एक कस्बा है। यहीं उनका निधन हुआ था।
विकिपीडिया में मंगरोल ही लिखा है, मंगोलिया नहीं।
Thanks for the information. also,thanks to my friend too Because his ask me question.
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