मानुष हौं तो वही रसखानि
कृष्ण भक्त कवि रसखान का जन्म लगभग 1590 विक्रमी में हुआ था। वे दिल्ली में रहते थे। संवत 1613 में उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी। वे कई वर्ष तक ब्रज और उसके आस-पास के स्थानों में घूमते रहे। संवत 1634 से 1637 तक उन्होंने यमुना तट पर रामकथा सुनी। गोसाईं विट्ठलनाथ से कृष्णभ्क्ति की दीक्षा लेकर कृष्ण लीला गान करने लगे। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर आधारित अनेक कवित्त, दोहे आदि रचे। कृष्णभक्त कवियों में उनकी प्रसिद्धि फैल गई। संवत 1671 में रसखान ने ‘प्रेमवाटिका‘ की रचना की। उनका देहावसान संवत 1679 में हुआ। प्रस्तुत है उनका एक प्रसिद्ध छंद -
मानुष हौं तो वही रसखानि,
बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जौ पशु हौं तो कहां बसु मेरो,
चरौं नित नंद को धेनु मझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को,
जो घर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेर करौं,
मिलि कालिंदि कूल कदंब की डारन।
या लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुं सिद्धि नवौ निधि कौ सुख,
नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
आंखिन सौं रसखानि कबौं,
ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हूं कलधौत के धाम,
करील की कुंजन उपर वारौं।
कृष्ण भक्त कवि रसखान का जन्म लगभग 1590 विक्रमी में हुआ था। वे दिल्ली में रहते थे। संवत 1613 में उन्हें दिल्ली छोड़नी पड़ी। वे कई वर्ष तक ब्रज और उसके आस-पास के स्थानों में घूमते रहे। संवत 1634 से 1637 तक उन्होंने यमुना तट पर रामकथा सुनी। गोसाईं विट्ठलनाथ से कृष्णभ्क्ति की दीक्षा लेकर कृष्ण लीला गान करने लगे। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर आधारित अनेक कवित्त, दोहे आदि रचे। कृष्णभक्त कवियों में उनकी प्रसिद्धि फैल गई। संवत 1671 में रसखान ने ‘प्रेमवाटिका‘ की रचना की। उनका देहावसान संवत 1679 में हुआ। प्रस्तुत है उनका एक प्रसिद्ध छंद -
मानुष हौं तो वही रसखानि,
बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जौ पशु हौं तो कहां बसु मेरो,
चरौं नित नंद को धेनु मझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को,
जो घर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेर करौं,
मिलि कालिंदि कूल कदंब की डारन।
या लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुं सिद्धि नवौ निधि कौ सुख,
नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
आंखिन सौं रसखानि कबौं,
ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हूं कलधौत के धाम,
करील की कुंजन उपर वारौं।
14 comments:
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ चुनी है आपने,
रसखान की याद ताजा हो गई,
कॉलेज के दिनों में पढ़ा था रसखान को.
यहाँ भी पधारें:-
ऐ कॉमनवेल्थ तेरे प्यार में
बहुत सुन्दर सारगर्वित रचना ... आभार ...
रसखान जी की ये खूबसूरत पंक्तिया शेयर की ...धन्यवाद आपका आपने मुझे विद्यालय के दिन याद दिला दिए जब हमने इन दोहे छंदों को पढ़ा था ...
नूतन जी की टिप्पणी मेरी भी मान ली जाए! बहुत अच्छी प्रस्तुति।
मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
Adarniya Sir,
raskhan ke kavya ko pathkon tak pahunchane ke liye abhar.
Poonam
बहुत अच्छी प्रस्तुति..... रसखान की इन पंक्तियों को बांटने का आभार ....
इस अद्वितीय रचना को पढ़वाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !
यहाँ भी पधारे
काव्य तरंग
आप सभी को हम सब की ओर से नवरात्र की ढेर सारी शुभ कामनाएं.
अनूठा ब्लाग लगा यह ! बहुत बढ़िया कार्य ! शुभकामनायें आपको
मिडिल स्कूल में पढ़ा था रसखान को . आज आपने फिर याद दिला दी.
धन्यवाद .
अहाहा....रसखान जी की इन पंक्तियों को जितनी बार पढो उतनी बार आनंद की प्राप्ति होती है...वाह...
नीरज
बहुत बहुत आभार मेरे ब्लॉग पर आने के लिए |रसखान की कविता बहुत पहले पढ़ी थी फिर से पढ़ कर बहुत अच्छा लगा |बधाई
आशा
बहुत अच्छी प्रस्तुति -- आभार !!
raskhan ki yaaden tazi kar di .wah.
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