नया ज़माना

  



नाकामी को ढंकते क्यूं हो,
नए बहाने गढ़ते क्यूं हो ?


रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?


तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ?


भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?


पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?


कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?


नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?


                        -महेन्द्र वर्मा

38 comments:

Bharat Bhushan said...

सादा ग़ज़ल. भावपूर्ण. बहुत अच्छी लगी.

ashish said...

भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो
वाह साहब क्या ग़ज़ल है , एकदम सटीक और तथ्य पूर्ण . मज़ा आ गया .

Shekhar Suman said...

बहुत खूब...
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

वर्मा जी! ऐसे सवाल उठाए हैं आपने जिनका उत्तर अपने अंदर से खोजना होगा..और जिसने यह उत्तर पा लिया, उसके लिए कोई लक्ष्य मुश्किल नहीं..
ये दो शेर ख़ास तौर पर पसंद आए,यह आस पास कई ऐसे लोगों को देखता हूँ.. यथार्थ है यहः
भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?
और इस शेर पर दुष्यंत याद आएः
पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?
कहते हैंः
नहीं कमीज़ तो पैरों से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए!
बहुत सुंदर!!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?

वाह, क्या बात है !

vijai Rajbali Mathur said...

आज के आडम्बर युक्त व्यवहार पर एकदम सटीक प्रहार किया है;स्तुत्य एवं विचारणीय रचना है.

POOJA... said...

सब सच कहने में इतनी दिक्कत
आखिर झूठ का ताना-बना बुनते ही क्यों हो?
बहुत प्यारी रचना...

अरुण चन्द्र रॉय said...

बहुत बेबाकी से पूछते सवाल ग़ज़ल को महत्वपूर्ण बना रहे हैं.. इनके जो उत्तर मिल जाएँ जीवन में कोई उलझन ही ना रहे.. बढ़िया ग़ज़ल..

Shikha Kaushik said...

har sawal me jawab deti gazal .bahut khoob .

महेन्‍द्र वर्मा said...

आप सभी के प्रति आभार।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?

बहुत खूब ....

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?

बहुत खूबसूरती से सच्ची बात कह दी .

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

कद्र वक़्त की करो,छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो।
अच्छी ग़ज़ल , बधाई।

मनोज कुमार said...

रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं, टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?
यही तो नया जमाना का असर है।

संगीता पुरी said...

बहुत ही बढिया !!

mark rai said...

कद्र वक़्त की करना सीखो,
छत की कड़ियां गिनते क्यूं हो ?

बहुत ही बढिया .....

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?

भाई महेंद्र वर्मा जी आप ने एक बार फिर प्रभावित किया है| बधाई|

स्वप्निल तिवारी said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?

aah..ye sher bahut pasand aaya
iske alwa aakhiri bhi khoob laga..
chhote bahar kee acchi ghazal kahi aapne

अनुपमा पाठक said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?
बहुत सटीक!
सुन्दर रचना!

Majaal said...

अच्छा अंदाज़ है साहब, सोच भी बड़ी कर्मठ है ;)
लिखते रहिये ....

anita saxena said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?......अच्छी ग़ज़ल , बधाई

Kunwar Kusumesh said...

रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?

भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?

क्या बात है, खूब शेर कहते हैं आप महेंद्र जी

Shalini kaushik said...

kahte hain ki har sawal ka jawab nahi mil sakta kintu aapne ise asatya sabit kar diya.bahut khoob..........

उपेन्द्र नाथ said...

महेंद्र , जी बहुत सुन्दर रचना!

Er. सत्यम शिवम said...

बहुत ही खुबसूरत रचना...मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ मेरी कविताएँ "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी हर सोमवार, शुक्रवार प्रकाशित.....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे......धन्यवाद

दिगम्बर नासवा said...

रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?

तुमने तो कुछ किया भी नहीं,
थके-थके से लगते क्यूं हो ..


वाह छोटी बहर में भी कमाल किया है ... आम शब्दों को लेकर लिखी है ग़ज़ल ... लाजवाब ग़ज़ल ... और कमाल के शेर ..

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'pair tumhare mud sakte hai.
chadar chhoti kahte kyon ho.'
umda sher ...
sundar gazal..

ZEAL said...

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जो लोग कुछ करना नहीं चाहते और समय तथा परिस्थिति को कोसते रहते हैं । उनके समक्ष बेहतरीन प्रश्न उपस्थित किये हैं। इन प्रश्नों के उत्तर में एक सफल जीवन का दिशा निर्देश है। महेंद्र जी, आभार इस उम्दा प्रस्तुति के लिए।

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Sunil Kumar said...

रस्ते तो बिल्कुल सीधे हैं,
टेढ़े-मेढ़े चलते क्यूं हो ?
वाह, क्या बात है!

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

अच्छी बात कही है आपने.

Arvind Mishra said...

एक खबरदारिया सुन्दर सी रचना

रश्मि प्रभा... said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?
bahut khoob

Sushil Bakliwal said...

पैर तुम्हारे मुड़ सकते हैं,
चादर छोटी कहते क्यूं हो ?
उत्तम प्रस्तुति...

vandana gupta said...

नया ज़माना पूछ रहा है,
मुझ पर इतना हंसते क्यूं हो ?
बहुत सुन्दर गज़ल्………सुन्दर प्रस्तुति।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

महेंद्र भाई हम तो पहले ही इस ग़ज़ल की दीवानगी से रु-ब-रु हो चुके हैं| एक बार फिर से बहुत बहुत बधाई|

Kailash Sharma said...

भीतर कालिख भरी हुई है,
बाहर उजले दिखते क्यूं हो ?

हरेक शेर लाज़वाब...जीवन के कटु सत्यों को बहुत सुंदरता से चित्रित किया है..आभार

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

महेन्‍द्र जी, छोटी बहर में बडी बडी बातें कह दी आपने, बधाई।

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दिल्‍ली के दिलवाले ब्‍लॉगर।

रंजना said...

जीने की राह दिखाती सार्थक सुन्दर रचना...