रंगमंच


हित रक्षक भक्षक बन जाए क्या कर लोगे,
सुख ही दुखदायक बन जाए क्या कर लोगे।


बहिरंतर में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व सजाए
मित्र कभी निंदक बन जाए क्या कर लोगे।


पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।


विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।


शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।


शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।

                                                                 -महेन्द्र वर्मा

45 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।

बहुत सुन्दर और संदेशात्मक रचना ..

Rahul Singh said...

कुछ न कुछ तो करना ही होगा.

जयकृष्ण राय तुषार said...

अद्भुत गज़ल भाई महेंद्र जी बधाई और शुभकामनाएं |

Amrita Tanmay said...

कागा उपदेशक बन जाए, हृदय में घाव वही घातक..अच्छी लगी
बहुत सुन्दर रचना ..बधाई

मदन शर्मा said...

शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।
ज़िन्दगी की तल्ख़ मगर सच्ची बात ..बहुत खूब
पाठक के चिंतन को झकझोरने वाली रचना के लिए साधुवाद!
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ! शुभकामनायें

Sawai Singh Rajpurohit said...

बहुत सुन्दर रचना और अच्छी पोस्ट है…

virendra sharma said...

हित रक्षक भक्षक बन जाए क्या करलोगे-बेहतरीन ग़ज़ल -दुष्यंत कुमारजी की याद आगई-
यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है ,चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए ,
कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिए ,कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ।
भाई साहिब !ज़िन्दगी की इस बात के लिए जो आपने ग़ज़ल के मार्फ़त कह दी ,बधाई !

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

मित्र कभी निंदक बन जाए क्या कर लोगे।

कड़वा सच

Kailash Sharma said...

शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।

....सच में कुछ नहीं कर लेंगे..लाजवाब गज़ल. हरेक शेर जीवन के कटु सत्य से साक्षात्कार कराता हुआ..आभार

संजय भास्‍कर said...

आदरणीय महेंद्र जी
नमस्कार !
बहिरंतर में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व सजाए
मित्र कभी निंदक बन जाए क्या कर लोगे।
संदेशात्मक रचना प्रस्तुति....

Amit Chandra said...

कभी कभी ऐसा सचमुच कुछ हो जाता है कि चाह कर भी कुछ नही कर सकते। सुन्दर रचना। आभार।

ZEAL said...

पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे...

Lovely couplets.

.

मनोज कुमार said...

बहुत सुंदर, मन और दिल को छूती रचना।

ashish said...

शूल चुभोया अपनों ने जो कभी हृदय में
घाव वही घातक बन जाए क्या कर लोगे।

वाह , सुँदर सन्देश देती हुई सारगर्भित रचना .

डॉ. मोनिका शर्मा said...

पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।


विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।

सुंदर भावाभिव्यक्ति.....सन्देश देतीं अर्थपूर्ण पंक्तियाँ .....

Kunwar Kusumesh said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।

बड़ा सटीक तथा तीखा प्रहार इस शेर में किया है.वाह, मज़ा आ गया पढ़कर क्योंकि हालात कुछ ऐसे ही बन गए है.

Bharat Bhushan said...

हर दूसरी पंक्ति प्रश्न उठाती है परंतु निराशा की ओर नहीं ले जाती, यही इस रचना की खूबसूरती है. मैं इसे अद्भुत कहूँगा.

संजय @ मो सम कौन... said...

भूषणजी से सहमत। सत्य है और कड़वा भी, लेकिन पलायन की तरफ़ नहीं ले जाता।
सदा की भाँति सरल सहज प्रवाह में कही गई रचना।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

हिन्दी भाषा के शब्दों से सजी,आपकी पिछली ग़ज़लों से भिन्न (जिनमें हिन्दुस्तानी जुबान का प्रयोग होता था, यह गज़ल एक सुन्दर बयार की तरह है.. आपके प्रश्न खुद सवाल हैं और उसके अंदर ही छिपा है जवाब!! महेन्द्र जी, आभार आपका यह बेहतरीन रचना साझा करने के लिए!!

Urmi said...

बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

दिगम्बर नासवा said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।

हिन्दी शब्दों को लेकर लिखी ... सजीव ग़ज़ल ... भावों को स्पष्ट व्यक्त किया है ...

rashmi ravija said...

पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति

उपेन्द्र नाथ said...

in nazmon ke madhyam se aapne bahut hi sarthak bat uthayee hai. sab niyati ka khel hai ki kab kya ho jaye........... sunder abhivayakti.

Sadhana Vaid said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।

विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।

अत्यंत सशक्त एवं सार्थक रचना ! हर शब्द गहन सोच को प्रकट करता है ! बधाई स्वीकार करें !

M VERMA said...

जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।
जीवन तो रंगमंच के इर्द गिर्द ही तो है.
सुन्दर रचना

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।

जीवन के ज्वलंत सन्दर्भों को रेखांकित करती बेहतरीन ग़ज़ल !
आभार !

मदन शर्मा said...

आदरणीय महेंद्र जी नमस्कार !
भूले बिछड़े शब्दों का मधुर भावुक संपर्क पुनः प्राप्त हो जाता है आपके ब्लॉग पर आते ही....
शुभकामनायें

Satish Saxena said...

सच कहा आपने , चारो तरफ ऐसे उपदेशक बिखरे पड़े हैं ! शुभकामनायें आपको !!

रचना दीक्षित said...

हित रक्षक भक्षक बन जाए क्या कर लोगे,
सुख ही दुखदायक बन जाए क्या कर लोगे।

आज का जमाना कुछ ऐसा ही हो गया है. बेहतरीन और सटीक प्रहार जीवन के ज्वलन्त संदर्भो में.

बाबुषा said...

'जीवन यदि नाटक बन जाए' - नाटक ही तो है जीवन.. This world's a stage..all men n women merely players..-Willaim Shakespeare याद हो आये.

अजय कुमार said...

prabhaawshaali rachanaa

Rajesh Kumari said...

विश्वासों के धवल वसन में छिद्र हैं इतने,
सूत्र सूत्र जालक बन जाए क्या कर लोगे।


शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।bahut achchi vyangaatmak bhaav liye hue aapki yeh rachna.aapki kalam me ek rosh jhalakta hai.pahli baar aapke blog par aai hoon.follow kar rahi hoon.

निवेदिता श्रीवास्तव said...

सशक्त अभिव्यक्ति.....

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।
शब्द संयोजन ,व्यंग अनुपम.
हमारे ब्लॉग में पधारने व उत्साहवर्धन करने हेतु धन्यवाद.हमारे पारिवारिक -ब्लॉग में हमेशा स्वागत है.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

पैना व्यंग्य लिखा है आपने.आपकी ग़ज़ल पढ़ कर दो पंक्तियाँ स्वयमेव बन गई.आपको समर्पित हैं.
राजा है ,मान-पत्र चाहे जिसको दे
गदहा भी गायक बन जाये,क्या कर लोगे.

Unknown said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे

ज्वलंत सन्दर्भों को रेखांकित करती बेहतरीन ग़ज़ल

Vivek Jain said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।
वाह...
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

'शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश
कागा उपदेशक बन जाये क्या कर लोगे '
................................वर्तमान को व्यक्त करता सुन्दर शेर
.......................शब्दशिल्प के साथ-साथ अच्छे भावों की विशुद्ध गीतिका (हिंदी ग़ज़ल )

रेखा said...

ऐसा तो सभी के जीवन में होता है जब हम कुछ भी नहीं कर पाते है ....केवल परिस्थितियों के आगे शांत रहकर काम चलाना होता है.

रंजना said...

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।

विसंगतियों को बहुत खूब व्यंजना दी आपने......

मनमोहक अतिसुन्दर सार्थक दोहे...

Sunil Kumar said...

संदेशात्मक रचना ,अतिसुन्दर .......

संतोष त्रिवेदी said...

मित्र यदि हमारे हित में निंदक है तो यह उपयोगी है पर आजकल लोग भी चाहते हैं कि 'मित्र' भी 'यस मैन' बन जाये !

Vandana Ramasingh said...

पल पल दृश्य हुए परिवर्तित धरे मुखौटे,
जीवन यदि नाटक बन जाए क्या कर लोगे।

सोचने पर मजबूर करता एक एक शेर

शुभ्र विवेकवान हंसों के मध्य दंभवश ,
कागा उपदेशक बन जाए क्या कर लोगे।

विभूति" said...

गहन अभिवयक्ति.....

vidya said...

सार्थक रचना..
सटीक सवाल करती हुई...
हलचल के माध्यम से पुरानी रचनाओं का आनंद भी उठा पाते हैं..
सादर.