ग़ज़ल



भीड़ में अस्तित्व अपना खोजते देखे गए,
मौन थे जो आज तक वे चीखते देखे गए।

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

                                                                           
                                                                       -महेन्द्र वर्मा

42 comments:

virendra sharma said...

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
आधुनिक जीवन बोध से सीधा संवाद करती है यह ग़ज़ल.एक परिवेश खडा करती है पाठक के गिर्द .

Dr.NISHA MAHARANA said...

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।very nice.

Kunwar Kusumesh said...

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

हश्र तो यही होता ही है ऐसे लोगों का.अच्छा शेर है और बहुत बढ़िया ग़ज़ल है.

प्रेम सरोवर said...

आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट उपेंद्र नाथ अश्क पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

महेंद्र जी,!!!!!!बहुत सुंदर गजल लिखी आपने.
वाह!!!!!बेहतरीन

मेरी नई रचना --"काव्यान्जलि"--बेटी और पेड़.... में klick करे...

Jeevan Pushp said...

बहुत सुन्दर!
आभार !

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

हर शेर उम्दा... एकदम जमीनी... मूल से सम्बद्ध...
आदरणीय महेंद्र सर, सादर बधाई स्वीकारें...

अनुपमा पाठक said...

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
जड़ों से जुदा होकर जीवन चल नहीं सकता... चाहे वह कोई भी ज़िन्दगी हो... पेड़ की या इंसान की!
सार्थक सूक्तियों सी सुन्दर प्रस्तुति!

रश्मि प्रभा... said...

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।
yahi sach hai...

Naveen Mani Tripathi said...

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

hr ak sher lajbab ... ap to chhupe rustam nikale ....abhar verma ji.

रेखा said...

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

बहुत ही उम्दा गज़ल.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।

बहुत खूबसूरत गज़ल ..
यह शेर पढ़ कर रहीम जी का दोहा याद आ गया --
रहिमन निज मन की व्यथा , मन ही राखे गोय |
सुनी अठीलैहैं लोग सब , बाँट न लैहैं कोय ||

दिगम्बर नासवा said...

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए ...

वाह महेंद्र जी ... लाजवाब गज़ल है ... और इस शेर के तो क्या कहने सुभान अल्ला ..

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

बहुत सुंदर ग़ज़ल है महेन्द्र जी, बधाई स्वीकारें

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...
This comment has been removed by the author.
चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

बेशऊरी इस कदर बड़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।
वर्मा साहब! हमें पहचान है नगीनों की.. वो नगीने जो सदा आपके दर से मिले हैं हमें!! शुक्रिया!

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।

महेंद्र जी , बेहतरीन गज़ल है.हर शेर उम्दा, यह शेर खास तौर पे पसंद आया.

हरकीरत ' हीर' said...

हाथ में खंजर लिए कुछ लोग आए शहर में,
सुना हे मेरा ठिकाना पूछते देखे गए।

aisa kya kiya aapne ...:))

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

bahut khoob ....!!

Apanatva said...

Bahut khoob .

Apanatva said...

Bahut khoob .

उपेन्द्र नाथ said...

बिलकुल जीवन की सत्यता को उजागर करती पोस्ट.... सुंदर प्रस्तुति.

Unknown said...

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

महेंद्र जी,बहुत सुंदर

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

वर्मा जी! आज तो आप चुटकी-तमाचा ...थप्पड़-घूँसा ...तोप-तमंचा सब चला रहे हैं .....

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

हीर जी ने कितनी मासूमियत से पूछा है "ऐसा क्या किया आपने?"
मगर वर्मा जी ! अभी तक ज़वाब नहीं दिया आपने?

ऋता शेखर 'मधु' said...

लोग उठ कर चल दिए उसने सुनाई जब व्यथा,
और जो बैठे रहे वे ऊबते देखे गए।
बहुत सुन्दर...सभी रचनाएँ बहुत अच्छी हैं|

Naveen Mani Tripathi said...

Charcha manch pr aj fir apki gazal padhi aur bar bar padhane ki echha hai ... abhar .

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

व्यथा को सुन्दर व सार्थक शब्द दिये हैं आपने ।

मन के - मनके said...

एक-एक नुक्ता,काबिले-तारीफ़.

virendra sharma said...

बहुत अच्छी ग़ज़ल .बारहा पढने को ललचाती सी .

Suman said...

बेशऊरी इस कदर बढ़ती गई उनकी कि वे,
काँच के शक में नगीने फेंकते देखे गए।
बढ़िया हर पंक्ति सुंदर .....

Beqrar said...

bahooot bahoot aur bahoot khoob likha janab har sher ko dheron daad.

Nidhi said...

अच्छा लिखा है...आधुनिकता के क्या नुक्सान हैं...उसको दर्शाती गज़ल.

Bharat Bhushan said...

रूठने का सिलसिला कुछ इस तरह आगे बढ़ा,
लोग जो आए मनाने रूठते देखे गए।

कह रहे थे जो कि हम हैं नेकनीयत रहनुमा,
काफिले को राह में ही लूटते देखे गए।

सभी अशआर में नया रंग. खूबसूरत ग़ज़ल.

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

शानदार ग़ज़ल महेंद्र जी

vidya said...

बहुत बढ़िया...
सच्ची बातें..अच्छी गज़ल..

Kailash Sharma said...

आधुनिकता के नशे में रात दिन जो चूर थे,
ऊब कर फिर जि़ंदगी से भागते देखे गए।

...बहुत खूब! आज के यथार्थ को चित्रित करती बहुत ख़ूबसूरत गज़ल ...

दिगम्बर नासवा said...

नया साल मुबारक ...

Asha Lata Saxena said...

नव वर्ष शुभ और मंगलमय हो |
आशा

Rakesh Kumar said...

अति सुन्दर लाजबाब प्रस्तुति है आपकी.

महेंद्र जी, आपसे ब्लॉग जगत में परिचय होना मेरे लिए परम सौभाग्य
की बात है.बहुत कुछ सीखा और जाना है आपसे.इस माने में वर्ष
२०११ मेरे लिए बहुत शुभ और अच्छा रहा.

मैं दुआ और कामना करता हूँ की आनेवाला नववर्ष आपके हमारे जीवन
में नित खुशहाली और मंगलकारी सन्देश लेकर आये.

नववर्ष की आपको बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

सुंदर अभिव्यक्ति बेहतरीन गजल ,.....
नया साल सुखद एवं मंगलमय हो,....

मेरी नई पोस्ट --"नये साल की खुशी मनाएं"--

ऋता शेखर 'मधु' said...

नव वर्ष मंगलमय हो,हार्दिक शुभकामनाएँ!!

मेरा मन पंछी सा said...

बहूत हि शानदार गजल है ..
हर पंक्ती बेहतरीन है....