ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।
बिना परिश्रम ही किए, यदि धन होता प्राप्त,
वैचारिक उद्भ्रांत से, मन हो जाता व्याप्त।
जैसे-जैसे लाभ हो , वैसे बढ़ता लोभ,
जब अतिशय हो लोभ तब, मन में उठता क्षोभ।
भूत और भवितव्य पर, नहीं हमारा जोर,
सुलझाते चलते रहो, वर्तमान की डोर।
रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।
सुख की छाया में सदा, पलता रहता राग,
दुख का कारण बन गया, किंतु राग की आग।
जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।
-महेन्द्र वर्मा
13 comments:
बढिया दोहे हैं भैया, आभार
जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।
बहुत सुन्दर दोहे ...!!
आभार .
रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।
सुंदर अर्थपूर्ण दोहे.....
रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास।
बहुत बढ़िया,उम्दा भावपूर्ण दोहे,महेंद्र जी !!!
Recent post: तुम्हारा चेहरा ,
हमेशा की तरह सरल, सहज शब्दों में जीवन अनुभव का निचोड़।
आपके सभी दोहे बहुत सरस सुन्दर एवम समरस हैं
अंतिम दोहे के लिए एक श्लोक है ----
संसार विश व्रिक्छ्स्य द्वे फले अम्रितोपमे ।
काव्याम्रित रसास्वादन सन्गति: सज्जनै:स:।।
ज्ञान और ईमान अब, हुए महत्ताहीन,
छल-प्रपंच करके सभी, धन के हुए अधीन।
रूप वही सुंदर जहां, गुण का ही हो वास,
गुणविहीन यदि रूप है, वह केवल आभास ..
सभी दोहे प्रभावी ... सुन्दर ... जीवन का सार लिए ... मज़ा आ गया ...
काव्यामृत का पान कराने के लिए हार्दिक आभार..
जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।
एक लाख की बात
आदरणीय महेंद्र जी, हर दोहा बहुमूल्य रत्न जैसा.
दोहों की परंपरा में प्राण फूँकते नीति और जीवन- रीति के संदेश -आभार !
जगती सम विष-वृक्ष के, दो फल अमृत जान,
सज्जन की संगति तथा, काव्यामृत का पान।
सदा रहे यह ध्यान
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