दिन ढला तो साँझ का उजला सितारा मिल गया,
रात की अब फ़िक्र किसको जब दियारा मिल गया ।
ज़िंदगी की डायरी में बस लकीरें थीं मगर,
कुछ लिखा था जिस सफ़्हे पर वो दुबारा मिल गया ।
तेज़ लहरों ने गिराया फिर उठाया और तब,
उम्र के गहरे समंदर का किनारा मिल गया ।
वो जिसे बाहर हमेशा ढूँढता फिरता रहा,
बंद आखों से हृदय में जब निहारा मिल गया ।
वक़्त ने की मेह्रबानी तोहफ़ा उसने दिया,
फिर वही अनबूझ प्रश्नों का पिटारा मिल गया ।
-महेन्द्र वर्मा
रात की अब फ़िक्र किसको जब दियारा मिल गया ।
ज़िंदगी की डायरी में बस लकीरें थीं मगर,
कुछ लिखा था जिस सफ़्हे पर वो दुबारा मिल गया ।
तेज़ लहरों ने गिराया फिर उठाया और तब,
उम्र के गहरे समंदर का किनारा मिल गया ।
वो जिसे बाहर हमेशा ढूँढता फिरता रहा,
बंद आखों से हृदय में जब निहारा मिल गया ।
वक़्त ने की मेह्रबानी तोहफ़ा उसने दिया,
फिर वही अनबूझ प्रश्नों का पिटारा मिल गया ।
-महेन्द्र वर्मा
10 comments:
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम जी की प्रथम पुण्यतिथि और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ज़िंदगी की डायरी में बस लकीरें थीं मगर,
कुछ लिखा था जिस सफ़्हे पर वो दुबारा मिल गया ।
वाह बहुत उम्दा वर्मा जी। ये तो मैने चुना है पर पूरी गज़ल शानदार।
कुछ मिल जाना अपने आप में रोमांच का विषय है. उम्मीद के रूप में मिले तो क्या बात है. प्रश्नों का पिटारा मिल जाए तो रोमांच और भी बढ़ जाता है.
क्या बात है महेंद्र जी. बहुत खूब.
वाह...
बेहतरीन ग़ज़ल
सादर
गहरे समुन्दर में किनारा डूब के उभरने पर ही मिलता है ...
लाजवाब शेर हैं सभी ...
वाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...बहुत उम्दा अशआर...
वर्मा सा.
हमेशा की तरह सधी हुई, मानीखेज और सार्थक गज़ल!
तेज़ लहरों ने गिराया फिर उठाया और तब,
उम्र के गहरे समंदर का किनारा मिल गया ।
वो जिसे बाहर हमेशा ढूँढता फिरता रहा,
बंद आखों से हृदय में जब निहारा मिल गया ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय
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कुछ लिखा था जिस सफ़्हे पर वो दुबारा मिल गया ।
बहुत ख़ूबसूरत उम्दा वर्मा जी।
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