प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफ़िलों में अब ज़रा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।
मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या ज़रूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गाँव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
-महेन्द्र वर्मा
6 comments:
बहुत सुंदर ग़ज़ल महेंद्र जी. तितलियों का ज़िक्र आपने ख़ुद ही बहुत ख़ूबसूरती से कर दिया है. यह शेअर तो आज के माहौल की ज़रूरत है-
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
गज़ब अभिव्यक्ति !
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...बहुत उम्दा अशआर...
बहुत खूब ... हर शेर लाजवाब और कमाल की बात कह रहा है ...
पूरी ग़ज़ल में बेहतरीन शेर ...
लाजवाब ख़ूबसूरत ग़ज़ल...बहुत उम्दा अशआर...
वाह !!!
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