शीत : सात छवियाँ




धूप गरीबी झेलती, 
बढ़ा ताप का भाव,
ठिठुर रहा आकाश है,
ढूँढ़े सूर्य अलाव ।

रात रो रही रात भर, 
अपनी आंखें मूँद,
पीर सहेजा फूल ने, 
बूँद-बूँद फिर बूँद ।

सूरज हमने क्या किया, 
क्यों करता परिहास,
धुआँ-धुआँ सी ज़िन्दगी
धुंध-धुंध विश्वास ।

मानसून की मृत्यु से, 
पर्वत है हैरान,
दुखी घाटियाँ ओढ़तीं, 
श्वेत वसन परिधान ।

कितनी निठुरा हो गई, 
आज पूस की रात,
नींद राह तकती रही, 
सपनों की बारात ।

उम्र नहीं अब देखती, 
चादर  का परिमाप
मन को ऊर्जा दे रहा, 
जीवन का संताप ।

बुझी अँगीठी देखती, 
मुखिया बेपरवाह,
परिजन हुए विमूढ़-से, 
वाह करें या आह ।                                                                  -महेन्द्र वर्मा

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर दोहे।

आलोक सिन्हा said...

बहुत बहुत सुन्दर गजल